उत्तर प्रदेश में खत्म होता दिख रहा मायावतीजी का भविष्य

डा. राधेश्याम द्विवेदी
दलित वोट बैंक में सेंधमारीः- वर्ष 2007 के विधान सभा के चुनाव में बसपा सुप्रीमां कुमारी बहन मायावती ने अपनी दुबारा ताजपोशी कराकर बाजी मार ले गयी थी. उन्होंने अनेक राजनीतिक पण्डितों को आश्चर्य में डाल दिया था. इस अप्रत्याशित इतिहास रचने के बाद से उत्तर प्रदेश की गंगा, यमुना, घाघरा तथा गोमती आदि नदियों से बहुत सारा पानी बहकर बंगाल की खाड़ी की दरिया में पहुंच चुका है.उन्होंने ब्राह्मणों, मुसलमानों और दलितों के कुछ गिने चुने दिग्गजों से भारी कीमत लेकर उनको सुनहरे भविष्य का प्रलोभन दिया. उन दिग्गजों के प्रभाव का उपयोग अपने पक्ष में कर एक अजेय गठजोड़ रचकर चुनाव की बैतरणी पूरी तरह पार कर ली थी. इन तथाकथित राजनेताओं में से कुछ को ललीपाप देकर अपने दलित एजेन्डे को पूरा भी किया और अपनी आर्थिक स्थिति के साथ राजनीतिक स्थिति भी मजबूत कर ली. कुमारी बहन मायावती ने 2007 में उत्तर प्रदेश में 14 सालों से चले आ रही गठबंधन सरकारों के दौर को खत्म कर दिया था. बसपा को इस दफा अपने बलबूते बहुमत मिला था. अब कुमारी बहन मायावतीजी राष्ट्रीय स्तर की नेता बन गईं. कई लोगों का यह मानना था कि देश के सबसे बड़े दलित नेता स्व. जगजीवन राम की खाली जगह को मायावती भर सकती हैं.उन्होने पूर्व लोकसभा अध्यक्ष श्रीमती मीरा कुमार को काफी पीछे छोड़ दिया है. मायावती का बुनियादी जनाधार जाटवों में है. गैर जाटव वोटों को 2014 में हथियाकर बीजेपी ने बसपा के दलित जनाधार में तकरीबन सेंध लगा ही दी है. अनेक दलित नेता रोज के रोज बसपा से कटते जा रहे हैं. इन्हें भाजपा का भविष्य उज्जवल दीख रहा है.
बसपा ह्रास की ओरः- देश भर में कई जगहों पर चुनाव लड़ने के बाद कुमारी बहन मायावतीजी धीरे-धीरे अपना अखिल भारतीय छवि खोने लगीं हैं. कुमारी बहन मायावतीजी के उभार ने दलितों को आवाज दी और उन्हें ऐसा लगने लगा कि यह वोट बैंक उनकी जागीर है. दलित चट्टान की तरह मायावती के पीछे खड़े रहे. उन्हें पहली बार एसा लगा कि उनकी अपनी बिरादरी का कोई सरकार चला रहा है. 1984 में बसपा के गठन के बाद से ही दलित ये सपना देखते आए थे कि किसी दलित को प्रधानमंत्री पद पर देखकर ही उनका मिशन खत्म होगा. अब दोबारा कुमारी बहन मायावतीजी की सत्ता में वापसी को लेकर उनके समर्थकों में उम्मीदें बंधी हैं. कुछ लोग तो यहां तक मानते हैं कि केवल वही मजबूत विकल्प हैं. वहीं एक मजबूत इरादे वाली महिला की छवि उनके पक्ष में जाती है.
