मार्क्सवाद में ‘इन्हैरंट डिफेक्ट’ है, इसके लिए अभिमन्यु की जरूरत ही नहीं है / धनाकर ठाकुर

गोष्ठी में यह जानते हुए भी कि कवि-पत्रकार मंगलेश डबराल घोषित वामपंथी हैं, अध्यक्षता का आमन्त्रण देना सोचनीय था वैसे विषय “समांतर सिनेमा का सामाजिक प्रभाव” सामाजिक था. प्रतिष्ठान भी क्या प्रगतिशीलता का प्रमाणपत्र चाहता है?

उन्होंने प्रतिष्ठान में अपनी उपस्थिति को ‘चूक’ बताया तो इसमें अचरज की बात नहीं हुई. वामपंथ से जुड़ी बौद्धिकधारा संभव है कि अभी भी साठ व सत्तर के दशक में ही ठहरी हुई है पर क्या राष्ट्रिय बौद्धिकधारा को वामपंथी सहकार की आवश्यकता है?

मैं नहीं समझता हूँ कि कवक एक बात पर मिरजकर या किसी को कहीं से निकाला जाता है.

बंददिमाग और बंदसमाज नापसंद किया जा रहा है पर उसके खोले का तरीका विरोधियों को अध्यक्षता के लिए बुलाना नहीं है.

भोगेन्द्र झा भले ही कम्युनिस्ट पार्टी में रहे हों उनपर मिथिला का संस्कार था? आप में से कितनों को पता है कि उन्होंने अपने गाँव में संस्कृत विद्यालय बनबाया था और वह जानकी नवमी और विद्यापति के प्रशंसक भी थे.

: वैचारिक प्रेरणा संकीर्णता से मुक्त जरूर होनी चाहिए पर उन्मुक्त नहीं होनी चाहिए.

‘दबाव’ व ‘डर’ से अधिक ‘लोभ’ का प्रयोग हो रहा है. कई पत्रकार संघ में भी राज्यसभा का टिकट पाने के लिए जुड़ जाते हैं या जुगाड़ बैठाने लगता हैं.

साहित्य क़ी व्यापक आधारभूमि कोई विचारधारा ही हो सकती है अन्यथा एक खिचडी लिखी जायेगी जो कभी-कभी ही खाई जा सकती है.

‘प्रगतिशीलता कम्युनिष्टों की बपौती नहीं है न ही ‘केसरिया ब्रिगेड’ स्वतंत्रता, व्यक्तिकता और सामाजिकता को परिभाषित करने के लिए प्रगतिशीलता का दामन पकड़ना आवश्यक है.

अन्तराष्ट्रीय पूँजी के खतरों और बाजारवादी ताकतों के षड्यन्त्र के नाम पर वामपंथ को आरएसएस से जोड़ा नहीं जा सकता है.

संघ को मार्क्स को पढने की आवश्यकता नहीं है. मार्क्सवादियों को हिंदुत्व के अवधारणा का सांघिक दृष्टिकोण अवश्य पढ़ना चाहिए.

समाजशास्त्री और लेखकों का संघ पार्टी के पूर्णकालिकों के हाथों में चला जाना अपने आप में तब तक समस्या नहीं है जबतक तब उसमे नारेबाजों को महत्व देनेवाओं का वर्चस्व नहीं हो.

निराला-निर्मल-नामवर ने यदि गरीबों के लिए लिखा तो उन्हें प्रेमचंद की कोटि में देखा जाना चाहिए मार्क्स या एंगल्स की कोटि में नहीं.

रामविलास शर्मा को किसी के द्वारा ‘संघी’ घोषित कर देने से वे हमारे बौद्धिकधारा प्रवक्ता नहीं हो जाते.

हर विषय बौद्धिक जगत से जोड़ा जा सकता है पर उसमे कहाँ, किसका क्या स्थान है, यह ध्यान रखना चाहिए अन्यथा वही होता है जो हुआ.

समाज में परिवर्तन ऊपर के कुछ लोगों की सोच से नहीं होता, बल्कि नीचे से एक विशेष सोच लिए ही ऊपर उठते हैं और इसमें जब कुछ ठूसने की प्रवृत्ति आती है तो परिणाम ऐसा ही होता है – यह भी एक स्तालिनवादी प्रवृत्ति का उपयोग माना जा सकता है.

