मजहब छोड ‘धर्म’ अपनाने का अर्थ और ‘ब्रह्म-अब्रह्म’ का विमर्श

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मनोज ज्वाला
खबर है कि शिया वक्फ बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष वसीम रिजवी साहब इस्लाम
नामक ‘मजहब’ से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर धर्म धारण कर चुके हैं । धर्म
अर्थात सनातन धर्म । कल तक वे एक प्रतिष्ठित मजहबी (मुसलमान) थे; किन्तु
अब वे धार्मिक (सनातनी हिन्दू) हो चुके हैं । जितेन्द्र नारायण त्यागी
नाम से एक नई पहचान प्राप्त कर चुके रिजवी साहब का मानना है कि वे अब तक
जिस मजहब से जुडे रहे थे, सो कोई धर्म नहीं है…वह तो आतंकियों का गिरोह
मात्र है । मालूम हो कि ये वही वसीम रिजवी हैं जो एक विशेष मजहब की
आसमानी किताब, अर्थात ‘कुरान शरीफ’ की 26 आयतों को मानवता का दुश्मन और
आतंक का जनक सिद्ध करते हुए उन्हें खारीज करने अथवा प्रतिबंधित करने के
बावत भारत के सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर किये हुए थे । किन्तु
सर्वोच्च न्यायालय ने उन आयतों को खारीज करने के बजाय रिजवी साहब की
याचिका को ही खरीज कर दिया, तब रिजवी साहब उस मजहब को ही अलविदा कह अब
सनातन (धर्म) की शरण में आ चुके हैं । उनके इस अप्रत्याशित कदम से मजहब
की दुनिया में एक प्रकार की भगदड पैदा हो गई है और इस मजहब को धर्म कहने
मानने वालों को एक बहुत बडी चुनौती का सामना करना पड रहा है ।
ध्यातव्य है कि ‘धर्म’ से इतर किसी धर्म के नाम पर भारत से बाहर की
दुनिया में कायम मजहबी अवधारणाओं का मूल आधार है- ‘अब्राहमी चिन्तन’,
जिसमें व्यक्ति-विशेष एक ‘पैगम्बर’ के तौर पर ‘ईश्वर का दूत’ के रुप में
स्थापित है । उस पैगम्बर ने अपने समुदाय-विशेष के लिए कतिपय
नियमों-विधानों का जो निरुपण किया , वही धीरे-धीरे बीतते समय के साथ एक
मजहब का रुप लेता गया । यह चिन्तन ‘धर्म’ के अनादि-अनन्त-अजन्मा- सनातन
‘ब्रह्म’ की अवधारणा से ठीक विपरीत उल्टा चिन्तन पर आधारित-स्थापित है ।
ऐसा प्रतीत होता है कि उनने अपना ‘मजहब’ कायम करने के लिए ‘ब्रह्म’ को
सनातन धर्म का संस्थापक मान उसकी सनातनी रीतियों के विरोध-स्वरुप उसकी
ठीक उल्टी रीतियां अपनाते हुए ब्रह्म के विरूद्ध ‘अब्रह्म’ को अपना
नियामक-नियन्ता मान लिया । विरोधी मानस की उल्टी सोच से निर्मित उस
कपोल-कल्पित ‘अब्रह्म’ को ही कालान्तर में असत्यतावाची कट्टरतायुक्त
सनातन-विरोधियों ने ‘अब्राहम’ नाम दे कर उसे अपना पैगम्बर घोषित कर दिया
। उस कुकल्पित ‘अब्रह्म’ और उससे निकली अब्राहमी मान्यता की कोख से
बीतते कालक्रमानुसार ‘यहुदी’ व ‘ईसाई’ और ‘इस्लाम’ नामक तीन-तीन मजहब
अस्तित्व में आ गए । ‘अहोवा’ को परमात्मा मानने वाले यहुदियों में
विरोध-भाव (सनातन के प्रति) कमतर था- ‘अब्रह्म’ तक ही सीमित था ।
कालान्तर बाद वह विरोध-भाव बढा, तो उसी के भीतर से ईसाइयत निकल पडी,
जिसने ‘गौड’ को परमात्मा मान रखा है । कट्टरता और बढी तो अरब से एक और
मजहब जन्म लेते ही दौड पडा- ‘सनातन धर्म के विरूद्ध सब कुछ उल्टा करने की
तरकीब व तहजीब ले कर और मार-काट मचाने लगा । यहुदीवाद शिथिल पडता गया,
