मार्कण्डेय : जिनके पास अंतर को पढ़ लेने की एक्सरे जैसी आंखें थी

-सरला माहेश्वरी

पिछले वर्ष दो अक्तुबर को पिताजी हमें छोड़ कर चले गये। पिताजी की शब्दावली में, शहरीले जंगल में सांसों की हलचल अचानक थम सी गयी। कोलाहल के आंगन में जैसे सन्नाटा पसर गया। इस सन्नाटे को कोई कैसे स्वराए? किससे बात करे एकाकी मन ? सागर जैसा एकाकीपन, नीले जल सा खारा तन–मन, थके–थके से मन हिरना को किस दूरी की आस बंधाएं? लेकिन फिर पिताजी की आवाज सुनाई पड़ती – उड.ना मन मत हार सुपर्णे! सुधियां साथ निभाएंगी। पिताजी की रचनाओं की वह अनुपम सौगात, वह अनमोल, अकूत विरासत हमारी सबसे बड़ी शक्ति है, हमारे जीने का संबल है। उनके गीतों की आहटें दिन–रात ध्वनि–प्रतिध्वनियों की तरह हमारे साथ है।

अभी इसी शक्ति को संजो ही रही थी कि साल के शुरू में ही ज्योति बसु चल बसे। बीकानेर से मॉं का फोन आया। भर्राई हुई आवाज में उन्होंने कहा – ‘एक बाप बीकानेर में छोड़ कर चला गया और अब कलकत्ते का बाप भी छोड़ कर चला गया।‘ मॉं ने तो बहुत सहज सरल रूप में यह बात कही थी। ज्योति बसु जैसे कम्युनिस्ट पार्टी के इतने बड़े नेता हम सबके लिये पिता समान ही थे। हां मॉं ने उन्हें हमारे परिवार के सभी बड़े समारोहों में आते जरूर देखा था। लेकिन ज्योति बसु सचमुच मेरे पिता समान थे। उन्होंने मेरे सर पर एक पिता की तरह अपना प्यार और आशीर्वाद तब बरसाया था जब मुझे उसकी सबसे ज्यादा जरूरत थी।

आपदा का एक और पहाड़ टूट पड़ा जब मार्कण्डेय भाई के चले जाने का समाचार मिला। यकीन ही नहीं हो रहा था। अभी पांच फरवरी को तो मैं और अरुण उनसे मिल कर आये थे। इस बार हम लोग यही सोच कर दिल्ली गये थे कि मेरे चेकअप के बाद हर हाल में मार्कण्डेय भाई से मिलकर ही आना है। हम लोग सुबह आठ बजे ही उनसे मिलने जाने वाले थे। ड्राईवर के आने में हो रही देरी हर पल हमारी बेचैनी को बढ़ा रही थी। हम कस्तुरबा गांधी मार्ग पर बंग भवन में टिके हुए थे और हमें जाना था राजीव गांधी कैंसर हास्पिटल। खैर, किसी तरह बड़ी मुश्किल से हम इतनी लंबी दूरी को पार कर उस जगह पर पहुंचे जहां वे हास्पिटल के पास ही कोई घर लेकर रह रहे थे। वैसे बीमारी की हालत में हमने पहले भी उन्हें देखा था। लेकिन इस बार उनकी आंखों में देखने का साहस नहीं हो रहा था । उनकी आंखें भर आई थी। वे मुझे भी बीमारी के बाद पहली बार देख रहे थे। उनकी आंखों ने मेरी दूसरी ही सूरत की कल्पना कर रखी थी। लेकिन मुझे पुराने रूप में देखकर मुस्कुराहट उनके चेहरे पर पसर गयी। गले में तकलीफ के बाद भी मार्कण्डेय भाई का बोलना जारी रहा। साहित्य की दुनिया में इस वक्त क्या हो रहा है, उन्हें हर चीज की जानकारी थी। अभी पुस्तक मेले में नामवरजी की चार किताबों का एक साथ विमोचन उनकी नजर में था। हम लोग उन्हें बार–बार आश्वस्त करते रहे कि रेडियेशन पूरा होने के बाद वे फिर से स्वस्थ हो जायेंगे। लेकिन दूसरे के मन की अंतरकथा जानने वाला कथाकार अपने भीतर की कथा भी बखूबी पढ़ रहा था और हम लोग गीली आंखें लिये उनसे विदा हो गये। मन मैं कहीं डर बैठ गया था कि यह मुलाकात कहीं आखिरी मुलाकात तो नही? लेकिन यह अंत इतना जल्दी सामने आ जायेगा इसका अंदाज तो नहीं था। मार्कण्डेय भाई में हमेशा मुझे कुछ–कुछ अपने पिता की छवि नजर आती थी। दोनों की मौत में भी अजीब साम्य था। दोनों के परिवार की भी एक मिली–जुली कहानी थी।