नीचे के स्तर पर तो आप अपने कैडर को कम्युनिष्टों से झगड़ने की बात करें और ऊपर उनके साथ बैठें.

ध्यान रखें कि ऊपर का कोई बड़ा आदमी नीचे का आम आदमी का ही प्रतिनिधि होता है- दिल्ली में बैठ आप केरल के संघर्ष की व्यथा नहीं समझ सकते,

मृत्यु के बाद आयोजित सामाजिक कार्यक्रम की बात अलग है पर वहां मंच बना कैसे? अब किसी की मृत्यु भी किसी के लिए प्रचार का साधना बन गया है जो शर्मनाक है प्रवृत्ति है. मैंने ऐसे कार्ड देखे हैं. जिसमें आमंत्रण देने वाले व्यक्ति के राजनैतिक पद का विवरण परिचय में छपा है!

भाषा एवं भावनाओं का विमर्श, एक दूसरे के विचारों को समझने या आदान-प्रदान करने की आवश्यकता का निर्धारण कोई संसथान नहीं कर सकता, करेगा तो उस जगह कीचड़ ही उछलेगा और दृष्टिकोणों में बहस खो जाएगा. वामपंथ जगत में व्याप्त परस्पर अविश्वास, असहिष्णुता के साथ घोर व्यक्तिवाद को संघ विरोध के नाम पर तो बहुत दूर तक नहीं चलाया जा सकता पर संघ को ही क्या पड़ी है उनसे प्रमाणपत्र लेने कि जबकी गोलवलकर साहेब ने उनके बारे में(व मुस्लिम, ईसाई के बारे में) अपना स्पष्ट मत दे दिया है.

संघ राजनीतिक मंच नहीं है कि वह अपनी मूल विचारधारा से समझौता करता फिरे.

आरएसएस के नाम पर वैचारिक बहस की आवश्यकता है ही नहीं.

संघ एक ठोस वैचारिक आधार पर खड़ा है और इसे समझने के लिए कोई बहस या किताब नहीं इसमें भाग लेकर स्पंदन अनुभव करना आवश्यक है.

अमेरिका के निशाने पर संघ है या नहीं यह भी बेमानी है.

‘भाजपा में मुस्लिम इक्के-दुक्के हैं, यह बात भी सोचने की नहीं है. कम्युनिस्ट पार्टियाँ के साथ वे नहीं हैं यह भी हमारे सोच का विषय नहीं है.

अतः वास्तविक प्रश्न हमें हिन्दुओं के बीच सामाजिक और धार्मिक पुनर्जागरण को समझने और समझाने का है जो वर्तमान सामाजिक राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में सही दिशा में जाते नहीं लगता.

मुस्लिम में तजामुल हुसैन, एमएच बेग, एएए फैजी एवं आरिफ मोहम्मद खान जैसे प्रगतिशील चिंतकों को हाशिये पर हैं. अधिक चिंता का विषय है. क्या १०० वर्ष का संघ समाज के सब हिन्दुओं तक अपनी निष्ठा के आधार पर मानसिक जगह बना पायेगा.

विचारधाराओं के बीच विरोध होना स्वाभाविक लगता है पर होता नहीं है.

जेपी ने इसे अच्छी तरह समझा था, मुझे इसमें संदेह है. नहीं तो १९७७ के समय आतंरिक बहुमत के आधार पर युवा वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाये रहते और देश का कायापलट हो गया रहता.

उनकी भी अपनी ग्रंथियां थीं. संघ के खिलाफ कांग्रेस, सोशलिस्ट पार्टी और कम्यूनिस्टों में एक समानता थी कि दोनों मार्क्सवाद के ही दो रूप थे और बाद में कांग्रेस नेहरु के नेतृत्व में फिर छद्ममार्क्सवादी ही थे (पहले भले वह तिलक पूर्व सुविधावादी और तिलक के समय राष्ट्रवादी और गांधी के समय मुस्लिम तुष्टिवादी और आजादी के बाद वंशवादी हो गया)

जेपी महान थे लेकिन रहे नेहरु के मित्र ही (सामाजिक नहीं मार्क्सवादी सिद्धांत के आधार पर) और शायद गाँधी-बिनोबा के साथ भी वे अध्यात्म वादी नहीं हो पाए. अतएव देश का नेतृत्व करते हुए भी अपेक्षित परिवर्तन नहीं कर पाए. मैंने इस विषय में पंडित रामनंदन मिश्र के मुख से भी एकाध संकेत सुने हैं.

