साकार हो रहा माओ का सपना!

maoचीनी लाल सेना भारत की सीमा के अंदर लगातार घुसपैठ कर रही है। हाल ही के दिनों में इसमें कई गुना बढोत्तारी हुई है। भारत और चीन के बीच सीमा को लेकर वार्ता कई सालों से चल रही है। वैसे देखा जाए तो भारत और चीन की सीमा इतिहास में कभी नहीं मिलती थी लेकिन चीन द्वारा तिब्बत को हड़पने के बाद भारत की सीमाएं चीन से लगीं। लेकिन अनुभवों से पता चला है कि चीन इस मामले में भरोसे के लायक नहीं है। यही कारण है कि गत 28 सालों के बातचीत में कोई खास लाभ नहीं मिला है। चीन की साम्राज्यवादी मनोवृत्ति के कारण भारत के प्रयास भी सफल नहीं हो रहे हैं।

सितंबर के पहले सप्ताह में चीनी सेना लदाख के क्षेत्र में घुसपैठ कर माउंट ग्या के पास पत्थरों पर लाल रंग से चीनी भाषा में चीन लिख दिया था। यह स्थान सीमा से 1 1.5 किलोमीटर से 1.7 किलोमीटर के बीच है। इससे पहले गत जून माह में भी चीनी हेलितेप्टर भारतीय सीमा में घुस आये थे। इस विवाद की बात समाप्त भी नहीं हुआ था उत्ताराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ने चमोली जिले में चीनी सेना द्वारा भारतीय सीमा में घुसपैठ की सूचना केन्द्र सरकार को दी है। चीन की इस प्रकार की कार्रवाई 1962 से पूर्व स्थिति की याद को ताजा करती है। भारतीय सेना सूत्रों ने यह स्वीकार किया है कि 2007 में चीनी सेना ने 140 बार तथा 2008 में 270 बार घुसपैठ की है। भारत सरकार ने अनावश्यक संयम का परिचय देते हुए केवल मौखिक प्रतिक्रिया प्रदान की है और औपचारिकता को निभाया है।

चीनी सेना का भारतीय सीमा का उल्लंघन एक दीर्घकालीक योजना का हिस्सा हो सकता है। सामरिक मामलों के जानकारों के अनुसार चीन के लिए यह रणनीति कोई नयी रणनीति नहीं है। कम्युनिस्ट चीन के संस्थापक माओ के साम्राज्यवादी सपना का यह हिस्सा है। एक स्वतंत्र राष्ट्र के रुप में हजारों साल से अस्तित्व में रहे तिब्बत को हडपने के बाद माओ ने कहा था कि तिब्बत चीन की हथेली है। इसके पांच उंगलियां है, नेफा, अरुणाचल, भूटान, नेपाल, सिक्किम व लद्दाख। इसलिए इन पांचों उंगलियों कों कब्जे में लेने के लिए लाल सेना द्वारा एक दीर्घकालीक रणनीति का यह हिस्सा है। बदली हुई परिस्थितियों में भारत सरकार की नपुंसकतापूर्ण, अदूरदर्शी नीति के कारण माओ का सपना साकार होता हुआ प्रतीत हो रहा है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु से लेकर अब तक की सरकारें सभी की नीति इस मामले में एक जैसी है।

चीन उसके नक्शे में लद्दाख, सिक्किम व अरुणाचल को प्रदर्शित करता रहा है। उस दीर्घकालीक योजना के हिस्से के तहत 1962 में चीन अरुणाचल प्रदेश के तवांग, बाउंडिला आदि इलाकों में सर्वप्रथम घुस आया था। अरुणाचल प्रदेश के 90 हजार वर्ग माइल भूमि पर चीन अपना दावा जता रहा है। इसलिए चीन अरुणाचल को लेकर बार बार विवाद खडा करने का प्रयास करता रहता है। अरुणाचल प्रदेश के भारतीय प्रशासनिक अधिकारी को वीजा यह कह कर न प्रदान करना कि अरुणाचल तो चीन का हिस्सा है, इसलिए उन्हें वीजा की आवश्यकता नहीं है, प्रधानमंत्री के अरुणाचल दौरे का विरोध करना आदि इसमें शामिल है। अरुणाचल में परियोजना स्थापित करने के लिए एशियन डेवलपमेंट बैंक से ऋण लेने के मामले में भी उसने यह कह कर विरोध किया कि अरुणाचल विवादीय इलाका होने के कारण वहां परियोजना शुरु करने के लिए चीन सरकार अनुमति नहीं देते। इस कारण ऋण नहीं मिलना चाहिए। इसके अलावा चीन ने सीमावर्ती इलाकों में शक्तिशाली ट्रांसमीटर लगाया है।

इसी तरह भूटान पर भी चीनी लाल सेना की नजर है। 2007के दिसंबर में चीनी सेना ने भूटान के उत्तारी पर्वतीय इलाकों में घुसपैठ की थी। उस समय भारत ने काफी नरम प्रतिक्रिया देते हुए इसको चीन व भूटान का द्विपक्षीय बात कही गई थी। यहां यह ध्यान रखने योग्य बात है कि भूटान भारत का पारंपरिक मित्र राष्ट्र है।

