निर्मल रानी
हालांकि पिछले दिनों पांच राज्यों के चुनाव नतीजे सामने आए परंतु जैसाकि अनुमान था सबसे अधिक चर्चित चुनाव परिणाम उत्तर प्रदेश विधानसभा का ही रहा। भारतीय जनता पार्टी व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सहित मीडिया के बड़े से बड़े दिग्गजों व चुनाव विशलेषकों के सभी पूर्वानुमानों व चुनाव परिणाम की भविष्यवाणियों को दरकिनार किया। भारतीय जनता पार्टी ने राज्य में ऐतिहासिक दो तिहाई बहुमत से जीत हासिल करते हुए राज्य की कुल 403 सदस्यों की विधानसभा में 325 सीटें हासिल कीं। इस चुनाव परिणाम के वैसे तो अनेक पहलू हैं जिनपर समीक्षकों द्वारा अलग-अलग दृष्टिकोण से समीक्षाएं लिखी जा रही हैं। परंतु इस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी की भूमिका तथा राज्य के मतदाताओं का बसपा व मायावती की ओर से निरंतर हटता जा रहा रुझान सबसे अधिक काबिल-ए-गौर रहा। हालांकि प्रदर्शन के मामले में कांग्रेस को भी मुंह की खानी पड़ी है। परंतु कांग्रेस पार्टी चूंकि लगभग तीन दशक से राज्य की सत्ता से बाहर है इसलिए उसके पास राज्य के वर्तमान चुनाव में खोने के लिए कुछ खास था भी नहीं। जबकि दूसरी ओर मायावती के विषय में कई चुनाव विशलेषक यह भी कयास लगा रहे थे कि बसपा की यदि पूर्ण बहुमत के साथ नहीं तो कुछ न कुछ जुगाड़बाज़ी कर सत्ता में वापसी भी हो सकती है। बीबीसी को दिए अपने एक साक्षात्कार में अखिलेश यादव ने भी यह संकेत दिया था कि भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिए कोई भी गठबंधन किया जा सकता है।
बहरहाल, चुनाव नतीजों में बहुजन समाज पार्टी हालांकि 22.2 प्रतिशत मत प्राप्त करने के बावजूद केवल 19 सीटों पर ही सिमट कर रह गई। जबकि समाजवादी पार्टी 21.8 प्रतिशत मत हासिल कर राज्य में दूसरे नंबर की पार्टी के रूप में स्वयं को बरकरार रख पाने में कामयाब रही। हालांकि सपा को भी राज्य में केवल 47 सीटें प्राप्त हो सकीं तथा उसकी सहयोगी कांग्रेस को केवल सात सीटें ही मिली। इससे पूर्व 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा की स्थिति वर्तमान स्थिति से कुछ बेहतर थी जबकि उसे राज्य में 25.91 प्रतिशत मतों के साथ 80 सीटें हासिल हुई थीं। इसी प्रकार लोकसभा चुनाव में 1999 में बसपा को राज्य में 14 सीटें 2004 में 19 सीटें 2009 में उत्तर प्रदेश में 20 तथा मध्यप्रदेश में भी एक सीट हासिल हुई जबकि 2014 की सोलहवीं लोकसभा में बसपा एक भी सीट जीतने में सफल नहीं हो सकी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि 1984 में बहुजन समाज के नाम पर स्वर्गीय कांशीराम द्वारा गठित की गई बहुजन समाज पार्टी जोकि 2001 से काशीराम के उत्तराधिकारी के रूप में मायावती के हाथों में जा चुकी थी क्या अब अपने पतन की ओर बढ़ रही है? गौरतलब है कि बहुजन समाज पार्टी का दावा है कि वह डा० भीमराव अंबेडकर, महात्मा ज्योतिबा फुले,छत्रपति साहू जी महाराजा तथा नारायण गुरु जैसे महापुरुषों से प्रेरणा लेकर चलने वाली पार्टी है।
निश्चित रूप से जिस समय काशीराम ने इस राजनैतिक दल की स्थापना की थी उस समय वे देश की जनता को बड़ी ही आसानी से यह समझा पाने में सफल रहे थे कि देश का 85 प्रतिशत बहुजन समाज शेष पंद्रह प्रतिशत उच्च जाति के लोगों के हाथों की कठपुतली बना हुआ है। पार्टी का विस्तार करते समय 1980 के दशक में कांशीराम व मायावती ने देश में घूम-घूम कर दलितों,पिछड़ों व अल्पसंख्यकों की भरपूर वकालत की तथा इस ‘बहुजन समाज’ को यह सपना दिखाया कि यदि वे राजनैतिक रूप से स्वयं को उनके नेतृत्व में मज़बूत कर लेते हैं तो देश में सत्ता बहुजन समाज की होगी तथा वह अपनी सरकार में अपने हितों से संबंधित फैसले स्वयं कर