1973 से 1978 तक वे संघ के करीब बने रहे. यह उनका अवसरवाद भल नहीं हो पर लोकतंत्र और परिवर्तन के प्रति संघ को वे प्रतिबद्धता का प्रतीक नहीं मान पाए.

संवाद उद्देश्यपूर्ण होता तभी सार्थक होता है. अन्यथा अनावश्यक आलोचना होना स्वाभाविक है.

आप प्राध्यापक हैं, राजनीती विज्ञानी हैं सो तो ठीक पर क्षमा करें आप ‘विचारक’ हैं इसमें संदेह है. विषैला होना व मधुर होना अलग बात है.

बहसों से विचार नहीं आता वह तो आत्मानुभूति से होती है जिसके लिए साधना की आवश्यकता होती है.

लोकतंत्र लोकतंत्र होता है वैचारिक वा अवैचारिक नहीं.

वैचारिक कट्टरता विश्वविद्यालयों में कहाँ है वह तो छोटे शहरों और गाँव में है.

इस लेख में आपके गोल्ड मेडल का उल्लेख अनावश्यक है.

आपने “POLITICAL IDEAS OF DR K B HEDGEWAR” पर DISSERTATION में क्या लिखा वह भी इसका विषय नहीं है. वैसे डॉ. हेडगेवार को थेसिस से नहीं समझा जा सकता – उन्हें समझने के लिए (चूँकि वे स्वर्गीय हैं) उन्होंने जिनको तैयार किया उनको समझना आवश्यक है.

यह सही है की so every adherent of Hindu Rashtra is not Nathuram Godse. न ही वह संघ का स्वयंसेवक था पर उसके पास भी अपने तर्क थे वैसे उन्हें उठाना परिक्षा की दृष्टि में उचित नहीं था.

डॉ. हेडगेवार की पहली जीवनी अपने जरूर देखी होगी, उसके कुछ पत्रों से आपको उनके व्यक्तित्व का आभास मिल गया होगा.

यदि अपने को हिन्दू कहना sectarian है तो डॉ. हेडगेवार का अनुयायी sectarian है.

और इसमें कोई शर्म की बात नहीं है.

न ही इसके लिए उसे समाजवादी एवं मार्क्सवादियों से विमर्श करने की आवश्यकता है.

सही में बौद्धिक एवं व्यक्तिगत जीवन में ईमानदारी, प्रतिबद्धता और मूल्यों के प्रति निष्ठा आवश्यक है और अपनी बातों को दृढ़ता से रखना चाहिए. बिना सोचे कि मंच पर दूसरे क्या सोचते हैं – यही डॉ. हेडगेवार का जीवन था.

सच्चरित्रता अपने आप में जन प्रतिबद्धता देता है. बौद्धिकता का उतना महत्व नहीं है. स्वामी विविकानंद ने कहा था- दो तिहाई व्यक्ति का चरित्र बोलता है एक तिहाई ही भाषण.

संघ की विचारधारा दक्षिणपंथी नहीं है कि उसे वामपंथ की उलझन हो और दोनों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करने की कोशिश भले ईमानदारी में लगती हो, एक भूल ही है.

यदि आपको यह लगता है क़ि संवाद की प्रक्रिया से कुछ सुधार हो, आप करें.

वामपंथ के लोगों के आने से प्रतिष्ठान या संघ को वैधानिकता मिलती है या नहीं इसकी चिंता न करें साथ ही आपका प्रतिष्ठान संघ का पर्याय नहीं हो सकता, न ही हेडगेवार-गोलवलकर अधिष्ठान, जो मजबूत धरातल पर है वह हिंदुत्व के प्रति आत्मभाव से समर्पित किसी सामान्य व्यक्ति का जो किसी वैधानिकता का मोहताज नहीं है.