कांग्रेस का अप्रासंगिक होनाः-इससे पहले इसी समीकरण के बलबूते कांग्रेस आजादी के बाद चार दशकों तक उत्तर प्रदेश में शासन करती आई थी. 1992 में बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे के विध्वंस के बाद कांग्रेस ने अपना जनाधार गंवा दिया और सत्ता से बाहर हो गई.तब से 27 वर्षो तक वह उत्तर प्रदेश में टिकने की कोशिस तो कर रही है परन्तु उसके पांव टिक नहीं पा रहे है. वह पूरी तरह से अपना जनाधार खोती जा रही है. जहां केन्द्र में उसका मुख्य प्रतिद्वन्दी भाजपा रही है, वहीं राज्यों में उसे मजबूरन क्षेत्रीय दलों से समर्थन देना और लेना पड़ा है. यह पार्टी भी परिवारवाद के प्रभाव से मुक्त नहीं हो सकी है. नेहरु व इन्दिराजी के कृत्यों को अब तक भुनाती आ रही है. वर्तमान समय में यह पूर्णतः अप्रसांगिक होती जा रही है. योग्य लोगों के होने के बावजूद नेहरु गांधी के व्यामोह में यह पार्टी पूर्ण खत्म होने की तरफ बढ़ती जा रही है.कांगे्रस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी जी की अस्वस्थता, पूरे देश में सहयोगियों के पुराने भ्रष्टाचार तथा पार्टी उपाध्यक्ष श्री राहुल गांधी की अक्षमता कांग्रेस के भविष्य के लिए प्रश्न चिन्ह उपस्थित कर रहे हैं।
क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व कम होनाः- उत्तर प्रदेश राज्य के वोटर शासन करने के लिए समाजवादी पार्टी या बसपा जैसी क्षेत्रीय पार्टी को तरजीह शायद ही दे. केंद्र में बीजेपी सरकार की स्थिति एक मजबूत विकल्प व आशान्वित भविष्य की ओर इशारा करती हैं. सरकार के गठन में राष्ट्रीय पार्टी का अपना अलग ही दृष्टिकोण व जनाधार होता है. यदि साल 2014 के चुनाव में माननीय श्री नरेंद्रभाई मोदी की बीजेपी ने सियासी फलक पर इतना बड़ा धमाका नहीं किया होता तो मायावतीजी का रास्ता कुछ आसान हो सकता था. ‘सबका साथ सबका विकास’ के मोदीजी के नारे और बीजेपी के अध्यक्ष श्री अमित शाह के अखिल भारतीय अभियान ने कुमारी बहन मायावतीजी और श्री मुलायम सिंहजी यादव के जनाधार को बीजेपी की तरफ खिसका दिया है . श्री शिवपाल जी तथा श्री आजमखां के बेतरतीब बयान से भी सपा के भविष्य पर प्रभाव पड़ना लाजिमी है.
मुख्यमंत्री अखिलेशकी बढ़ती लोकप्रियताः- मायावती के सामने एक बड़ी चुनौती राज्य के मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की भी है. कार्यकाल खत्म होने के करीब पहुंचते अखिलेश की लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है. समाजवादी परिवार के झगड़े के बावजूद अखिलेश को ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है. वह निरन्तर अपनी गिरी हुई साख को पुनस्र्थापित करने में अग्रसर हैं. यह बसपा के लिए बड़ी चुनौती साबित हो सकती है. मुख्यमंत्री अखिलेशजी की सक्रियता भाजपा का ज्यादा नुकसान नहीं कर सकेगी.
प्रधानमंत्री का नोटबंदी का जूआः- प्रधानमंत्रीजी के नोटबंदी वाले जुए ने सभी पार्टियों को बड़ा झटका दिया है जिसमें बसपा भी एक है.नकदी का संकट बड़ा सवाल नहीं है, जातियों का बर्ताव उन्हें फिक्र में डाले हुए है. मतदाता खामोश हैं और अधीर भी, लेकिन इसके बावजूद लोग एक सुर में मोदी की आलोचना नहीं कर रहे हैं. अपनी परेशानियों को झेलते हुए गरीब यह सोचकर खुश हैं कि अमीर अपनी दौलत गंवा रहे हैं. इनमें अधिकांशतः मायावती के समर्थक भी हैं. इसलिए तीन लोकप्रिय नेताओं- मोदीजी, मायावतीजीऔर अखिलेशजी के त्रिकोणीय मुकाबले में कोई भी विजेता बन सकता है.
