मायावती का हाथी-प्रेम

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उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री सुश्री मायावती की प्रशंसा करनी चाहिए कि वो एक स्कूल की अध्यापिका से बड़े प्रदेश की मुख्यमंत्री की कुर्सी तक जा पहुंची. ये आसान रास्ता नहीं था. कोई कुछ भी कहे, कैसा ही आरोप लगाए, मायावती की सफलताओं को गंभीरता से लेना चाहिए. वो एक दलित की बेटी है, उनका अंग्रेजी बैकग्राउंड नहीं था, उत्तर प्रदेश की राजनीति पर संभ्रांत ब्राह्मणों, क्षत्रियों और बनियों का वर्चस्व रहा है, ऐसे में दलित की बेटी इतनी बुलंदी छूलेगी, किसी को विश्वास नहीं हो सकता था. मेरे लिए मायावती का क़द इसीलिए बड़ा है; मैं उनके विरोध में कुछ भी नहीं लिखता. विरोध के अपने कुछ विशिष्ट कारण हैं- मसलन, हाथी की मूर्तियों का मेनिया. बादशाहों, शहंशाहों, मलिकाओं, राजकुमारियों और रानियों कों इस तरह के शौक़ पहले भी होते रहे हैं. ये दरअसल एक तरह की बीमारी है. इतिहास में साहित्यकारों, वैज्ञानिकों और कलाकारों को भी ऐसी बीमारी रही है. मायावती को अमर हो जाने की हसरत है. बुरा भी नहीं है. इतिहास में लोगों ने कुएं खुदवाए, धर्मशालाएं बनवाईं, मंदिर, चर्च, मस्जिद और मकबरे बनवाए, नए-नए मत और धर्मों की बुनियादें रखीं. बादशाहों ने मुल्क जीते, मुल्कों में अपने सिक्के चलवाए, तो ये सब होता रहा है. शद्दाद ने तो ज़मीन पर अपनी जन्नत तक बनवा दी थी. अपने समय में हर ताक़तवर इंसान अपने को अमर कर देना चाहता है. ताक़त और समझ के इस खेल में जहाँ समझ काम करती है, वहां ताजमहल बन जाते हैं. जहाँ ताक़त काम करती है, वहां लाक्षाघर बन कर खाक हो ख़ाक हो जाते है .मायावती एक समझदार राजनीतिज्ञ हैं लेकिन ये भी सच है कि हर समझदारी राजनीति से जुडी नहीं होती है. जो इतिहास से सबक लेते हैं, वर्मान पर निगाह रखते हैं और भविष्य का निर्माण करते हैं, वे इतिहास में भी लम्बी उम्र पाते है. मायावती बस, यही नहीं जानती हैं. शायद कोई उन्हें समझाने की सलाहियत भी नहीं रखता है. अकबर के दरबार में नौ रत्न थे. बादशाह अपने रत्नों से सलाह-मशविरा करता था. आज़ादी के बाद के भारत को देखें तो भारत की भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी के पास भी अच्छे-बुरे सलाहकार थे, वो उन्हीं के सहारे भारत-पाक जंग जीत सकीं. जो बुरे थे, उन्होंने उन्हें चुनाव हरवाया भी. लेकिन इंदिरा जी की अपनी समझ ने अच्छे सलाहकारों पर भरोसा किया और इतिहास में अमर हो गयीं. उन्हें हाथियों की मूर्तियों की फ़ौज नहीं खड़ी करनी पड़ी. आज जब कि वो नहीं हैं, किन्तु दुनिया उन्हें याद करती है. मुझे नहीं लगता की मायावती के इर्द-गिर्द चाटुकारों के अलावा कोई हितैषी भी होगा. यदि होता तो उन्हें ये ज़रूर समझाता कि मूर्तियों का भविष्य नहीं होता है. इतिहास में नालंदा और अयोध्या के गर्भ में हज़ारों जैनियों और बौद्ध धर्म की मूर्तियाँ दफन हैं, क्या कोई सोच सकता था कि सम्राट अशोक के समय के स्थापित बौद्ध धर्म कों प्रथम शंकराचार्य के अखाड़े उसकी अपनी ज़मीन से ही बेदखल कर देंगे. (और मोहनजोदड़ो-हड़प्पा जैसे असंख्य उदहारण भी हैं.) तो मालूम हुआ कि कोई भी चीज़ स्थाई नहीं है. समय के गर्भ में सब कुछ समा जाता है. समय यदि कुछ याद रखता है तो वो है पुण्‍य-आत्माओं को, उनकी अच्छी सोच और अच्छे कामों को……

यदि मायावती अमर होना चाहती है और चाहती हैं कि इतिहास उन्हें अच्छे अर्थों में याद रखे तो वो दलितों, शोषितों और पिछड़ों को सशक्त बनाने का अभियान शुरू करें. उनके लिए रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराएँ, उन्हें शिक्षित करें, उनके दिलों में अपनी जगह बनाएं और भयमुक्त समाज का निर्माण करें. मनुवाद कोई विचार नहीं है. ये तो एक तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था की विवादास्पद संहिता रही है. आज देखें तो ब्राहमण के बेटे को भी रोज़गार चाहिए और बनिए के बेटे को भी. मुस्लिम समुदाय के बेटे क

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रंजन जैदी
सुप्रसिद्ध लेखक एवं डॉक्युमेंटरी फिल्ममेकर। बाड़ी, सीतापुर उ0प्र0 में जन्म। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से हिन्दी में पी-एच.डी। कहानी संग्रह-पर्त दर पर्त, रू-ब-रू, नसीरुद्दीन तख्ते खां, जड़ें तथा अन्य कहानियां, एक हथेली आधी दस्तक। उपन्यास-;प्रकाशितध्द और गिध्द उड़ गया, बेगम साहिबा, हिंसा-अहिंसा, काव्य संकलन- नूर। असंख्य लेख, साक्षात्कार, समीक्षाएं देश-विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। सारिका कहानी पुरस्कार, 1985, साहित्यकृति पुरस्कार, दिल्ली हिन्दी अकादमी-1985-86, महावीर प्रसाद द्विवेदी पत्रकारिता पुरस्कार-1991 से सम्मानित।

3 COMMENTS

  1. प्रिय भाई, एक भूल की ओर इशारा है- शब्द “महिना” नहीं होता है, माह या मॉस या “महीना” होता है. कृपया देखें.

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