सिमटता गया और उससे निकले ये दोनों मजहब दुनिया भर में आतंक बरपाने लगे ।
इनमें से आखिरी मजहब के झण्डाबरदारों ने अपने पैगम्बर को अन्तिम पैगम्बर
और अपनी किताब को आसमानी किताब घोषित करते हुए यह एलान कर दिया कि जो लोग
इसे नहीं मानते वे काफिर हैं, शत्रु हैं , उन्हें हमारा मजहब कबूल किये
बिना दुनिया में रहने का कोई अधिकार नहीं है ; जबकि उनका कतल कर देना
आसमानी किताब के हिसाब से कोई जुर्म नहीं है, बल्कि ‘जिहाद’ है, जिसके
लिए कातिल को जन्नत का इनाम सुनिश्चित है । इसने इस्लाम और गैर-इस्लाम
के नाम पर समस्त मानवी सभ्यताओं को विभाजित कर रखा है । इस्लाम नहीं
मानने वालों को शत्रु मान रखा है । सिर्फ मान ही नहीं रखा है, बल्कि उनके
प्रति शत्रुवत भाव, विचार व व्यवहार भी कायम कर रखा है । वे
गैर-मजहबियों (मुसलमानों) को येन-केण प्रकारेण मजहबी खेमे में ले लाने के
लिए तमाम तरह की तिकडमें ही नहीं रचते रहते हैं, बल्कि इस बावत छल-छद्म ,
हिंसा, बलात्कार , लूटमार, हमला आतंक युद्ध सब कुछ करते हैं और इन
कृत्यों को जायज मानते हैं व ‘जिहाद’ कहते हैं । जिहाद को ‘धर्मयुद्ध’
कहना मजहबियों की धूर्त्तता या अज्ञानता के सिवाय और कुछ नहीं है ।
भारतीय सनातन परम्परा का धर्मयुद्ध तो वास्तव में असत्य अनीति अन्याय आदि
अमानवीय अवांछनीयताओं के विरूद्ध युद्ध है, जो समस्त मानवता और समस्त
विश्व वसुधा के कल्याणार्थ वांछित है । सनातन धर्म-ग्रन्थों में जिन-जिन
धर्म-युद्धों या देवासुर-संग्रामों की चर्चा हुई है, सो सब के सब सत्य
नीति , न्याय , शांति व सुव्यवस्था की स्थापना के लिए ही हुए हैं ; न कि
सनातन धर्म की किन्हीं मान्यताओं को दूसरों पर थोपने के लिए या गैर
सनातनियों अथवा मजहबियों को सनातनी बनाने के लिए । विश्व के इतिहास में
ऐसा एक भी उदाहरण देखने-पढने-सुनने को नहीं मिलता कि सनातन धर्म के
प्रचार-विस्तार के लिए हिंसा आतंक या युद्ध की बात भी की गई हो । इस
हेतु किसी भी तरह के छल-छद्म को भी सनातन धर्म में कभी स्वीकृति नहीं
मिली है, क्योंकि ये सारे कृत्य घनघोर अधार्मिक कृत्य है ।
आज दुनिया में जहां-जहां भी अशांति कायम है, वहां-वहां उसके मूल
में मजहबी विस्तारवाद ही मुख्य कारक है । आतंक तो जन्मा ही है मजहबी
मान्यताओं की कोख से । वह मजहब ही है, जो व्यक्ति-व्यक्ति में यह भाव
भरते रहता है कि केवल ‘हम’ और ‘हमारी मान्यता’ ही सही है, दूसरे लोग और
दूसरी मान्यतायें गलत हैं ; हमारी मान्यताओं को जो नहीं मानता उससे
जबरिया मनवाना चाहिए अथवा उसे मिटा देना चाहिए । दुनिया भर में मजहब का
विस्तार इसी तरीके से हुआ है । भारत के समस्त मजहबियों के पूर्वज कभी
‘धार्मिक’ (सनातनी) ही थे, जो मजहबी-जिहादी आतंक से पीडित-भयभीत हो कर
धर्म से विमुख हो गए । मजहबों के अस्तित्व में आने से पहले दुनिया भर में
धर्म ही कायम था । किसी भी मजहब के भीतर धार्मिक-आध्यात्मिक
विचारों-भावों का कोई स्थान ही नहीं है । यही कारण है कि इसका विस्तार
तलवार के बल से ही हुआ है । जिस मजहब के लोगों ने औरों के मजहबीकरण हेतु