त्रिशंकु विधानसभा होने पर गठजोड़ः-अगर जनता इन त्रिकोणीय मुकाबले में सही निर्णय ना ले सका और त्रिशंकु विधानसभा का विकल्प चुना तो मायावतीजी की स्थिति बेहतर हो सकती है. उनके दोनों हाथों में लड्डू होगा. वे कोई साझीदार खोज सकती हैं. भाजपा और कांग्रेस दोनों ही उनके साथ आने के लिए प्रयास कर सकते हैं. सपा तो बसपा को समर्थन कभी नहीं कर सकती है. बसपा किसी को भी समर्थन नहीं दे सकती है. केवल कांग्रेस और भाजपा ही इस खेल के असली सूत्रधार हो सकते हैं. भाजपा ने 1995 में राज्य को पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनवाया था. इतना ही नहीं अपने विचार के धुर विरोधी पीडीपी को काश्मीर में उसने समर्थन दे ही रखा है. आप इतिहास के पन्ने पलटकर देखिए, जब से भाजपा ने बसपा को समर्थन दिया है तब से ही बसपा मजबूत होती गई और भाजपा सिकुड़ती गई है. मोदीजी की भाजपा ने कश्मीर में पीडीपी जैसे विपरीत विचार वाली पार्टी के साथ गठजोड़ तो किया ही है. वह उत्तर प्रदेश में क्या करेगी यह भविष्य के गर्भ में छिपा है.यद्यपि मायावतीजी अपने कोर दलित वोटबैंक को मजबूत कर एक बहुमत वाली सरकार के लिए संघर्ष कर रही हैं.उन्हें मालूम है कि ब्राह्मण भाजपा या कांग्रेस किसी की तरफ खिसक सकते हैं.
मुसलमानों की पसंद अहम हो सकता हैः-इन परिस्थितियों को देखते हुए मायावतीजी केवल मुसलमानों पर भरोसा कर सकती हैं लेकिन मुसलमान भाइयों को यह भी डर हो सकता है कि चुनावों के बाद मायावती कहीं भाजपा से फिर हाथ न मिला लें.यद्यपि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों की पहली पसंद समाजवादी पार्टी रही है. परिवार के झगड़े से बात बिगड़ भी सकती है. अगर ऐसा हुआ तो मुसलमान वोटर अपने दूसरे विकल्प के तौर पर बसपा को चुनेगा. बसपा के नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी पहले से ही मुस्लिम इलाकों में दौरा कर रहे हैं. किसी का पार्टी छोड़कर चला जाना मायावती के लिए नई बात नहीं है लेकिन मुसलमानों को बहनजी यूं ही जाने नहीं दे सकती हैं. नब्बे के दशक में उन्हें तात्कालिक नेता कहकर खारिज कर दिया गया था लेकिन तब से उन्होंने कई लोगों को गलत साबित किया है. वह चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं.
अस्तित्व की लड़ाईः-पूरा देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके अगले कदम का इंतजार कर रहा है. मायावतीजी भी उनमें से एक हैं. एक तरफ उनके लिए 2017 के विधानसभा चुनाव राज्य की राजनीति में अस्तित्व की लड़ाई है. दूसरी तरफ भाजपा 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले उत्तर प्रदेश में अपना झंडा बुलंद करना चाहेगी. फिलहाल सबकी नजर भाजपा और बसपा पर ही ज्यादा है. बाकी पाटिर्यां तो खाना पूरा करती हुई देखी जा सकती हैं. जहां भाजपा कुछ भी निर्णय लेती हुई देखी जाएगी वहीं कुमारी बहन मायावतीजी छुपा रुस्तम कुछ भी गुल खिला सकती हैं और उत्तर प्रदेश को किसी भी दिशा में ले जा सकती हैं.

1 COMMENT

  1. उत्तरप्रदेश की भलाई के लिए यह अनिवार्य हो गया है कि बसपा और सपा हारे और भाजपा जीते। देश की भलाई भी इसी मे है।

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