प्राचीन भारत में गणित

pythagorusविश्व मोहन तिवारी

पायथागोरस सिद्धान्त सभी शिक्षित लोग जानते हैं, किंतु वे यह नहीं जानते कि वास्तव में‌ इसके रचयिता पायथागोरस नहीं, वरन हमारे वैदिक ऋषि बौधायन ( ८०० ई.पू.) हैं, जिऩ्होंने यह रचना पायथागोरस ( ५७० ई.पू.‌- ४९५ ई.पू.) से लगभग ३०० वर्ष पहले की थी। ऐसा भी‌ नहीं है कि पायथागोरस ने इसकी रचना स्वतंत्र रूप से की थी, वरन बोधायन के ज्ञान को प्राप्त करके ही की थी।

इसका वर्णन शुल्ब सूत्र (अध्याय १, श्लोक १२) में मिलता है। शुल्ब सूत्र में यज्ञ करने के लिये जो भी साधन आदि चाहिये उनके निर्माण या गुणों का वर्णन है। यज्ञार्थ वेदियों के निर्माण का परिशुद्ध होना अनिवार्य था। अत: उनका समुचित वर्णन शुल्ब सूत्रों में‌ दिया गया है। भिन्न आकारों की वेदी‌ बनाते समय ऋषि लोग मानक सूत्रों (रस्सी) का उपयोग करते थे । ऐसी प्रक्रिया में रेखागणित तथा बीजगणित का आविष्कार हुआ।

बौधायन का सूत्र है :

“दीर्घचतुरश्रस्याक्ष्णया रज्जु: पार्श्वमानी तिर्यंगमानी च यत्पृथग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति ।”

एक आयत की‌ लंबाई तथा ऊँचाई के क्रमश: वर्गों के क्षेत्रफ़ल का योग उसके कर्ण के वर्ग के क्षेत्रफ़ल के बराबर होता है।

सिन्धु – हरप्पा सभ्यता का काल ईसापूर्व ३३०० से १३०० तक माना जाता है। इस सभ्यता के परिपक्वकाल ( २६०० – १९०० ईसापूर्व) एक तो लम्बाई नापने के परिशुद्ध पैमाने मिले हैं और तराजू के तौल के जो माप मिले हैं वे दाशमलविक पैमाने पर हैं – ०.०५, ०.१, ०.२, ०.५, १ आदि। अर्थात उस काल में शून्य, तथा दाशमलविक स्थान मान गणना का वे उपयोग कर रहे थे । उनके नगर की वास्तु कला, उसकी द्रव – इंजीनियरी, उनके जल वितरण और निकास की इंजीनियरी विश्व की समकालीन सभ्यताओं में सर्वश्रेष्ठ थी।

सीरिया के खगोलज्ञ संत ( मंक) सेवेरुस सेबोख्त ने ६६२ ईस्वी में लिखा है : – “ इस समय मै हिन्दुओं के ज्ञान की चर्चा नहीं करूंगा. . . .उनके खगोल विज्ञान के सूक्ष्म खोजों की – जो खोजें यूनानियों तथा बैबिलोनियों की खोजों से कहीं अधिक प्रतिभाशील हैं, – उनकी तर्कसंगत गणितीय प्रणालियों की, अथवा उनके गणना करने की विधियों की जिनकी प्रशंसा करने में शब्द असमर्थ हैं, – मेरा तात्पत्य है वह प्रणाली जिसमें ९ अंकों का उपयोग किया जाता है। यदि यह जानकारी उऩ्हें‌ होती जो सोचते हैं कि केवल वही हैं जिऩ्होंने विज्ञान पर अधिकार अर्जित किया है क्योंकि वे यूनानी‌ भाषा बोलते हैं, तब वे शायद , यद्यपि देर से ही सही, यूनानियों के अतिरिक्त, अन्य भाषाओं के विद्वान भी हैं जो इतना ही‌ ज्ञान रखते हैं।”

(६५६ -६६१) इस्लाम के चतुर्थ खलीफ़ा अली बिन अबी तालिब लिखते हैं कि वह भूमि जहां पुस्तकें सर्वप्रथम लिखी गईं, और जहां से विवेक तथा ज्ञान की‌ नदियां प्रवाहित हुईं, वह भूमि हिन्दुस्तान है। (स्रोत : ‘हिन्दू मुस्लिम कल्चरल अवार्ड ‘ – सैयद मोहमुद. बाम्बे १९४९.)