ऐसे संवाद बुद्धिविलास के प्रतीक हो सकते हैं, आवश्यक भी पर अधिक आवश्यक है उन कोटि-कोटि हिन्दुओं को जागृत करना, जो आपके बौद्धिक आयामों के काबिल नहीं भी हो सकते हों वे ही नव साम्राज्यवादियों एवं विदेशी एवं देशी पूँजी के साठ-गांठ का मुकाबला करेंगे.

हिंदुत्व एक धारणा है तथ्यों पर आधारित है.

नवप्रयोगवादी की तरह आप तथ्य प्रयोग आदि बात करते हैं पर भूल जाते हैं कि धारणाएं पिछले अनेकानेक प्रयोगों की उपज हैं जो तथ्य और प्रयोग आप एक जीवन व युग में पूरा दोहरा भी नहीं सकते.

धारणा का महत्व है. व्याख्या उसी आधार पर की जाती है जैसे ज्ञाता म, ज्ञान और गये एक ही चीज है( गीता १३ अध्याय) का नंबर अंत में आता है.

विमर्श में जीत-हार किसी विचारधारा की नहीं होती है पर यदि विचारधाराएँ अलग हैं तो सत्य एक ही होगा न! सिर्फ सत्यपरक विचार आगे बढ़ता है और समाज उसे स्वीकारता है ठीक है. स्वामी दयानंद सरस्वती ने काशी के तीन सौ मूर्तिपूजक ब्राह्मणों के साथ अकेले संवाद किया था पर मूर्ति पूजा का उनके विरोध को हिन्दू समाज ने तार्किक रूप से भले माना हो, व्यावहारिक नहीं हुआ. जिस महामना बुद्ध ने इसका विरोध किया उन्हें ही एक अवतार और उनकी मूर्ति बामियान तक खड़ी कर दी.

जिसे तोड़ना बहशीपन था, बनाना नहीं जबकी बुद्ध स्वयम मूर्तिवादी नहीं थे.

वैचारिक धरातल पर आवाजाही को कोई चाह कर भी रोक नहीं सकता वैचारिक बह़लता (ideological pluralism) के नाम पर देश को धर्मशाला के रूप में नहीं देखा जा सकता है जिसका मालिक वह नहीं है जो इसको बुलबुला समझता है बल्कि वह जो इसे अपनी मातृभूमि समझता है और वह केवल एक राजनीतिक इकाई नहीं है.

स्टालिनवाद कबका स्तालिनग्राद में भी मर चुका है उसकी चिंता करने की जरुरत नहीं है. न ही वह चक्रव्यूह है जिसे वहीं लोगों ने तोड़ दिया क्योंकि मार्क्सवाद में इन्हारेंट डिफेक्ट है इसके लिए अभिमन्यु की जरूरत ही नहीं है.

2 COMMENTS

  1. सही बात.. “”मार्क्सवाद में इन्हारेंट डिफेक्ट है इसके लिए अभिमन्यु की जरूरत ही नहीं है.”

    ” वैचारिक बह़लता (ideological pluralism) के नाम पर देश को धर्मशाला के रूप में नहीं देखा जा सकता है जिसका मालिक वह नहीं है जो इसको बुलबुला समझता है बल्कि वह जो इसे अपनी मातृभूमि समझता है और वह केवल एक राजनीतिक इकाई नहीं है.”

  2. कुछ कहने की जरुरत नहीं रह गयी है | सभी को इस बहस में संतुलित और तर्कपूर्ण उत्तर दिया गया है इस लेख के माध्यम से |
    पंचिंग लाइन :
    स्वामी दयानंद सरस्वती ने काशी के तीन सौ मूर्तिपूजक ब्राह्मणों के साथ अकेले संवाद किया था पर मूर्ति पूजा का उनके विरोध को हिन्दू समाज ने तार्किक रूप से भले माना हो, व्यावहारिक नहीं हुआ. जिस महामना बुद्ध ने इसका विरोध किया उन्हें ही एक अवतार और उनकी मूर्ति बामियान तक खड़ी कर दी.

    वाकई सोचिये क्या ये बहस का मुद्दा है ? वामपंथियों को तो बकैती की आदत है लेकिन संघ परिवार के लोग ऐसी फ़ालतू चीजों में वक्त क्यों बर्बाद करें |

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