मीडिया रक्काशा बन गया है और नेता अय्य़ाश ज़मींदार की तरह

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आप दो घटनाओं पर गौर कीजिए। पहला, एक राजनीतिक दल के सज़ाशुदा अध्यक्ष दिल्ली हवाई अड्डे पर पत्रकारों के लगातार प्रश्न करने पर झल्लाते हुए बोलते हैं, ‘चोप्प..एक मुक्का मारेंगे, तो नाचते हुए गिरेगा।’ वह उस पत्रकार को मोदी का एजेंट बताते हैं और उसको ठीक करने की भी धमकी देते हैं।

दूसरी घटना, कुछ दिनों पहले की है, जिसका ऑडियो टेप अभी कल से वायरल हो चुका है। कटिहार के बरारी के विधायक नीरज यादव ने एक पत्रकार को मां-बहन की गालियों समेत जान से मारने की धमकी भी दी है। उसमें इतनी भद्दी गालियां हें कि आपके कान जल उठेंगे। उस ऑडियो टेप के आधार पर अब तक वह विधायक गिरफ्तार होना चाहिए, लेकिन वह नीतीश कुमार के साथ आज मंच साझा कर रहा था। इतना ही नहीं, पत्रकारों को एक होकर विधायक के खिलाफ होना चाहिए था, लेकिन वही पत्रकार आज उसकी तस्वीर भी खींच रहे थे और यहां तक कि जो पत्रकार इस तूफान के केंद्र में हैं, उसके बैनर यानी अखबार ‘प्रभात खबर’ ने ही उससे पल्ला झाड़ लिया है। प्रभात खबर के कटिहार ब्यूरो चीफ राजकिशोर से हमारी बात होती है, तो वह सीधे कहते हैं, ‘देखिए, हरेक नियुक्ति का प्रॉसेस होता है। अब कोई बिना किसी बात के खुद को हमारा प्रतिनिधि बताए, तो हम क्या कर सकते हैं, आप एक शब्द में जान लीजिए कि उनका प्रभात खबर  से कोई लेना-देना नहीं है। ’

पत्रकार से बात होती है, तो किस्सा बिल्कुल ही दूसरा सामने आता है।

सब कुछ लेकिन इतना सीधा और सरल नहीं है। पत्रकार के बैनर प्रभात खबर ने उस पत्रकार से अपनी संबद्धता से तो इनकार कर ही दिया है, सोशल मीडिया पर पत्रकार के इतिहास-भूगोल को खंगाला जाने लगा है। कुछ बड़े पत्रकार तो ऑडियो सुनकर यह भी दावा कर दे रहे हैं कि पत्रकार का चरित्र संदिग्ध लग रहा है। कुछ लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि नीरज यादव आखिर जिस हनक से इस तरह की बातचीत कर रहा है, उसकी वजह क्या है?

कुछ लोग कह विधायक के गाली-गलौज और ‘भाजपा के एजेंट बन जाओ’ वाले वाक्य को भी जोड़कर देख रहे हैं। वही कुछ कुडीग्राम तक पहुंच जाने का दावा कर रहे हैं और यह भी कि दरअसल विवाद किस वाले पुल को लेकर था?

इन सब के बीच आज मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पूरे लाव-लश्कर के साथ कटिहार में पांच योजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास कर रहे थे। विधायक न केवल बगलगीर था, बल्कि उसने मंच से जनता को संबोधित भी किया। क्या मुख्यमंत्री को उस विधायक के कर्म की ख़बर न होगी? क्या एक तरह से मुख्यमंत्री ने उस विधायक को अभयदान नहीं दिया है, जिस पर इस वक्त तो कायदे से आइपीसी की चार धाराओं के तहत कार्रवाई होनी चाहिए थी।

लालू यादव हों या नीरज यादव, इनकी हनक वैसे ही नहीं होती है। लालू के बयान के बचाव में ऐसे लिक्खाड़ और महारथी भी उतर आए हैं, जो खुद पत्रकार रह चुके हैं। एक वरिष्ठ पत्रकार ने तो सीधा ‘रिपब्लिक’ पर हमला बोलते हुए अनुवाद की कक्षा भी लेनी शुरू कर दी। उन्होंने पहले शहाबुद्दीन के समय रिपब्लिक के हिंदी अनुवाद का उल्लेख करते हुए इस बार लालू के बयान के अनुवाद पर भी प्रश्नचिह्न लगाया है? तेजस्वी यादव अपने ट्वीट के जरिए पहले ही ब्राह्मणवादी मीडिया का इसे षडयंत्र घोषित कर चुके हैं।