नौवीं शती के मुस्लिम इतिहासकार अल जहीज़ लिखते हैं,हिन्दू ज्योतिष शास्त्र में, गणित, औषधि विज्ञान, तथा विभिन्न विज्ञानों में श्रेष्ठ हैं। मूर्ति कला, चित्रकला और वास्तुकला का उऩ्होंने पूर्णता तक विकास किया है। उनके पास कविताओं, दर्शन, साहित्य और निति विज्ञान के संग्रह हैं। भारत से हमने कलीलाह वा दिम्नाह नामक पुस्तक प्राप्त की है। इन लोगों में निर्णायक शक्ति है, ये बहादुर हैं। उनमें शुचिता, एवं शुद्धता के सद्गुण हैं। मनन वहीं से शुरु हुआ है। (स्रोत : द विज़न आफ़ इंडिया – शिशिर् कुमार मित्रा, पेज २२६)

पश्चिम के अनेक विद्वान यह मानते हैं कि पायथागोरस भारत (वाराणसी) तक आया था और यहां रहकर उसने बहुत कुछ सीखा। प्रसिद्ध फ़्रांसीसी विचारक वोल्टेयर (१६९४ -१७७८) ( अपने पत्रों में) कहते हैं , “. . . हमारा समस्त ज्ञान गंगा के तटों से आया है।”

(१७४८ – १८१४), फ़्रान्स के प्रतिष्ठित प्राकृतिक विज्ञानी तथा लेखक पियर सोनेरा

प्राचीन भारत ने विश्व को धर्म एवं दर्शन का ज्ञान दिया। ईजिप्ट तथा ग्रीस अपने विवेक के लिये भारत का चिर ऋणी है; यह तो सभी‌ जानते हैं कि पाइथागोरस ब्राह्मणों से शिक्षा प्राप्त करने भारत गया था; वे ब्राह्मण विश्व के सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी थे। (स्रोत : ‘द इन्वेज़न दैट नेवर वाज़’ माइकैल डानिनो एन्ड सुजाता नाहर)

(१७४९ – १८२७) महान फ़्रान्सीसी गणितज्ञ, दार्शनिक तथा खगोलज्ञ, सौर मंडल के उद्भव के गैसीय़ सिद्धान्त के लिये विख्यात पियेर सिमान दे लाप्लास लिखते हैं कि मात्र दस प्रतीकों से सभी संख्याओं को अभिव्यक्त करने की मेधावी पद्धति भारत ने ही हमें दी‌ है; प्रत्येक प्रतीक के दो मान होते हैं – एक उसकी स्थिति पर निर्भर करता है और दूसरा उसका अपना निरपेक्ष मान होता है। यह बहुत ही गहन तथा महत्वपूर्ण आविष्कार है जो हमें इतना सरल लगता है कि हम उसके स्तुत्य गुण को देखते ही नहीं। किन्तु इसकी सरलता, और सारी गणनाओं को जिस सुगमता से यह करने देता है, वह हमारी गणित को उपयोगी आविष्कारों के ऊँचे शिखर पर स्थापित करती है; और हम इस उपलब्धि के गौरव की और अधिक प्रशंसा करेंगे यदि हम यह याद रखें कि हमारे प्राचीन काल के दो महान विभूतियों आर्किमिडीज़ और अपोलिनिअस की प्रतिभाएं इस आविष्कार से वंचित रह गईं। (स्रोत : इंडिया एन्ड साउथ एशिया – जेम्स एच. के. नार्टन)

