मीडिया की सर्वव्यापी उपस्थिति से जीवंत हो रहा है लोकतंत्र

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चुनाव जो मीडिया में ज्यादा और मैदान में कम लड़ा जा रहा

संजय द्विवेदी

download (1)बेहतर चुनाव कराने की चुनाव आयोग की लंबी कवायद, राजनीतिक दलों का अभूतपूर्व उत्साह,मीडिया सहभागिता और सोशल मीडिया की धमाकेदार उपस्थिति ने इस लोकसभा चुनाव को वास्तव में एक अभूतपूर्व चुनाव में बदल दिया है। चुनाव आयोग के कड़ाई भरे रवैये से अब दिखने में तो उस तरह का प्रचार नजर नहीं आता, जिससे पता चले कि चुनाव कोई उत्सव भी है, पर मीडिया की सर्वव्यापी और सर्वग्राही उपस्थित ने इस कमी को भी पाट दिया है। मोबाइल फोनों से लैस हिंदुस्तानी अपने कान से ही अपने नेता की वाणी सुन रहा है। वे वोट मांग रहे हैं। मतदाता का उत्साह देखिए वह कहता है ‘मुझे रमन सिंह का फोन आया।’ तो अगला कहता है ‘मेरे पास नरेंद्र मोदी का फोन आ चुका है।’ शायद कुछ को राहुल गांधी, अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल का भी फोन आया हो। यानि यह चुनाव मीडिया के कंधों पर लड़ा जा रहा है। एक टीवी स्क्रीन पर जैसे ही नरेंद्र मोदी प्रकट होते हैं, तुरंत दूसरा चैनल राहुल गांधी का इंटरव्यू प्रसारित करने लगता है। इसके बाद सबके लिए सोशल मीडिया का मैदान खुलता है, जहां इन दोनों साक्षात्कारों की समीक्षा जारी है।

वास्तव में इस चुनाव में मीडिया ने जैसी भूमिका निभाई है, उसे रेखांकित किया जाना चाहिए। टेलीविजन पर मुद्दों पर इतनी बहसों का आकाश कब इतना निरंतर और व्यापक था? टीवी माध्यम अपनी सीमाओं के बावजूद जनचर्चा को एक व्यापक विमर्श में बदल रहा है। आपने गलती की नहीं कि आसमान उठा लेने के लिए प्रसार माध्यम तैयार बैठै हैं। सोशल मीडिया की इतनी ताकतवर उपस्थिति कभी देखने को नहीं मिली। इसके प्रभावों का आकलन शेष है। किंतु एक आम हिंदुस्तानी की भावनाएं, उसका गुस्सा,उत्साह, सपने, आकांक्षाएं, तो कभी खीज और बेबसी भी यहां पसरी पड़ी है। वे कह रहे हैं ,सुन रहे हैं और प्रतिक्रिया कर रहे हैं। वे मीडिया की भी आलोचना कर रहे हैं। कभी केजरीवाल तो कभी मोदी के ओवरडोज से वे भन्नाते भी हैं। किंतु यह जारी है और यहां सृजनात्मकता का विस्फोट हो रहा है। इंडिया टीवी पर चला नरेंद्र मोदी का इंटरव्यू कैसे इस दौर का सबसे ज्यादा देखा जाने वाला इंटरव्यू बना इसे भी समझिए। अब किसी एक माध्यम की मोनोपोली नहीं रही। एक माध्यम दूसरे की सवारी कर रहा है। एक मीडिया दूसरे मीडिया को ताकत दे रहा है और सभी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए प्रतीत हो रहे हैं। नरेंद्र मोदी ने शायद इसीलिए अपने साक्षात्कार में यह कहा कि “सोशल मीडिया नहीं होता तो आम हिंदुस्तानी की क्रियेटिविटी का पता ही नहीं चलता।” आप देखें तो यहां रचनात्मकता कैसे प्रकट होकर लोकव्यापी हो रही है। यहां लेखक, संपादक और रिर्पोटर नहीं हैं, किंतु सृजन जारी है। प्रतिक्रिया जारी है और इस बहाने एक विमर्श भी खड़ा हो रहा है, जिसे आप लोकविमर्श कह सकते हैं। सामाजिक बदलाव ने काफी हाउस, चाय की दूकानों, पटिए और ठीहों पर नजर गड़ा दी है, वे टूट रहे हैं या अपनी विमर्श की ताकत को खो रहे हैं। किंतु समानांतर माध्यमों ने इस कमी को काफी हद तक पूरा किया है। मोबाइल के स्मार्ट होते जाने ने इसे व्यापक और संभव बनाया है। अखबार भी अब सोशल साइट्स पर चल रहे एक लाइना विमर्शों, जोक्स और संवादों को अपने पन्नों पर जगह दे रहे हैं। यह नया समय ही है, जिसने एक पंक्ति के विचार को महावाक्य में बदल दिया है। सूक्तियों में संवाद का समय लौट आया लगता है। एक पंक्ति का विचार किताबों पर भारी है। आपके लंबे और उबाउ वक्तव्यों पर टिप्पणी है- “इतना लंबा कौन पढ़ेगा, फिर हिंदी भी तो नहीं आती।” माध्यम आपको अपने लायक बनाना चाहता है। वह हिंग्लिश और रोमन में लिखने के लिए प्रेरित करता है। वह बता रहा है कि यहां विचरण करने वाली प्रजातियां अलग हैं और उनके व्यवहार का तरीका भी अलग है।

