बिन बरसात,
बिना धूप,
सर पर छाता!
एक लाल मित्र मुम्बई में मिले।
पूछा, भाई छाता क्यों, पकडे हो?
बारिश तो है नहीं?
तो बोले,
वाह जी,
मुम्बई में बारिश हो,
या ना हो, क्या फर्क?
मास्को में तो, बारिश हो रही है।
१० साल बाद।
जब मास्को से भी कम्युनिज़्म
निष्कासित है।
अब भी वे मित्र, बिन बारिश
छाता ले घूम रहे हैं।
हमने किया वही सवाल–
कि भाई छाता क्यों खोले हो?
अब तो मास्को में भी बारिश बंद है?
तो बोले देखते नहीं
अब तो जूते बरस रहें है।
{सूचना: आज कल चीन में वर्षा हो रही है।}
सर्व-प्रिय- पंकजजी, अनिलजी एवं गोपालजी आप सभीका आभार, जो आपने समय निकालकर टिप्पणी दी।
(क) पंकज जी व्यस्तता के कारण (यह अहंकारसे नहीं कह रहा हूं।), चाहते हुए भी, सारी इच्छाएं सफल नहीं हो पाती।
(ख) अनिल जी,– आप के अनुमान के अनुसार, यदि एस.एम्. कृष्ण जी “राष्ट्र-भाषा” में लिखा कुछ पढ ले , तो उन्हीं की भलाई होगी, और इसे, मैं अपनी सफलता मानूंगा। “भाषा भारती-हिंदी” के उपयोगसे उन्हीं पर उपकार होगा।
गतिमान यातायात का ध्यान दिलाने, उसे कंकड/पत्थर, मार कर वाहन रोका जाता है, ठीक वैसे ही।
(ग) गोपाल जी ठीक कहा आपने, मुझे चिंता है, कि कहीं भैंस या भैंसा हमारी “बिन” ही ना तोड दे। सुने तो उसका भाग्य, या न सुने, तो दुर्भाग्य।
आप सभीको धन्यवाद।
“इंटरनेट का लक्ष्य है ग्लोबल कम्युनिकेशन: …….भारत में जो लोग क्रांति करना चाहते हैं वे बुनियादी सामाजिक परिवर्तन के प्रति वचनवद्ध हैं। जनता के प्रति वचनवद्ध हैं। वे किसी देश, सरकार, राष्ट्रवाद आदि के प्रति वचनवद्ध नहीं हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि मधुसूदन जी थोड़ा स्वाध्याय करें और जो सवाल उन्हें सता रहे हैं उनके उत्तर जानने और लिखने की कोशिश करें। “…..-जगदीश्वर चतुर्वेदी
….अब यह एक अच्छी बहस है …! मधुसूदन जी की विधा में एक नया मौसम दिखता है .
सरल सटीक शब्दों में इशारे ही इशारे में मधुसूदन जी ने बहुत कुछ कह दिया … बधाई … पर कहते हैं की भैंस के आगे बीन बजाना बेकार है … बेचारे मजबूर लोगों को क्या कहा जाए ….
मधुसूदनजी की कविता: मास्को में बारिश, मुंबई में छाता
मधुसूदन जी,
चीनी पार्टी के वरिष्ट नेता आपसी संबंधों को सुधारने के लिए भारत आये हैं.
ऐसे में यह लिखना कि आज कल चीन में जूते बरस रहें है – एस.एम्. कृष्ण जी के मंत्रालय को अच्छा नहीं लग रहा होगा.
– अनिल सहगल –
वाह अद्भुत….आ. मधुसूदन जी को सदा से मैंने यहाँ देखना और पढ़ना चाहा है. शायद संकोच या विनाम्रतावश सर केवल टिप्पणियों में ही दिखना चाहते हैं. लेकिन अब यह आह्वान करने का समौय है कि मदान में सीधे कूदें.जहां तक मुझे ध्यान आ रहा है..यह कवित भी उनकी किसी टिप्पणी में ही था. अगर मैं सही हों तो उसे लिख के रूप में सुन्दर जगह देने के लिए संपादक जी को साधुवाद.