माया की महत्वकांक्षा और दलित

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प्रमोद भार्गव

उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती की प्रधानमंत्री बनने की महत्वकांक्षा इतनी बलवती हो गर्इ है कि वे दलित उत्पीड़न की हकीकतों से दूर भागती नजर आ रही हैं। दलित यथार्यवाद से वे पलायन कर रही हैं। नोएडा में राष्ट्रीय दलित प्रेरणा स्थल व ग्रीन गार्डन के उदघाटन अवसर पर कांग्रेस और भाजपा को आड़े हाथों लेते हुए उन्होंने जो तेवर दिखाए उससे तो यही चिंता जाहिर होती है कि वे दलितों को मानसिक रूप से चैतन्य व आर्थिक रूप से मजबूत बनाने की बजाए इस, कोशिश में लगी हैं कि उत्तर प्रदेश में मौजूद 25 फीसदी दलित वोट बैंक को चाक-चौबंद कैसे रखा जाए। वैसे भी जिस तरह से उन्होंने डा. भीमराव अंबेडकर, कांशीराम और खुद की आदमकद मूर्तियां उधान में लगाकर प्रतीक गढ़ने की जो कवायद की है, हकीकत मे ऐसी कोशिशें ही आज तक हरिजन, आदिवासी और दलितों को कमजोर बनाए रखती चली आर्इ हैं। इस उधान में खर्च की गर्इ 685 करोड़ की धन राशि को यदि बुंदेलखण्ड की गरीबी व लाचारी दूर करने में खर्च किया जाता तो खेती-किसानी की माली हालत में निखार आता और किसान आत्महत्या के अभिशाप से बचते। मायावती की मौजूदा कार्यप्रणाली में न तो डा. अंबेडकर का दर्शन दिखार्इ देता है और न ही कांशीराम की दलित उत्थान की छवि।

मूर्तिपूजा, व्यकितपूजा और प्रतीक पूजा के लिए गढ़ी गर्इ प्रस्तर शिलाओं ने मानवता को अपाहिज बनाने का ही काम किया है। जब किसी व्यकित की व्यकितवादी महत्वकांक्षा, सामाजिक चिंताओं और सरोकारों से बड़ी हो जाती है तो उसकी दिशा बदल जाती है। मायावती के साथ भी कमोबेश यही सिथति निर्मित होती जा रही है। महत्वकांक्षा और वाद अंतत: हानि पहुंचाने का ही काम करते हैं। अंबेडकर के समाजवादी आंदोलन को यदि सबसे ज्यादा किसी ने हानि पहुंचार्इ है तो वह ‘बुद्धवाद है। जिस तरह से बुद्ध ने सांमतवाद से संघर्ष कर रहे अंगुलिमाल से हथियार डलवाकर राजसत्ता के विरूद्ध जारी जंग को खत्म करवा दिया था, उसी तर्ज पर दिलतों के बुद्धवाद ने व्यवस्था के खिलाफ समूची लड़ार्इ को कमजोर बना दिया है।

बहुजन समाज पार्टी को वजूद में लाने से पहले कांशीराम ने लंबे समय तक दलितों के हितों की मुहिम डीएस-4 के माध्यम से लड़ी थी। इस डीएस-4 का सांगठनिक ढांचा खड़ा करने के वक्त बसपा की बुनियाद पड़ी और पूरे हिन्दी क्षेत्र में बसपा की संरचना तैसार किए जाने की कोशिशें र्इमानदारी से शुरू हुइर्ं। कांशीराम के वैचारिक दर्शन में अंबेडकर से आगे जाने की सोच तो थी ही दलित और वंचितों को करिश्मार्इ अंदाज में लुभाने की प्रभावशाली शकित भी थी। यही कारण रहा कि बसपा दलित संगठन के रूप में सामने आर्इ, लेकिन मायावती की पद व धन लोलुपता ने बसपा में विभिन्न प्रयोग व प्रतीकों का तड़का लगाकर उसके बुनियादी सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ ही कर डाला। नतीजतन आज बसपा सवर्ण और दलित तथा शोषक और शोषितों का बेमेल समीकरण है। बसपा के इस संस्करण में कार्यकर्ताओं की दलीय स्तर पर सांगठनिक संरचना नदारद है। प्रधानमंत्री पद की प्रतिस्पर्धा मायावती के लिए इतनी महत्वपूर्ण हो गर्इ है कि दलितों के कानूनी हितों की परवाह भी उन्हें नहीं रह गर्इ है। दलितों को संरक्षण देने वाले कानून सीमित व शिथिल किए जा रहे हैं। यही कारण है कि मायावती उन नीतियों को तवज्जो नहीं दे रही हैं जो सामाजिक, शैक्षिक व आर्थिक विषमताएं दूर करने वाली हैं।