मतदान इस दौर में चुनाव आयोग के अभियानों, मीडिया अभियानों और जनसंगठनों के अभियानों से एक प्रतिष्ठित काम बन गया है। वोट देकर आती सोशल मीडिया की अभ्यासी पीढ़ी अपनी उंगली दिखाती है। यानि वोट देना इस दौर में एक फैशन की तरह भी विस्तार पा रहा है। इस जागरूकता के लिए चुनाव आयोग के साथ सोशल मीडिया को भी सलाम भेजिए। ‘कोऊ नृप होय हमें का हानि’ का मंत्रजाप करने वाले हमारे समाज में एक समय में ज्यादातर लोग वोट देकर कृपा ही कर रहे थे। बहाने भी गजब थे पर्ची नहीं मिली, धूप बहुत है, लाइन लंबी है, मेरे वोट देने से क्या होगा? पर इस समय की सूचनाएं अलग हैं, लोग विदेशों से अपनी सरकार बनाने आए हैं। दूल्हा मंडप में जाने से पहले मतदान को हाजिर है। जाहिर तौर पर ये उदाहरण एक समर्थ होते लोकतंत्र में अपनी उपस्थिति जताने और बताने की कवायद से कुछ ज्यादा हैं। वरना वोट निकलवाना तो राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं का ही काम हुआ करता था। वो ही अपने मतदाता को मतदान केंद्र तक ले जाने के लिए जिम्मेदार हुआ करते थे। लेकिन बदलते दौर में समाज में अपेक्षित चेतना का विस्तार हुआ है। मीडिया का इसमें एक अहम रोल है। देश में पिछले सालों में चले आंदोलनों ने समाज में एक अभूतपूर्व किस्म की संवेदना और चेतना का विस्तार भी किया है। बाबा रामदेव, अन्ना हजारे, श्री श्री रविशंकर से लेकर अरविंद केजरीवाल के साथियों के योगदान को याद कीजिए। नरेंद्र मोदी जैसे जिन नेताओं ने काफी पहले इस माध्यम की शक्ति को पहचाना वो आज इसकी फसल काट रहे हैं। ये बदलते भारत का चेहरा है। उसकी आकांक्षाओं और सपनों को सच करने का विस्फोट है। मीडिया ने इसे संभव किया है। सोशल मीडिया के व्यापक प्रसार ने देश की एकता और अखंडता के सरोकारों को भी व्यापक किया है। हमें भले लगता हो कि सोशल मीडिया पर सिर्फ फुरसती लोग इकट्टे हैं, किंतु एक नाजायज टिप्पणी करके देखिए और हिंदुस्तानी मन की प्रतिक्रियाएं आप तक आ जाएंगीं। वास्तव में यह नया माध्यम युवाओं का ही माध्यम है किंतु इस पर हर आयु-वर्ग के लोग विचरण कर रहे हैं। कुछ संवाद, कुछ आखेट तो कुछ अन्यान्न कारणों से यहां मौजूद हैं। बावजूद लोकविमर्श के तत्व यहां मिलते हैं। मोती चुनने के लिए थोड़ा श्रम तो लगता ही है। अपने स्वभाव से ही बेहद लोकतांत्रिक होने के नाते इस मीडिया की शक्ति का अंदाजा लगाना मुश्किल है। यहां टीवी का ड्रामा भी है तो प्रिंट माध्यमों की गंभीरता भी है। यहां होना, कनेक्ट होना है। सोशलाइट होना है, देशभक्त होना है।