तलवार का सहारा नहीं लिया, उस मजहब का विस्तार नहीं हुआ, बल्कि वह सिमटता
गया । यहुदी इसका उदाहरण हैं । दर-असल मजहब जो है, सो बन्द कुएं अथवा
बान्धों से घिरे हुए पोखर या तालाब के समान है, जिनमें स्वाभाविक
विस्तारशीलता व गतिशीलता का अभाव है । कुंए तालाब अथवा पोखर का ठहरा हुआ
पानी पीने योग्य कतई नहीं होता । जबकि धर्म तो सदानीरा गंगा है , जो
मानव-जीवन के लिए स्वास्थ्यवर्द्धक तो है ही, सर्वकल्याणकारी भी है ।
रिजवी साहब एक मजहब के बडे ओहदों पर रहते हुए एक धार्मिक ‘यति’
नरसिंहानन्द सरस्वती के सनिध्य में इस तथ्य के सत्य को समझते रहे और धर्म
व मजहब के अंतर्द्वंद्व से वर्षों तक जुझते रहे । अंततः उनकी सुशुप्त
चेतना जब जाग उठी तब अब वे ‘दूषित पानी’ पीने से इंकार कर दिए हैं और अब
‘गंगाजल’ का सेवन करने लगे हैं । इतना ही नहीं अब वे अन्य मजहबियों को भी
आईना दिखा रहे हैं अर्थात यह समझा रहे हैं कि मजहब तो शांति का सबसे बडा
शत्रु है और खुलेआम यह कह रहे हैं कि वे जिस मजहब का लबादा ओढे हुए थे सो
आतंकियों का गिरोह मात्र है । इसका इतिहास रक्तरंजित है और भविष्य
अनिश्चित है । यह न केवल सम्पूर्ण विश्व के लिए , बल्कि समस्त मानवता के
लिए चिन्ता का सबब है । विश्व-वसुधा को रचने गढ्ने वाली परमात्म सत्ता से
इसका घोर विरोध है; जबकि विश्व-ब्रह्माण्ड का रचनाकार ब्रह्म अपनी रचना
को मिटते-पिटते रहना कतई पसंद नहीं कर सकता । कोई भी रचनाकार अपनी रचना
को नष्ट किया जाना भला कैसे सहन कर सकता, वह उसके रक्षण-संवर्द्धन के
निमित्त भी सचेष्ट रहता है । ब्रह्म की इसी चेष्टा का परिणाम है- वसीम
रिजवी की सुशुप्त चेतना का उत्थान । अब सुनने में यह भी आ रहा है कि वसीम
साहब जिस वक्फ बोर्ड के चेयरमैन थे उससे जुडे हजरों अन्य मजहबी लोग भी अब
धर्म की राह पर लौटने को तैयार हैं । यह चेतना-जागरण वस्तुतः विश्व-वसुधा
की रचना करने वाले ब्रह्म से निःसृत एक दैवीय अभियान है, जो धर्म को मजहब
के खतरों से उबार लेने को उद्धत है । क्योंकि , धर्म ही समस्त
विश्व-वसुधा व समग्र मानवता का पालक-पोषक , रक्षक और समन्वयक है । इसी
कारण यह सनातन है और आदि-अनादि परमेश्वर ब्रह्म से रचित-संरक्षित व
निर्देशित है । रिजवी साहब की जागृत चेतना एक आईना के समान है जिसे देखने
से यही तस्वीर प्रतिविम्बित हो रही है ।

1 COMMENT

  1. श्री मनोज ज्वाला जी द्वारा मजहब पर लिखे उनके विचार पढ़, पहले पहल मैं श्री जितेन्द्र नारायण सिंह त्यागी जी के लिए शुभकामनाएं भेजता हूँ | ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में भले ही मजहब केवल जिहाद अथवा क्रुसेड का आधार रहा है लेकिन आज इक्कीसवीं सदी में इस पावन भारतीय भूभाग पर यदि हम और आप हिंदुत्व के आचरण की बात करते हैं तो कोई अचम्भा अथवा आश्चर्यजनक बात नहीं है| यह केवल इस बात का प्रमाण है कि सनातन धर्म ही मानवता का लक्ष्य है| आज समय की मांग है कि धर्म का पालन करते आप और हम अपने दैनिक चिंतन व आचरण को उन ऊँचाइयों तक ले जाएं जहां सूर्य के प्रकाश में दीपक की आवश्यकता ही न पड़े!

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