(१८५१ – १९२०), सुप्रसिद्ध जर्मन भारतविद लेओपोल्ड वान श्रोयडर ने १८८४ में एक पुस्तक प्रस्तुत की – ‘पाइथागोरस अन्ड दि इंडर, . . . . ‘ जिसमें उऩ्होंने लिखा है, “ वे सभी दार्शनिक तथा गणितीय सिद्धान्त जिनका श्रेय पाइथोगोरस को दिया जाता है, वास्तव में भारत से लाए गए हैं।” (सोत : जर्मन इंडोलाजिस्ट – वैलैन्टीना स्टाख- रोज़ैन)

यह दृष्टव्य है कि भारत की ऐसी प्रशंसा ब्रितानी विद्वानों ने अपवाद रूप में ही है। अल्फ़्रैड नार्थ व्हाइट हैड, एल्डस हक्सले तथा टी एस इलियट आदि कुछ अपवाद हैं। वरन उनमें भारत की‌ निंदा करने वाले बहुत हैं। उदाहरण के लिये ब्रिटैन के संसद सदस्य,’ईस्ट इंडिया कम्पनी’ की शासकीय परिषद के सदस्य । लार्ड थामस बैबिंग्टन मैकाले कोलकाता में तैयार ०२.०२. १९३५ को लार्ड मैकाले के मिनिट के संक्षिप्त उद्धरण प्रस्तुत हैं: ‌क्रम :

(१९.५) सभी पक्ष सहमत हैं कि कि भारतीय बोलियों में न तो साहित्य है और न वैज्ञानिक ज्ञान; साथ ही वे इतनी अक्षम हैं कि उनमें उच्चलेख का अनुवाद नहीं हो सकता; जिज्ञासुओं के बौद्धिक स्तर को केवल अभारतीय भाषाओं द्वारा ही उठाया जा सकता है।

१९.६ मैने एक भी पूर्वी विद्वान ऐसा नहीं देखा जिसने इस तथ्य को नकारा हो कि ‘ यूरोपीय पुस्तकालय का एक अल्मिरा समस्त भारतीय साहित्य के बराबर है।’ पूर्वी शिक्षा पद्धति के पक्षधर भी सहमत हैं कि यूरोपीय साहित्य सचमुच ही श्रेष्ठतर है।

१९.७ आंग्ल भाषा ही इन देशवासियों के लिये सर्वाधिक उपयुक्त है।

१९.१८ सीमित साधनों के कारण यह असंभव है कि हम सारी प्रजा को शिक्षा दे सकें। हमें एक वर्ग तैयार करना है जो हम शासकों तथा करोड़ों शासितों के बीच दुभाषिये का कार्य करे, जो रक्त – रंग में भारतीय हो, किन्तु पसंद, विचारों, नैतिकता और बुद्धि में ‘अंग्रेज़ हो। शेष कार्य हम उस पर छोड़ दें कि वह पश्चिम से वैज्ञानिक पद लेकर भारतीय बोलियों का परिष्कार करे, ताकि ज्ञान जनता तक पहुँचाया जा सके। (स्रोत ; कोलकाता में तैयार ०२.०२. १९३५ को ‘लार्ड मैकाले के मिनिट’)

ऐतिहासिक संदर्भ : १८३१ में नृसिंह भूदेव शास्त्री ने रेखागणित, अंकीय गणित तथा त्रिकोणमिति पर पुस्तकें‌लिखीं। और सुधाकर द्विवेदी ने दीर्घवृत्त लक्षण, गोलीय गणित, समीकरण मीमांसा तथा चलन कलन (कैलकुलस) पुस्तकें‌ लिखीं।