विश्व का एक मात्र घोषित हिन्दू राष्ट्र वर्तमान में माओवादियों के शिकंजे में चला गया है। यह देश काफी दिनों से चीनी ड्रैगन के निशाने पर था। चीनियों ने माओवादियों को हथियार, अस्त्र-शस्त्र आदि मुहैया करवा कर नेपाल को अस्थिर रखने की योजना पर काम कर रहे थे। राजतंत्र को हटाने के नाम पर और बाद में माओवादियों ने भारत विरोधी वातावरण नेपाल में फैलाया। माओवादियों ने कई अलिखित परंपराओं को तोडा। नेपाल के प्रधानमंत्री बने माओवादी नेता प्रचंड ने सर्वप्रथम भारत का दौरा न कर चीन का दौरा किया। माओवादियों की चीन के प्रति श्रध्दा किसी से छुपी हुई नहीं है। पशुपति नाथ मंदिर में दक्षिण भारत के पूजक नियुक्त होने की सालों से चली आ रही परंपरा को भी माओवादियों ने तोडा। वे भारत से सभी सांस्कृतिक संबंध तोडना चाहते थे। न्यायालय के हस्तक्षेप से यह संभव नहीं हो पाया। लेकिन माओवादियों ने फिर भारतीय पूजकों की पिटाई की। नेपाल के माओवादियों के सहयोग से भारत में भी माओवाद फैलता जा रहा है। देश के नौ प्रांतों के 170 जिले बुरी तरह माओवादियों के शिकंजे में हैं। इन इलाकों में माओवादी रोज खून की होली खेल रहे हैं। नेपाल के माध्यम से जाली रुपया फैलाया जा रहा है। चीन ने नेपाल को भारत विरोधी कार्य का अड्डा बनाने की योजना में काफी हद तक सफल रहा है।

इसके बाद सिक्किम की चर्चा की जाए। गत मई 2008 में चीन ने सिक्किम के फिं गर टिप नामक इलाके को कब्जे में करने के लिए चीनी सेना द्वारा सामरिक कार्रवाई करने की धमकी दी गई थी। गत वर्ष भारतीय प्रतिरक्षा मंत्री ए.के. अंटोनी ने सिकिम का दौरा किया और चीनी सीमा में किये जा रहे विकास कार्यों को देखा। चीनी सेना वहां भी घुसपैठ कर रही है। लेकिन भारत सरकार का यहां भी नपुसंकतापूर्ण रवैया है।

लद्दाख के क्षेत्र में रणनीतिक ह्ष्टि से काफी महत्वपूर्ण है। 1962 में ही चीनी सेना ने लद्दाख इलाके में हजारों वर्ग माईल भूमि हडप ली थी। इसके बाद पाकिस्तान ने हजार वर्ग माईल भूमि चीन को उपहार स्वरुप दिया है। संपूर्ण लदाख पर चीनी गिद्ध दृष्टि लगी हुई है। इस कारण वह यहां बार बार घुसपैैठ कर रही है।

1962 में भारतीय संसद ने चीन द्वारा हडपी गई भूमि को वापस लेने के लिए एक संकल्प प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया गया था। आज तक इस पर कार्रवाई होते हुए दिख नहीं रहा है।

चीन के साम्राज्यवादी मंसूबे अब भावनात्मक स्तर पर नहीं रहा है, अब यह वास्तविकता का रुप लेने लगा है। भारत को जल स्थल, वायु मार्ग से घेरने की पूरी रणनीति बना रहा है। लगता है भारत सरकार ने इतिहास से कोई शिक्षा नहीं ली है। अब भी हिन्दी-चीनी भाई -भाई के गीत गाये जा रहे हैं। उनके पक्ष में बोलने के लिए प्रकाश करात जैसे लोग मुखर हैं। इसे लेकर लेख लिख रहे हैं। चीन के इस रवैये के खिलाफ भारत में युवा, छात्रों व अन्य नागरिकों के द्वारा जिस तरह की प्रतिक्रिया आनी चाहिए थी, वह नहीं आ रही है। भारतीय सरकारी नेतृत्व व राजनेता-जब रोम जल रहा था तब सम्राट नीरो बंशी बजा रहा था – को चरितार्थ कर रहे हैं। अगर इस तरह की नपुंसकता जारी रहेगी तो भारत पन: अपनी भूमि की रक्षा करने में विफल होगा।

-दीपक कुमार महांत

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं। भारत-तिब्बत सहयोग मंच के राष्ट्रीय सचिव तथा हिन्द स्वराज शतवार्षिकी मनाने के लिए ओडिशा में बनी प्रांतीय समिति के संयोजक हैं।

1 COMMENT

  1. वास्तव में, तिब्बत और पूर्वी तुर्किस्तान में जारी प्रतिरोध तथाकथित चीनी कम्युनिस्टों के बुर्जुआ साम्राज्यवादी चेहरे को ही बेनकाब करता है। ऐसी सत्ता के तहत राष्ट्रीयताओं और जातीयताओं के सवाल को हल नहीं किया जा सकता। जिस चीनी माॅडल का इतना हल्ला है, वह वास्तव में आज पतन के एक महान खतरे से जूझ रहा है। आज दुनिया 19वीं सदी के उसी खेल का दोहराया जाना देख रही है जहां तमाम बड़ी ताकतें अपने पूंजीवादी औद्योगीकरण के लिए बेहद अनिवार्य ऊर्जा संसाधनों को हड़प लेने की साजिशों में जुटी हैं।

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