मार्कण्डेय भाई से पहली मुलाकात जनवादी लेखक संघ के निर्माण के सिलसिले में इलाहाबाद में हुई। मैं, अरुण और इसराइल साहब तीनों ‘82 में इलाहाबाद गये थे। इसराइल साहब उन्हें मार्कण्डेय भाई कहकर बुलाते थे। हम लोग भी उन्हें इसी नाम से पुकारने लगे। इलाहाबाद की वह पहली यात्रा मेरी यादों में हमेशा जीवंत बनी रही, हालांकि उसके बाद भी कई बार वहां जाने का मौका मिला। मुझे आज भी याद पड़ता है किस तरह घर पहुंचने के साथ ही हंसते हुए उन्होंने हमारा स्वागत किया था। मिंटो रोड में उनके पुराने घर के प्रवेश द्वार के साथ ही लगी हुई एक छोटी सी बैठक थी, जिसमें सामने ही उनकी विख्यात चौकी लगी थी। हम लोग नहा–धोकर वहीं बैठ गये। बातें चलती रही, वहीं चाय नाश्ता भी आता रहा। देखते ही देखते कई लेखकों का वहां जमावड़ा हो गया। भैरव प्रसाद गुप्त, शेखर जोशी, चंद्रभूषण तिवारी, दूधनाथ सिंह। सभी लेखक गहरी शिद्दत के साथ इस बात को महसूस कर रहे थे कि किस तरह प्रगतिशील लेखक संघ अपनी गलत और अवसरवादी नीतियों के चलते मौजूदा समय की चुनौतियों को समझने और उनसे लड़ने में एकदम नाकारा साबित हो चुका है। आंतरिक आपातकाल का समर्थन करके तो उस संगठन ने अपनी रही–सही विश्वसनीयता भी खत्म कर दी है। ऐसे समय में देश भर के जनवाद पसंद लेखकों का यह कर्तव्य बन जाता है कि वे हमारे देश की गौरवपूर्ण राष्ट्रीय और जनवादी परम्परा की रक्षा के लिये तथा उन मूल्यों को आज की परिस्थतियों में आगे बढ़ाने के लिये संगठित हों। सभी लोग इस बात पर एकमत थे कि लेखकों के एक ऐसे संगठन की फौरन जरूरत है जो जनवाद और जनवादी मूल्यों की रक्षा के लिये काम करें। इसके पहले कोलकाता में भी ‘कलम’ के संपादक–मंडल की एक बैठक के समय लेक प्लेस स्थित पार्टी के केंद्रीय कमेटी के कार्यालय में कामरेड बी टी रणदिवे से इस विषय में बातों का एक दौर पूरा हो चुका था जिसमें मार्कण्डेय भाई भी चंद्रबली सिंह, भैरव प्रसाद गुप्त, चंद्रभूषण तिवारी, अयोध्या सिंह, इसराइल और अरुण के साथ मौजूद थे।