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विश्‍वमोहन तिवारी
१९३५ जबलपुर, मध्यप्रदेश में जन्म। १९५६ में टेलीकम्युनिकेशन इंजीनियरिंग में स्नातक की उपाधि के बाद भारतीय वायुसेना में प्रवेश और १९६८ में कैनफील्ड इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलाजी यू.के. से एवियेशन इलेक्ट्रॉनिक्स में स्नातकोत्तर अध्ययन। संप्रतिः १९९१ में एअर वाइस मार्शल के पद से सेवा निवृत्त के बाद लिखने का शौक। युद्ध तथा युद्ध विज्ञान, वैदिक गणित, किरणों, पंछी, उपग्रह, स्वीडी साहित्य, यात्रा वृत्त आदि विविध विषयों पर ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित जिसमें एक कविता संग्रह भी। १६ देशों का भ्रमण। मानव संसाधन मंत्रालय में १९९६ से १९९८ तक सीनियर फैलो। रूसी और फ्रांसीसी भाषाओं की जानकारी। दर्शन और स्क्वाश में गहरी रुचि।

6 COMMENTS

  1. प्रणाम श्री मान जी,
    मैं एक गणित का शिक्षक हूं, परंतु मुझे इतनी गहराई से भारतीय गणित इतिहास के बारे में जानकारी नही है जो मैं छात्रों को बता सकूं। कृपया मुझे किसी पुस्तक के बारे में बताए जिसमे ये सब जानकारी उपलब्ध हो।
    धन्यवाद

  2. रोचक. ज्ञानवर्धक, सप्रमाण……क्या क्या विशेषण जोडा जाए?
    —“…..रसिद्ध फ़्रांसीसी विचारक वोल्टेयर (१६९४ -१७७८) ( अपने पत्रों में) कहते हैं , “. . . हमारा समस्त ज्ञान गंगा के तटों से आया है।”…….”
    तिवारी जी को बहुत बहुत धन्यवाद।