सवर्ण नेतृत्व को दकिनार कर पिछड़ा और दलित नेतृत्व डेढ़-दो दशक पहले इस आधार पर उभरा था कि पिछले कर्इ दशकों से केंद्र व राज्यों में काबिज रही कांग्रेस ने न तो सबके लिए शिक्षा, रोजगार और न्याय के अवसर उपलब्ध कराए और न ही सांमतवादी व जातिवादी संरचना को तोड़ने में अंहम भूमिका निभार्इ। बलिक इसके विपरीत सामाजिक व आर्थिक विषमता का दायरा आजादी के बाद और विस्तृत ही होता चला गया। इसलिए जरूरी था कि पिछड़े, हरिजन आदिवासी व दलित राजनीति व प्रशासन की मुख्यधारा में आएं और रूढ़ हो चुकी जड़ताओं को तोड़ें। स्त्रीजन्य वर्जनाओं को तोड़ें। अस्पृश्यता व अंधविश्वास के खिलाफ लड़ार्इ लड़ें। हालांकि आजादी के बाद पहले तीन दशकों में कांग्रेस सरकार ने अस्पृश्यता को दंडनीय अपराध, दलितों को सामाजिक सम्मान व नौकरियों में आरक्षण के प्रावधान संविधान में दर्ज कराए। क्योंकि इस दौर में कांग्रेस के लिए दलितों के परिप्रेक्ष्य में राजनीतिक आजादी से कहीं ज्यादा सामाजिक समरसता लाने और आर्थिक विषमता दूर करने के मुददे महत्वपूर्ण थे। गांधी ने कहा था, ‘जब तक हिंदू समाज अस्पृश्यता के पाप से मुक्त नहीं होता, तब तक स्वराज की स्थापना असंभव है।

किंतु जिस 14 अक्टूबर 1956 के दिन डा. अंबेडकर ने हिंदू धर्म का परित्याग कर बौद्ध धर्म अपनाया था, उसी दिन मायावती ने ‘राष्ट्रीय दलित प्रेरणा स्थल से हुंकार भरते हुए एक तो कांग्रेस का भय दिखाया और दूसरे कांग्रेस की निंदा भी की। भय, इस परिप्रेक्ष्य में कि कांग्रेस, दलित वोट अपनी ओर खींचने अथवा विकेंदि्रकृत करने के नजरिए से किसी दलित को अगले साल पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव से पूर्व प्रधानमंत्री बना सकती है। इन राज्यों में उत्तरप्रदेश भी शामिल है। उन्होंने बतौर संभावित दलित प्रधानमंत्री के रूप में लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार और सुशील कुमार शिंदे के नाम भी उछाले। जिससे अंबेडकर व कांशीराम की निष्ठा वाला वोट बैंक न तो भ्रमित हो, न ही भटके और न ही किसी बहकावे में आए। हालांकि इन नामों को उछालना मायावती का शगूफा भर है। कांग्रेस फिलहाल डा. मनमोहन सिंह को पदच्युत कर किसी दलित को प्रधानमंत्री बनाकर बहुत बड़ा दांव खेलने वाली नहीं है। हां 2014 में होने वाले आमचुनाव से पूर्व जरूर कांग्रेस व सेानिया की राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की मंशा है। ऐसे में यदि मीरा कुमार अथवा सुशील कुमार शिंदे को प्रधानमंत्री के गौरवशाली पद से नवाजकर क्या कांग्रेस उसे एकाएक हटाने का भी जोखिम लेगी ? दलित वोट बैंक कांग्रेस द्वारा किसी दलित को प्रधानमंत्री बना देने से जितना खुश नहीं होगा, उतना हटा देने से नाराज होगा। लिहाजा दलित को प्रधानमंत्री बना देने की नादानी सोनिया जैसी चतुर व कुटनीतिक नेत्री से होने वाली नहीं है। हालांकि मायावती द्वारा दलितों को दिखाया गया है यह डर परोक्ष रूप से दलितों का डर न होकर मायावती का वह असुरक्षा भाव है, जिसके तर्इं उन्हें राहुल गांधी द्वारा दलितों के घर भोजन करने व ठहरने के चलते दलित वोट बैंक खिसक जाने का खतरा महसूस हो रहा है। इसी परिप्रेक्ष्य में मायावती ने कुटिल चतुरार्इ से बाबू जगजीवनराम को कांग्रेस द्वारा प्रधानमंत्री नहीं बनाए जाने की निंदा भी की। जिससे दलित कांग्रेस के कहकाबे में न आएं।