एक समय में हिंदुस्तान का नेता बुर्जुग होता था। आज नौजवान देश के नेता हैं। इस परिघटना को भी मीडिया के विस्तार ने ही संभव किया है। पुराने हिंदुस्तान में जब तक किसी राजनेता को पूरा देश जानता था, वह बूढ़ा हो जाता था। बशर्ते वह किसी राजवंश का हिस्सा न हो। आज मीडिया क्रांति रातोरात आपको हिंदुस्तान के दिल में उतार सकती है। नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की परिघटना को ऐसे ही समझिए। आज देश मनोहर पारीकर और माणिक सरकार को भी जानता है, अन्ना हजारे को भी पहचानता है। उसने राहुल गांधी की पूरी युवा बिग्रेड के चेहरों को भी मीडिया के माध्यम से ही जाना है। यानि मीडिया ने हिंदुस्तानी राजनीति में किसी युवा का नेता होना भी संभव किया है। मीडिया का सही, रणनीतिक इस्तेमाल इस देश में भी, प्रदेश में भी ओबामा जैसी घटनाओं को संभव बना सकता है। अखिलेश यादव को आज पूरा हिंदुस्तान पहचानता है तो इसमें मुलायम पुत्र होने के साथ –साथ टीवी और सोशल मीडिया की देश व्यापी उपस्थिति का योगदान भी है। वे टीवी के स्क्रीन से लेकर मोबाइल स्क्रीन तक चमक रहे हैं। रंगीन हो चुके अखबार भी अब उनकी खूबसूरत तस्वीरों के साथ हाजिर हैं। काले-सफेद हर्फों में छपे काले अक्षर तब ज्यादा मायने रखते होंगें किंतु इस दौर में बढ़ी आंखों की चेतना को रंगीन चेहरे अधिक भाते हैं। माध्यम एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं। टीवी में अखबार दिखने लगा है, अखबार थोड़ा टीवी होना चाहते हैं। सोशल मीडिया एक साथ सब कुछ होना चाहता है।माध्यमों ने राजनीति को भी सुंदर और सुदर्शन बनाया है। दलों के नेता और प्रवक्ता भी अब रंगीन कुर्तों में नजर आने लगे हैं। फैब इंडिया जैसे कुरतों के ब्रांड इसी मीडिया समय में लोकप्रिय हो सकते थे। राजनीति में सफेदी के साथ कपड़ों की सफेदी भी घटी है। चेहरा टीवी के लिए, नए माध्यमों के लिए तैयार हो रहा है। इसलिए वह अपडेट है और स्मार्ट भी। अब माध्यम नए-नए रूप धरकर हमें अपने साथ लेना चाहते हैं। वे जैसा हमें बना रहे हैं, हम वैसा ही बन रहे हैं। सही मायने में यह ‘मीडियामय समय’ है जिसमें राजनीति, समाज और उसके संवाद के सारे एजेंडे यहीं तय हो रहे हैं। टीवी की बहसों से लेकर सोशल साइट्स पर व्यापक विमर्शों के बावजूद कहीं कुछ कमी है जिसे हमारे प्रखर होते लोकतंत्र में हमें सावधानी से खोजना है। इस बात पर बहस हो सकती है कि यह लोकसभा चुनाव जितना मीडिया पर लड़ा गया, उतना मैदान में नहीं।

4 COMMENTS

  1. सारगर्भित आलेख , मीडिया के उज्जवल और स्याह पक्ष का सटीक आंकलन ,संजय दिवेदी जी का लेख के अंत में यह कहना कि
    ” टीवी की बहसों से लेकर सोशल साइट्स पर व्यापक विमर्शों के बावजूद कहीं कुछ कमी है
    जिसे हमारे प्रखर होते लोकतंत्र में हमें सावधानी से खोजना है”,
    काफी मायने रखता हैं , निसन्देह सारी अच्छाइयों के बीच कुछ चीजे, अमर्यादित अथवा अशालीन राजनीति की तरह चुभने वाली हैं इन्हे दूर करने के लिए दिया गया बहस और सुधार का सुझाव स्वागतीय हैं ,
    लेख को ले कर गिरीश पंकज जी की टीप भी मुझे सराहनीय लगी , “संजय दृष्टि के अभिनंदन “का सुझाव मन को छूने वाला हैं

  2. आपके सारगर्भित आंकलन और उस पर गिरीश पंकज जी की सटीक प्रतिक्रिया से पूर्णतः सहमत हूँ ,

  3. Iss desh me internet aur mobile ki jarurat ko mahshus karne wale rajiv gandhi … Ji ko nirasa ho rhi hogi ki unki virasat ko sambhalne wale kuch alpgyani aaj tk unke vicharon ko angikrat nhi kr paye…

  4. बहुत ही सुविचारित और सम् कालीन समय को निहारता सजग लेख देखकर खुशी हुयी,ऐसे लेख हिन्दी पत्रकारिता मे विरल ही नजर आते है, सोशल मीडिया की लोकव्यापी संजय ने खूब पकड़ा है और दृश्य माध्यम से ही चुनाव चुनाव लड़ा जा रहा हैं और यह ठीक भी है आज जब समाज घरों में सिमट गया है , मोबाइल और नेट ही लोगो के जीवन के हिस्से बन गए है, तब क्यों न उन माध्यमो का इस्तेमाल हो. संजय का लेख इन सब बातों को विस्तार से रेखांकित करता है. इस लेख के लिए संजय की सजग दृष्टि का अभिनन्दन होना चाहिए

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