उलझन

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अभिशप्त

उलझी हुई सी ज़िन्दगी,
बेचैन सी रातें,
उलझे हुए तागों मे,
पड़ती गईं गाँठे,
ये गाँठे अब,
खुलती नहीं मुझसे
उलझी हुई गाँठों को
बक्से बन्द करदूँ,
या गाँठों से जुडी बातों को,
जहन से अलग कर दूँ।
अब कोई मक़सद,
नया मै कहीं ढूँढू,
ज़िन्दगी की यही चाल है तो,
ऐसे ही न क्यो जी लूँ

 

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बीनू भटनागर
मनोविज्ञान में एमए की डिग्री हासिल करनेवाली व हिन्दी में रुचि रखने वाली बीनू जी ने रचनात्मक लेखन जीवन में बहुत देर से आरंभ किया, 52 वर्ष की उम्र के बाद कुछ पत्रिकाओं मे जैसे सरिता, गृहलक्ष्मी, जान्हवी और माधुरी सहित कुछ ग़ैर व्यवसायी पत्रिकाओं मे कई कवितायें और लेख प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों के विषय सामाजिक, सांसकृतिक, मनोवैज्ञानिक, सामयिक, साहित्यिक धार्मिक, अंधविश्वास और आध्यात्मिकता से जुडे हैं।

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