मायावती ने बड़ी विनम्रता से भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चला रहे अन्ना हजारे और बाबा रामदेव को भी उत्तरप्रदेश की धरती पर भ्रष्टाचार मुकित के लिए आमंत्रित किया। क्योंकि वे जानती हैं अन्ना और रामदेव मतदाता को लुभा रहे हैं। इसलिए इन्हें मनाने में ही सार है। दूसरी तरफ माया ने भाजपा की जनचेतना रथयात्रा को लालकृष्ण आडवाणी की निजी हसरत बताते हुए उसे आमजन की आंखों में धूल झोंकने व पार्टी में प्रधानमंत्री पद की दावेदारी मजबूत करने से प्रेरित होकर निकाली यात्रा बताकर, यात्रा की भ्रष्टाचार विरोधी मंशा को सिरे से खारिज कर दिया। मायावती ने खुद को पाक दामन घोषित करते हुए कहा, आय से अधिक संपत्ति के मामले में आयकर विभाग की क्लीन चिट के बावजूद सीबीआर्इ के मार्फत मुझे फंसा रखा है। सर्वोच्च न्यायालय की रूलिंग है कि एक जैसी प्रकृति के प्रकरण में दोहरे मापदण्ड नहीं अपनाए जा सकते। लिहाजा यदि आयकर विभाग ने माया को क्लीन चिट दे दी है तो इस बिना पर यदि आय से अधिक संपत्ति के कोर्इ नए साक्ष्य सीबीआर्इ नहीं बटोर पाती तो उसकी जांच के कोर्इ मायने नहीं रह जाते। बहरहाल उत्तप्रदेश में कांग्रेस और भाजपा सिर फुटौअल चाहे जितनी करलें मायावती की तुलना में वे कुछ ज्यादा हासिल कर ले जाएं, ऐसा नमुमकिन ही है। इसके बावजूद मायावती पदलोलुपता के चलते दलितों से जुड़ी उन समस्याओं को लगातार नजरअंदाज करती चली आ रहीं है जो दलितों को मुख्यधारा में लाने में बाधा बनी हुर्इ हैं। देश में 13 लाख से भी ज्यादा दलित महिलाएं सिर पर मैला ढोने के काम में लगीं हैं, लेकिन मायावती ने कभी इन समस्याओं से दलितों के छुटकारे के लिए कोर्इ कारगर पहल की हो ऐसा देखने में नहीं आया। चूंकि मायावती को अवसर मिला है इसलिए उन्हें अपनी महत्कांक्षा से ज्यादा दलितों का कल्याण कैसे हो यह र्इमानदारी से सोचने की जरूरत है।

 

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