सकेंगे। ज़ाहिर है देश के सबसे बड़े प्रांत उत्तर प्रदेश में जनता ने उनकी बातों पर ध्यान दिया तथा 1993 तक उन्हें इस योग्य बना दिया कि बसपा 1993 में मायावती के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर प्रदेश में गठबंधन सरकार बना सकीं। हालांकि 1995 में उन्होंने समाजवादी पार्टी से अपना समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद उसी विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से वे पहली बार तीन जून 1995 को राज्य की बसपा की मुख्यमंत्री बनीं। यह राजनैतिक खेल भी केवल चार महीने तक ही चल सका और अक्तूबर 1995 में भारतीय जनता पार्टी ने भी अपना समर्थन मायावती की गठबंधन सरकार से वापस ले लिया।
मायावती की राजनैतिक कार्यशैली की शुरुआत से ही इस बात का अंदाज़ा हो गया था कि बहुजन समाज पार्टी भी भले ही बातें दलितों व अल्पसंख्यकों या पिछड़े वर्ग के लोगों की क्यों न करे परंतु दरअसल यह पार्टी भी केवल और केवल सत्ता की ही भूखी है। जिस भाजपा को मायावती मनुवादियों की पार्टी बताया करती थीं तथा तिलक तराजू और तलवार,इनको मारो जूते चार जैसे असभ्य नारे पार्टी में लगवाकर अपने मतदाताओं में जोश पैदा किया करती थीं आखिरकार जब 2005 में मुलायम सिंह यादव की सरकार गिराकर वे भाजपा की गोद में जा बैठीं उसी समय इस बात का अंदाज़ा हो चला था कि बसपा भी अन्य दलों से अलग कतई नहीं है। उसके पश्चात मायावती को राज्य में कांग्रेस पार्टी के कमज़ोर होने का पूरा लाभ मिला और एक स्थिति ऐसी भी आई जबकि वे राज्य में बहुमत की सरकार बना पाने में सफल रहीं। इस दौरान मायावती को दो चीज़ों ने बहुत नुकसान पहुंचाया। एक तो यह कि उनमें अहंकार हद से ज़्यादा पैदा हो गया और वह इस गलतफहमी का शिकार हो गईं कि राज्य में उनकी पार्टी के सभी विधायक केवल उन्हीें की वजह से और उनकी बदौलत चुनाव जीतकर आते हैं। लिहाज़ा उन्होंने किसी भी व्यक्ति को अपनी पार्टी में न तो दूसरी श्रेणी के नेतृत्व तक पहुंचने दिया न ही किसी व्यक्ति को पार्टी प्रवक्ता अथवा अपने राजनैतिक वारिस के रूप में पनपने दिया।
मायावती पर दूसरा सबसे बड़ा आरोप जोकि उन्हीं के पार्टी के दर्जनों नेताओं द्वारा लगाया जा चुका है वह यह है कि उन्हें पैसों की उगाही करने का अत्यधिक चस्का लग चुका था। चाहे वह पार्टी का टिकट देने के नाम पर पार्टी उम्मीदवारों से करोड़ों रुपये वसूलने की बात हो या अपने जन्मदिन को धन उगाही के शुभ अवसर के रूप में मनाए जाने का विषय हो। यहां तक कि वे सार्वजनक रूप से अपने समर्थकों का यह आह्वान कर चुकी थीं कि वे उन्हीं की जि़ंदा देवी के रूप में पूजा करें तथा देवी-देवताओं पर चढ़ाए जाने वाले धन को वे उन्हीं पर चढ़ाया करें। इस बार भी विधानसभा चुनावों में भी मायावती ने कई उम्मीदवारों से कथित रूप से करोड़ों रुपये लेकर उन्हें पार्टी टिकट दिया है। ऐसे कई नेता जो उन्हें पैसे देकर टिकट नहीं ले सकते थे वे पार्टी भी छोड़ चुके हैं। जहां तक उनके शासनकाल में दलित समाज के उत्थान का प्रश्र है तो इसके नाम पर राज्य के शहरों के नाम दलित समाज से संबंध रखने वाले महापुरुषों के नाम पर रखने तथा नोएडा व लखनऊ में हाथियों व अपनी पत्थरों की मूर्ति बनाए जाने के सिवा उन्होंने कुछ विशेष नहीं किया। ज़ाहिर है मायावती की इस राजनैतिक व उनकी व्यक्तिगत् कार्यशैली को राज्य की जनता धीरे-धीरे समझ चुकी है। यहां तक कि उनकी पार्टी के नेता भी संभवत: इस शैली से अब ऊब चुके हैं। ऐसे में यदि कांशीराम द्वारा खड़ा किया गया बहुजन समाज के सपनों को साकार करने की उम्मीदें दिखाने वाला राजनैतिक दल पतन की ओर जाता है तो इसमें मुख्य रूप से मायावती की ‘माया’ ही जि़म्मेदार होगी।
निर्मल रानी