अधिक धन-सम्पत्ति कहीं हमारे लिए दुःख का कारण न बने

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मनमोहन कुमार आर्य

आजकल सभी मनुष्यों का जीवन मुख्यतः धनोपार्जन को ही समर्पित रहता है। कुछ पुरुषार्थ, सच्चाई व अच्छे कार्यों को करके धनोपार्जन करते हैं और कुछ ऐसे भी हैं कि जिनके धनोपार्जन में पुरुषार्थ कम होता है, सच्चाई भी कम होती है, अनुचित व निषिद्ध व्यवहार किया जाता है और धनोपार्जन बहुत होता है। धन वा अर्थ वही होता है जो पुरुषार्थ व सत्य व्यवहार से अर्जित किया जाये जिससे अपराध व किसी का अहित बिलकुल न होता हो। आप कहेंगे कि धन तो धन है उसे चाहे कैसे भी कमाया जाये? इसका उत्तर है कि धन वही है जो धर्मपूर्वक उपार्जित हो। अधर्मपूर्वक उपार्जित धन धन नहीं अनर्थ होता जिसके परिणाम मनुष्य के कालान्तर व जन्म जन्मान्तर में बुरे ही होते हैं। यदि इसका प्रमाण देखना हो तो सरकारी कानून, आईपीसी व अन्य कानूनों को देखकर तो जाना ही जा सकता है परन्तु इससे भी बढ़कर वेद और वैदिक साहित्य का अध्ययन करके जाना जा सकता है। यही कारण था कि सृष्टि के आरम्भ से ज्ञानी व विद्वान मनुष्य धर्माचरण करते थे और अज्ञानी व मूर्ख लोग जो अपने को बहुत समझदार व चालाक समझते हैं, छल प्रपंच व अनुचित तौर तरीकों से धनोपार्जन करते हैं। आजकल अनेक प्रसिद्ध व शीर्ष राजनेता अनुचित तरीके से कमाये धन के कारण अनेक जांचों का सामना कर रहे हैं और कई तो दोषी भी सिद्ध हो चुके हैं। अन्य भी सिद्ध होंगे और सम्भावना है कि जेल भी जायेंगे। इसका कारण यही है कि अनुचित तरीकों से धन कमाना अपराध व निन्द्य कर्म है और इसके लिए देश व समाज सहित ईश्वरीय न्याय व्यवस्था में भी दण्ड का प्रावधान है।

सनातन वैदिक धर्म ईश्वरीय दण्ड विधान वा कर्म-फल व्यवस्था पर खड़ा है। ईश्वर धर्म पालन करने वाले को आनन्द व प्रसन्नता सहित अपनी ओर से धन व सम्पत्ति देते हैं और अन्य अधर्म करने वालों को नाना प्रकार से दुःख रूपी दण्ड के साथ अपमानित जीवन व्यतीत करने की स्थिति प्राप्त होती होती है। ईश्वर की दण्ड व्यवस्था ऐसी है कि इसमें क्रियमाण क्रमों का लाभ व हानि तो साथ साथ व कुछ समयान्तर पर ज्ञात हो जाती है परन्तु कुछ ऐसे संचित कोटि के कर्म भी होते हैं जिनका फल इस जन्म में न मिलकर मृत्यु के बाद मिलता है। हमारे इस जन्म का कारण ही हमारे पूर्व जन्म वा जन्मों के अभुक्त कर्मों के फल भोग के लिए हुआ है। इस जीवन में हम जिन कर्मों के फल भोग लेंगे वह कर्मों के खाते से कम हो जायेंगे और शेष को भोगना जारी रहेगा जो इस जन्म के बाद भी चलेगा। यह भी जान लें कि प्रत्येक मनुष्य के कर्मों के दो खाते अलग अलग होते हैं जिन्हें अच्छे कर्मों का खाता और बुरे कर्मों का खाता कह सकते हैं। इन अच्छे व बुरे कर्मों का समायोजन नहीं होता और दोनों प्रकार के कर्मों के अलग अलग फल सभी बड़े छोटे व गरीब-अमीर सभी को समान रूप से भोगने ही पड़ते हैं। ईश्वर की सृष्टि का यह भी नियम है कि मनुष्य का कोई भी अच्छा व बुरा कर्म बिना भोगे समाप्त नहीं होता। सरकारी खातों की तरह यहां ॅतपजम वि या बट्टे खातें में डाल कर किसी लेनदारी को अप्रभावी व बन्द नहीं किया जाता। यहां तो ‘अवश्यमेव हि भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्’ का सिद्धान्त लागू होता है। यह भी हमें स्मरण रखना चाहिये कि इस बात की गारण्टी नहीं है कि हमारा अगला जन्म व उसके बाद के सभी जन्म मनुष्य योनि में ही प्राप्त होंगे। हो सकता है कि कर्मानुसार हमें पशु, पक्षियों व अन्य नीच योनियां भी मिल सकती हैं। अतः इन बुरे परिणामों से बचने के लिए हमें सद्कर्म ही करने होंगे अन्यथा हमारी दशा भावी योनियों में तो पशु पक्षियों के समान हो ही सकती है। इस जन्म कर्मों के कारण हमें इसी जन्म के भावी समय में किन रोग व दुःखों के दौर से गुजरना पड़े इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। हां यह सुनिश्चत है कि हमें जो दुःख प्राप्त होंगे वह मुख्यतः हमारे बुरे कर्मों का ही परिणाम होते हैं। अतः धन कमाने में सावधानी रखना अत्यन्त आवश्यक है।