  3. बौधायन महाभारत पूर्व के हैं। आर्यभट ने अपना समय लिखा था कि वे ३६० कलि वर्ष (२७४२ ई. पू.) में २३ वर्ष के थे। भारतीय गणित को ग्रीक नकल दिखाने के लिये उनके काल को ३६० से बदल कर ३६०० कलि वर्ष किया गया। किन्तु आज तक कोई भी पाश्चात्य गणितज्ञ एक भी ऐसी ग्रीक पुस्तक नहीं खोज पाये हैं जिसमें त्रिकोणमिति की ज्या सारणी हो। मूल सारणी कभी थी ही नहीं, उस की नकल आर्यभट द्वारा कैसे हो सकती है? वास्तव में ग्रीक संख्या पद्धति में कोई भी भिन्न संख्या या ज्या सारणी बनाना असम्भव है। आत्ः मेरे बार बार की चुनौती के बाद भी पिंगरी या डीटर कोच जैसे झूठे नस्लवादी लेखक अभी तक कोई नकली सारणी भी नहीं बना पाये जिसकी नकल कभी आर्यभट कर सकते थे। आर्यभट ने कई ऐसी चीजें लिखीं हैं जो ३६० या ३६०० कलि में किसी भारतीय या अन्य (३६० में कोई ग्रीक सभ्यता नहीं थी) द्वारा इनका पता चल सकता था-(१) उज्जैन से ९० अंश पश्चिम रोमकपत्तन, ९० अंश पूर्व यमकोटिपत्तन तथा १८० अंश पूर्व सिद्धपुर था। इनमें किसी में भी आर्यभट नहीं गये थे। ग्रीक लोगों को कभी इन देशों का पता भी नहीं था। हेरोडोटस, मेगास्थनीज, प्लिनी से लेकर वास्कोडिगामा तक सभी का अनुमान था कि भारत चतुष्कोण है जबकि सभी पुराण इसे अधोमुख त्रिकोण कहते हैं। आर्यभट ने विषुव रेखापार् उज्जैन के देशान्तर पर लंका कहा है जो कम से कम ७ हजार वर्ष पूर्व डूब चुका था। (२) आर्यभट ने उत्तरी ध्रुव को जल में तथा दक्षिणी ध्रुव को स्थल भाग में कहा है। दक्षिणी ध्रुव का पुराना नक्शा पिरी रीस नामक तुर्की के नौसैनिक मुख्य से स्पेन के लोगों ने चोरी किया, जिसमें अमेरिका का भी नक्शा था। यह महाभारत पूर्व परम्परा का था। इसी से पता चला कि अमेरिका नामक भूभाग है, जिसके आधार पर कोलम्बस की यात्रा की योजना बनी। यदि अमेरिका नहीं रहता तो उसको ४,००० कि मी, के बदले २०,००० किमी समुद्र में चलना पड़ता और इतने समय के लिये रसद आदि नहीं था। आधुनिक युग में पहली बार एमण्डसेन ने ग्रीनलैण्ड के रास्ते उत्तरीध्रुव जाकर पता लगाया कि वह वास्तव में समुद्र में है। यह पता चलने के बाद पुणे के गणित प्राध्यापक बाल गंगाधर तिलक ने आर्यों का मूल स्थान उत्तरी ध्रुव बताया जिसके बारे में आर्यभट को सही ज्ञान था। दक्षिणी ध्रुव में दो भूभाग हैं जिनके बीच पतला समुद्र है जो पिरी रीस नक्शे में था। दक्षिण दिशा के स्वामी यम हैं जिनका अर्थ जोड़ा इसी कारण है। पहली बार १९८५ में पता चला कि वास्तव में दक्षिणी ध्रुव इस बीच वाले समुद्र पर नहीं बल्कि निकट के स्थल भाग पर है। यह भी आर्यभट ने सही लिखा है जिसे पता करने का उनके पास कोई साधन नहीं था। (३) पूरे विश्व का सूक्ष्म नक्शा किये बिना चद्र की दूरी नहीं निकाली जा सकती है। आर्यभट का जो समय ४९९ ई. कहा जाता है उस काल में कोई राजा पटना में नहीं था जो वेधशाला बनाकर उसका खर्च उठा सके। केन्द्रीय राज्य नहीं रहने पर वहां अश्मक देश से आर्यभट क्यों जाते? २७४२ ई.पू. में भी यदि पटना तथा वहां से सबसे दूर के भारतीय स्थान कन्याकुमारी में वेधशाला होती तो दोनों स्थानों से चन्द्रमा को एक साथ देखने पर चन्द्र की दिशा में प्रायः १/१० अंश का अन्तर होता। माप में १/६० अंश की भी भूल होने पर १७% की भूल होगी। इसके अतिरिक्त ३ अन्य समस्यायें हैं-पूरे भारत का सूक्ष्म नक्शा होने पर भी इन स्थानों का अक्षांश देशान्तर में १/६० अंश की भूल होने पर प्रायः २% भूल होगी। एक साथ माप कैसे होगी, घड़ी कैसे मिलाई गयी थी? केवल अक्षांश देशान्तर ज्ञात होने से क्या केअल ज्या सारणी की नकल करने वाला या बौधायन सूत्र जानने वाला उनके बीच की सीधी दूरी निकाल सकता है? (४) चन्द्र की दूरी १% भूल के साथ निकालने पर ही सूर्य तथा अन्य ग्रहों की दूरी निकल सकती है। (५) सौर मण्डल का आकार अभी भी ज्ञात नहीं है जो भारतीय शास्त्रों में ६ प्रकार से दिया गया है जिनमें ५% से कम अन्तर है। (६) ब्रह्माण्ड का आकार कठोपनिषद् आदि में ९७,००० प्रकाश वर्ष दिया है, जो नासा के दो अनुमानों के बीच का मान है-१९९० मे १ लाख तथा २००५ में ९५,००० प्रकाश वर्ष। इसके लिये निकटवर्त्ती १५० तारों की दूरी मापनी होगी जिनके माप में १/३६०० अंश की भूल होने पर ५०% तक की भूल होगी। (७) शनि के मन्दोच्च की परिक्रमा ४३२ कोटि वर्ष में ३९ बार दिया गया है जिसका अभी तक निर्धारण नहीं हुआ है।

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