इलाहाबाद में शुरू हुई इन बातों के बीच से मार्कण्डेय भाई का व्यक्तित्व मेरे सामने खुलता चला जा रहा था। सारा वातावरण मुझे अपने बीकानेर के घर जैसा ही लग रहा था। लोगों का जमावड़ा और बातों का अनवरत सिलसिला, चाय–नाश्ते का चक्र – सबकुछ वैसा ही जैसा देखते हुए मैं बड़ी हुई हूं। पिता को देखकर किसी भी व्यक्ति को यह समझने में देर नहीं लगती थी कि यह आदमी ऊपर से लेकर नीचे तक सिफ‍र् कवि है और इसलिये लोग उन्हें कविवर ही कहते थे। मार्कण्डेय भाई को देखकर मुझे पहली नजर में यह समझ में आ गया था कि वे एक कथाकार हैं। आदमी के अंदर झांकने की पैनी दृष्टि, छोटी–छोटी बातों की गहराई में जाकर डुबकी लगाना, पूरे विस्तार से उसका वृत्तांत पेश करना और वहां से कुछ अनकहा निकाल लाने की गजब क्षमता थी उनमें। मुझे लगता था कि इस आदमी की आंखों में एक्सरेज लगी हुई हैं, जो आपके भीतर का सबकुछ देख रही है। एक दिन अचानक खाने पर मार्कण्डेय भाई ने कहा कि सरला तुम सब्जी एकदम नहीं खाती हो। मैं तीन दिन से देख रहा हूं तुम सब्जी नहीं खा रही हो। मुझे आखिर कहना पड़ा कि मार्कण्डेय भाई आप बताइये इलाहबाद में क्या भिंडी के अलावा और कोई सब्जी नहीं होती। तीन दिनों से हम लोग कितनी जगहों पर खाना खाने गये, सब जगह खाने को भिंडी की सब्जी ही मिली। मुझे भिंडी इतनी पसंद नहीं है। मार्कण्डेय भाई जोर से खिलखिलाकर हंस पड़े। उन्होंने उसी समय आवाज लगाई अपनी पत्नी को, वे दौड़ी हुई आई। मार्कण्डेय भाई ने कहा देखो जब तक सरला यहां है, भिंडी नहीं बनेगी। उस यात्रा में मार्कण्डेय भाई से जो अंतरंग संबंध बने वे परवर्ती काल में और दृढ़ होते गये।

आजादी के बाद के भारत के ग्रामीण जीवन को उन्होंने जितनी गहराई से समझने की कोशिश की उनकी कहानियां और उपन्यास इसके साक्षी हैं। मार्कण्डेय इस बात को मानते थे कि ‘‘जीवन की एक निश्चित परिभाषा ही कहां? सच्चाइयां सहज, एकरूप और समस्तरीय तो नहीं होती। फिर आज की कहानी जो जीवन के निकटतम सूत्रों से अपना तान–बाना बुनने के लिये आतुर है, फामू‍र्लों में बंधकर कैसे चल सकती है? ‘‘ फामू‍र्लाबद्ध आलोचना करने वाले आलोचकों की और लेखकों की भी इसलिये मार्कण्डेय भाई जमकर खिंचाई भी करते थे। वे कहते थे कि आज नयी कहानी नाम से प्रचारित अधिकांश रचनाएं भाव बोध के स्तर पर नवीनता से कोसों दूर है, और लेखक कहीं का ईंट, कहीं का पत्थर मिलाकर एक ऐसा घालमेल कर रहे हैं जिसमें नयी वास्तविकता अथवा युग–बोध की तो बात ही दूर रही, शिल्प और चरित्रगत मनोविज्ञान की प्रारम्भिक समझ तक का अभाव है। कल्पना द्वारा निर्मित मानव चरित्रों को किसी भी सामाजिक परिवेश में रखकर लेखक अपने वर्णनों के बल पर पिछले दिनों जो भ्रमपूर्ण मनोविज्ञान की सृष्टि किया करते थे, उसी के प्रभाव में कई नये कहानी लेखक आज भी लिख रहे हैं।