ऋषि बाल्मीकि जी के अतीत की एक कथा भी काफी सुनी व सुनाई जाती है। वह अपने आरम्भिक जीवन में रत्नाकर नाम के एक चोर या डाकू थे। एक बार जंगल में उन्हें कुछ ज्ञानी लोग मिल गये। उन्होंने उन्हें लूटने की क्रिया आरम्भ की। उन ज्ञानीजनों ने कहा कि तुम यह काम किस लिए करते हो? उत्तर मिला कि अपने व अपने परिवार के सुख के लिए करता हूं। उन्होंने कहा कि हमें यहां बांध दो और घर जाकर अपने परिवार जनों से पूछ कर आओं कि क्या वह तुम्हारें बुरे कर्मों के बुरे फल भोगने में सहायक होंगे? वह गया और पूछा परन्तु उत्तर मिला कि नहीं, हम तुम्हारे बुरे कर्मों के फलों को भोगने में सहयोगी नहीं होंगे। इस घटना से उनका जीवन बदल गया और वह एक ऋषि बन गये और उनसे हमें रामायण जैसा ग्रन्थ मिला। धनवानों को इस बात से शिक्षा लेनी चाहिये। एक व्यक्ति के बारे में हम जानते हैं कि उन्होंने किसी सरकारी विभाग में काम किया। सही व गलत तरीकों से खूब धन कमाया। इससे उनका जीवन भी शराब व मांस के सेवन वाला बन गया था। बाद में एक दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। सभी धन सम्पत्ति यहीं रह गई। वह अपने साथ कुछ नहीं ले जा सके। उनके परिवारजन उनका भोग कर रहे हैं। वैदिक सिद्धान्त के अनुसार उन्होंने जो कर्म किये उनका फल उन्हें भोगना है। पता नहीं कि आज वह कहां व किस योनि में होंगे? अतः धनोपार्जन में कर्ता को विचार व विवेक से काम लेने की आवश्यकता है।

 

धन की तीन गति कही गईं हैं। पहला भोग है, दूसरा दान व तीसरा नाश। मनुष्य को सत्कर्मों से ही धन कमाना चाहिये और उसका धर्मानुसार भोग करना चाहिये। यदि धन कम है तो समस्या भी कम है। यदि धन अधिक है और भोग करने के बाद बचता है तो उसका सुपात्रों को दान करना चाहिये। यदि ऐसा नहीं करेंगे, बैंक खातों या घर में बचा कर रखेंगे या स्वर्ण व अन्य कीमती वस्तुओं में खर्च करेंगे तो इसका परिणाम तीसरा फल हो सकता है। इसके लिए कुछ चर्चा की आवश्यकता नहीं, स्वयं ही निर्णय करना है परन्तु देखने में आता है कि देश व विश्व में विवेकशील लोग कम ही हैं। यूरोप के धनिक लोग हमें भारत से अधिक विवेकशील दृष्टिगोचर होते हैं जो खूब दान करते हैं। अनुशासित जीवन व्यतीत करते हैं। वहां भ्रष्टाचार भी भारत की तुलना में कम है। भारत के गरीबों यहां तक की कुष्ठ रोगियों की भी जीभर कर आर्थिक सहायता करते हैं और यहां आकर सेवा भी करते हैं। नमन है ऐसे लोगों को। भारतीय ऐसे लोगों से बहुत कुछ सीख सकते हैं। खास कर वह धार्मिक पोंगा-पंथी लोग जो ईश्वर के ही बनाये निर्धन व दलित बन्धुओं से छुआछूत व अनेक भेदभावपूर्ण व्यवहार करते हैं। ऐसे लोग धार्मिक कदापि नहीं अपितु अधर्मी ही होते हैं।