कुछ पत्रकार ऑडियो में भाषा, पत्रकार के लहजे, उसकी पहले की रिपोर्ट्स आदि का अन्वेषण कर रहे हैं, लेकिन नीरज यादव की शुरुआती पंक्ति को ही भूल जाते हैं, जहां वह सीधा रिपोर्टर की बहन से ही अपना संबंध जोड़ता है, उसकी शुरुआती चार पंक्तियां सुनने तक मन हिंसा और जुगुप्सा से भर जाता है, लेकिन हमारे लिक्खाड़ और पत्रकार विधायक को जायज ठहराने की हिम्मत तो नहीं जुटा पा रहे, लेकिन पत्रकार के चरित्र को संदेहास्पद जरूर बना चुके हैं। पत्रकारों की यह लड़खड़ाहट और कमी ही नीरज यादव जैसों को वह हनक देती है, जो इस ऑडियो में सुन सकते हैं।

हमारा पत्रकार संजीव उर्फ पप्पू भी इस बात को जानता है। तभी जब उनसे एफआइआर के मसले पर बात होती है, तो वह थोड़े भर्राए, थोड़े लड़खड़ाए स्वर में कहते हैं, ‘हम तो डर के मारे दुबके हुए हैं। एफआइआऱ की बात करते हैं आप और वह भी सत्ताधारी विधायक के खिलाफ? अभी तो हमारा बैनर हमको डिसओन कर दिया है, उसके खिलाफ लड़े किसके दम पर? तीन महीना बाद क्या होगा, क्या ठिकाना है?’

संजीव के लिए कोई पैनल डिस्कशन नहीं होगा, नही हो रहा है। कोई कैंडल लाइट मार्च नहीं निकलेगा। कोई याचिका दायर नहीं होगी, क्योंकि बात बिहार और उसमें भी सुदूर कटिहार की है। उसको मिली धमकी पत्रकारिता के लिए धमकी और ख़तरा नहीं है, क्योंकि उसकी जान दिल्लीवालों की तरह ‘कीमती’ नहीं है। संजीव शायद अगला राजदेव रंजन हो, हम शायद फिर से तमाशबीन बने रहें। ताज़ा हालात तो यही हैं कि एफआइआर हुई नहीं है (संजीव ने ह्वाट्सएप से डीएम को आवेदन भेजा है), विधायक ने अपनी आवाज़ उस टेप में होने से इंकार कर दिया है, प्रभात ख़बर प्रबंधन ने उसे अपना कर्मचारी मानने से ही इंकार कर दिया है और पत्रकारों-लेखकों की बिरादरी भी बहुत सहम-सहम कर कदम रख रही है, पूरी गणना के साथ। मामला धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का जो है।

हम शायद अपने घेरों में इतने कैद हो चुके हैं कि हमें आनेवाली तबाही भी नहीं दिख रही। हम इतने संकीर्ण हो गए हैं कि समाज के तौर पर हमारा अस्तित्व ही मिट चुका है। मसला सीधा सा है- एक विधायक ने अपनी सत्ता की हनक में एक पत्रकार को भद्दी-गंदी गालियां दीं, जान से मारने की धमकी दी।

उस विधायक पर कानून के मुताबिक मुकदमा हो, सजा मिले, यह हमारा ध्येय, हमारी मांग होनी चाहिए, पर हो क्या रहा है? पार्टीबाज़ी, दलबंदी और उसके मुताबिक बयानबाज़ी। उस पत्रकार के चरित्र का छिद्रान्वेषण हो रहा है।

हम अपनी मानसिक स्वतंत्रता इस कदर गिरवी रख चुके हैं कि कुछ भी स्वाधीन रहकर नहीं सोच पाते, किसी वाद या पंथ के मुताबिक ही हम सोच रहे हैं और यह एक समाज के तौर पर हमारी हार है।

 

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