लेकिन मार्कण्डेय भाई के पास वह पारखी नजर थी जो अपने समसामयिक यथार्थ को सिफ‍र् देखती ही नहीं थी बल्कि उस यर्थाथ को भी पकड़ने की कोशिश करती थी कि वह बदल कहां रहा है, इस नये बदलते हुए आदमी की पहचान ही उनके साहित्य की विशिष्टता है। गुलरा के बाबा, वासवी की मां, हंसा जाई अकेला, बीच के लोग, गनेसी, प्रिया सैेनी जैसी उनकी कहानियां और अग्निबीज जैसा कालजयी उपन्यास मार्कण्डेय भाई की रचनाशीलता के उज्जवल हस्ताक्षर हैं। मार्कण्डेय भाई की एक कविता याद आ रही है जिसमें वे कहते हैं – मेरे जैसे नवोदित कवि के पास/ किरण भी है/दृष्टि भी,/मालूम है अता–पता उनका/ जो आंखे चुराते हैं,/ करते गुमराह है किरण को/ दूंगा मैं सुराग/ बताऊंगा सबको/ कहां क्या है, कैसे है, क्यों हैं।

कहां क्या है, कैसे है, क्यों है – इसकी असली थाह पाना ही एक लेखक के लिये सबसे बड़ी चुनौती है। मार्कण्डेय भाई कहते थे, ‘‘त्रिभुज के तीन कोणों पर लेखक की चेतना, पात्र की चेतना और उसका परिवेश तथा युगबोध जिसे तत्कालीन समाज की औसत सच्चाई की चेतना कह सकते हैं, बैठे हुए हैं। इन्हीं के पारस्परिक समवाय से नये जीवन की अधिकतम वास्तविकताओं का चित्रण संभव है।‘‘ मार्कण्डेय भाई ने इस पारस्परिक समवाय को बहुत अच्छी तरह साधा था। मुझे याद आती है वह टकराहट जब अरुण अग्निबीज की समीक्षा लिख रहा था। अरुण के अपने वैचारिक आग्रह थे, जो बार–बार उससे कुछ और कहलवाना चाहते थे और हम उससे सहमत नहीं हो पा रहे थे। अरुण बेहद उलझन में था। ग्रामीण जीवन का परिवेश और उसमें जमीन का प्रश्न एक सिरे से अनुपस्थित! ऐसा कैसे हो सकता है। हम लोगों में, पूरे परिवार के स्तर पर तब लगातार विचार–मंथन चल रहा था। लेकिन अंतत: अरुण ने ‘अग्निजबीज की जो समीक्षा लिखी, उसे देख कर यही लगा कि साहित्य के आकलन में विचार नहीं, जिंदगी का यथार्थ ही सबसे बड़ा मानदंड है और उस समीक्षा में विचारों की नहीं, सच की जीत हुई थी।

मार्कण्डेय भाई की विदाई ‘अग्निबीज’ की नायिका श्यामा के बेमेल विवाह के बाद उसकी विदाई के दृश्य की याद दिला रही है – शोक का ऐसा उमड़ता–उफनता सागर गांव में कभी किसी ने नहीं देखा था। … आज यह गांव सूना हो गया, बेटी। आशा की वह अकेली किरण ही हमसे अलग हो रही है, जिसके उजाले में हम जी रहे थे।‘‘ श्यामा को विदा करते समय सिर्फ हम पाठक ही नही, खुद लेखक भी बहुत रोया होगा। आज मार्कण्डेय भाई की विदाई पर पूरा साहित्य जगत गमगीन है। अपने पीछे साहित्य सृजन और चेतना के जो अग्निबीज वे छोड़ गये हैं वे हमारी अमूल्य धरोहर है।

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