देश में मनुष्यों की तीन श्रेणियां बहुत महत्वपूर्ण है जिनके सभी देशवासी आभारी हैं। यह हैं सैनिक, कृषक व मजदूर। यह तीनों लोग बहुत परिश्रम व ईमानदारी का जीवन व्यतीत करते हैं। सैनिक देश व समाज की रक्षा में न केवल पुरुषार्थ और तप ही करते हैं अपितु अपने जीवन का बलिदान भी कर देते हैं। आजकल ऐसी घटनाओं में वृद्धि हो रही है जो चिन्ता की बात है। हमारे दण्ड विधान की कमजोरियों के कारण प्रायः ऐसा हो रहा है। अमेरिका, चीन, रूस, इजराइल आदि देशों के अनुरूप कानून व व्यवहार हो तभी इससे निजात पाई जा सकती है परन्तु यहां नाना प्रकार की राजनीतिक विचारधाराओं व अन्य कुछ कारणों ने देश को कमजोर किया हुआ है। यह सिद्धान्त फेल हो चुका है कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल आगे कर दो। ऐसे लोगों से तो यथायोग्य व्यवहार कर ही सबक सीखाया जा सकता है। दूसरा गाल आगे करना अहिंसा शायद नहीं अपितु कायरता होती है जिससे हिंसा में वृद्धि होती है। हिंसा की प्रवृत्ति को दूर करने के लिए दण्ड आवश्यक होता है। यह सन्तोष की बात है कि देश की जनता ने पिछले चुनावों में राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया है। यदि यह इसी प्रकार से बढ़ती है तो देश का भविष्य उज्जवल हो सकता है। कृषक एवं मजदूर भी देश के लोगों के जीवन को सुखी करने में अपना बहुमूल्य योगदान देते हैं। ऋषि दयानन्द किसान को राजा का भी राजा कहा है। वह देश का अन्न दाता है। सबसे अधिक पूजनीय एवं धन्यवादर्ह है। हमारे देश में कृषक, सैनिक व मजदूरों का वह सम्मान नहीं है जो पश्चिमी देशों में है। देश का समस्त धन कुछ मुट्ठी भर लोगों की तिजोरियों में बन्द हो गया है। दुःख केवल उन लोगों का है जिन्होंने भ्रष्टाचार से यह धन बटोरा है। इसके कारण देश में गरीबी, अशिक्षा, रोग, भूख, पक्षपात, योग्यता को महत्व न मिलना आदि अनेकानेक समस्यायें उत्पन्न हो गई है। इसी कारण कम्युनिष्ट व नक्सलवादी राजनीति करते हैं और दूसरों को गुमराह भी करते हैं। इसका भविष्य में दुष्परिणाम हो सकता है। गोहत्या होना एवं राष्ट्र भाषा का सम्मान न होना भी एक समस्या है। गोहत्या ईश्वर एवं मानवता की दृष्टि में अपराध है, कानूनी दृष्टि से भले ही हो या न हो। गोहत्या से हमें व्यक्तिगत पीड़ा होती है। सुनने वाला देश में कोई नहीं है। यह है यथार्थ असहिष्णुता। इसे समाप्त करने की आवश्यकता है। सभी समस्याओं की जड़ में प्रायः धन ही मुख्य है। देश में यदि पूर्ण अर्थ शुचिता आ जाये और कम काम कर सरकार से अधिक धन व नाना सुविधायें लेने वाले अधिकारियों व व्यक्तियों पर अंकुश लग सके, तो देश भी मजबूत होगा और सभी देशवासी सुखी होंगे।

शास्त्रों ने कहा है कि वित्त वा धन से मनुष्य की तृप्ति कभी नहीं होती। यह बात सत्य है जिसका अनुभव सभी मनुष्य कर सकते हैं। योगदर्शन में भी परिग्रह की प्रवृत्ति को बुरा बताया गया है और उसका अर्थ हमें लगता है कि परिग्रही मनुष्य ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकता। मनुस्मृति यह भी बताती है कि अर्थ और काम में आसक्त मनुष्य को धर्म का ज्ञान नहीं होता अर्थात् वह अधर्म करता व कर सकता है। जिन लोगों के पास अधिक धन है वह सुविधापूर्वक जीवन व्यतीत करते हैं। उनके जीवन में तप कम होता है। दान की प्रवृत्ति में शायद ही किसी धनी व्यक्ति में हो। ऐसे लोगों का जीवन देश पर बोझ ही कहा जा सकता है। ईश्वर सभी मनुष्यों के सभी कर्मों का साक्षी व प्रत्यक्षदर्शी है। वह न्यायाधीश एवं अर्यमा है। रात्रि व छुप कर भी किया गया कर्म उसकी दृष्टि से बचता नहीं है। अतः कर्म के फल तो क्या धनवान और क्या निर्धन सभी को भोगने ही होंगे। हमें लगता है कि अधिक धनवान को अधिक दण्ड और निर्धन को कम दण्ड, ऐसा सृष्टिकर्ता का विधान है। इसी के आधार पर शास्त्र अधिक अधिकार व धन सम्पन्न व्यक्तियों को अधिक दण्ड देने का विधान करते हैं। हम भले ही देश में इसे लागू न करें परन्तु ईश्वर के दण्ड से तो बच नहीं सकते। आईये! सभी पक्षों पर विचार करें और जीवन को श्रेष्ठ जीवन बनाने का, जो कि वेदानुकूल जीवन ही हो सकता है, अध्ययन, मनन, चिन्तन करें व विवेक पूर्वक निर्णय कर वर्तमान व भविष्य सहित अपने इहलोक एवं परलोक को भी सुखी व सुरक्षित करें। यह लेख सबके हित की भावना से लिखा है। किसी के प्रति आरोप व प्रत्यारोप के लिए नहीं। इसे उसी भावना से देखना चाहिये। ओ३म् शम्।

 

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