बड़ी देर कर दी मेहरबां आते-आते

संदर्भः भोपाल गैस त्रासदी पर न्याय

-राजेश त्रिपाठी

भोपाल गैस पीड़ितों को अब राहत की सांस लेनी चाहिए क्योंकि उनकी करुण पुकार सत्ता के शीर्ष तक पहुंच गयी है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आनन- फानन फरमान जारी कर दिया है कि भोपाल गैस त्रासदी के मामले में जो मंत्रियों का समूह गठित किया गया है वह उन्हें इस बारे में 10 दिन के अंदर रिपोर्ट दे। अब यह त्रासदी से पीड़ित लोगों के प्रति माननीय मनमोहन जी की हार्दिक पीड़ा और सहानुभूति है या फिर अर्जुन सिंह की भूमिका को लेकर कांग्रेसी नेताओं की छींटाकशी, आरोप-प्रत्यारोप से हो रही अपने दल की किरकिरी से निजात पाने का जरिया। जो भी हो प्रधानमंत्री का इरादा नेक है और इसके लिए उनको धन्यवाद देना चाहिए लेकिन साथ ही यह देश और देशवासियों का दुर्भाग्य है कि ऐसे मामलों में सत्ता हो या प्रतिपतक्ष देर से जागता है। यानी बड़ी देर कर दी मेहरबां आते-आते। इस मंत्रिमंडलीय समिति का गठन पहले भी किया जा सकता था। उन कारणों की तह में जाया जा सकता था जिनके चलते एंडरसन को देश से निकल जाने का सेफ पैसेज दे दिया गया और उस पर भी कहा यह जा रहा है कि इसमें तत्कालीन सत्ता की मदद थी। वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने हाल ही में एक बयान में कहा था कि एंडरसन को इसलिए जाने दिया गया ताकि देश में कानून-व्यवस्था की समस्या न पैदा हो जाये। उनकी बात भी मान लेते हैं लेकिन जब सब कुछ काफी सामान्य हो चुका था तब एंडरसन के प्रत्यर्पण और उसे न्याय के कठघरे में लाने की गंभीर कोशिश क्यों नहीं हुई? आज हम कह रहे हैं कि हम बराक ओबामा से फिर अनुरोध करेंगे कि वे एंडरसन के प्रत्यर्पण की अनुमति दें तब क्या देर नहीं हो चुकी? एंडरसन की पत्नी ने अपने हालिया बयान में कह ही दिया है कि उनके पति अब इस स्थिति में नहीं कि वे बयान आदि दे सकें। वे बहुत बीमार हैं। ऐसे में क्या उनका प्रत्यर्पण संभव होगा? ऐसे कई सवाल उठते हैं जिन्हें सत्ता के केंद्र में काबिज जिम्मेदार मंत्रियों और उनके समूह को झेलना और उनसे जूझना है। अपनी जिम्मेदारी से सत्ता पक्ष मुंह तो चुरा नहीं सकता क्योंकि उसके दुर्भाग्य से उस वक्त मध्यप्रदेश और केंद्र में उसी की सत्ता थी। ऐसे में जवाबदेही तो उसके उन मंत्रियों या नौकरशाहों की बनती है जिन पर उंगलियां उठ रही हैं। कांग्रेसी नेताओं को भी चाहिए कि वे एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के बजाय इस त्रासदी से जुड़े पहलुओं की पड़ताल करें और इससे कष्ट पाने वाले लोगों के जख्मों को कुरेदने के बजाय उनकी मदद करें। उनके साथ खड़े हों और उनको यह विश्वास दिलायें कि दुनिया की चाहे कोई भी शक्ति आड़े आये पर उन्हें देश से न्याय मिलेगा और अवश्य मिलेगा। यह वक्त की मांग है , यह पीड़ितों का अधिकार है। उनको इस अधिकार से देश के कर्णधार वंचित नहीं कर सकते। प्रधानमंत्री ने पहल की, मंत्री समूह को 10 दिन के भीतर रिपोर्ट देने को कहा लेकिन लगता तो यही है कि –बड़ी देर कर दी मेहरबां आते-आते।

अपने देश में एक अजीब सी रवायत है। यहां सत्ता हो या प्रतिपक्ष किसी बड़ी घटना के प्रति तब तक सचेत नहीं होता जब तक कोई जनांदोलन उसकी कुंभकर्णी नींद तोड़ उसे झिंझोड़ नहीं देता। इस बार भी यही हुआ। भोपाल गैस त्रासदी की आंच जब सड़क से संसद तक महसूस की गयी, पूरे देश में आंदोलन प्रदर्शन किये गये तब कहीं पक्ष-प्रतिपक्ष की आंखें खुलीं। इतने दिन तक किसी नेता-मंत्री को भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए दर्द जताते नहीं देखा गया। लेकिन जब जनांदोलन उभरा, एक बड़ा आक्रोशित तबका (वोट कहें तो ज्यादा अच्छा है क्योंकि शायद आज देश के हर नागरिक की पहचान यही है) अपने से खफा दिखा तो जाने कितने मुख हो गये मुखर। सबसे टपकने लगा इन पीड़ितों के लिए दर्द, शुरू हो गया आरोप-प्रत्यारोप का दौर, पक्ष-प्रतिपक्ष ने एक-दूसरे को घेरना शुरू कर दिया। जाने कितने लोग रातोंरात दोषी नजर आने लगे और प्रतिपक्ष उन्हें न्याय के तराजू में तौलने की मांग करने लगा। ऐसे समय में यह होता है कि पक्ष-प्रतिपक्ष के लोग अवसर देख कर जिससे भी अपनी पुरानी खुन्नस होती है उसे निकालने लगते हैं। शायद यही वजह है कि कई कांग्रेसी भी अर्जुन सिंह के खिलाफ मुखर हो गये कि उनको कुछ बोलना चाहिए। एंडरसन के भागने के वे साक्षी रहे हैं। लेकिन अर्जुन ने तय किया है कि वे चुप रहेंगे। शायद उनका चुप रहना उनकी मजबूरी भी हो क्योंकि आशंका है कि अगर उनका मुंह खुला तो पता नहीं कितनों की बोलती बंद हो जायेगी और किन-किन पर शक की उंगली उठ जायेगी। अर्जुन सिंह तपे-तपाये और मंजे हुए नेता (खिलाड़ी भी कह लें तो उचित होगा) हैं, उन्होंने कच्ची गोटी नहीं खेली कि वे लोगों के कहने पर आ जायें। वे खामोश रहेंगे, ऐसा करना उनकी मजबूरी और नियति भी है। उम्र के इस चौथे चरण में वे क्यों अपनी छीछालेदर कराने लगे। यह जरूर है कि उनकी चुप्पी शक-शुबह को और गहरा व कयासों के बाजार को और गरम कर रही है। वैसे यह जरूर है कि उनकी चुप्पी ने कई दूसरे मुंह खोल दिये हैं और वे इस हादसे और एंडरसन के देश से जाने के बारे में तरह-तरह के राज खोल रहे हैं। परत-दर-परत चीजें खुल रही हैं कि उस वक्त क्या हुआ और कैसे हुआ। हो सकता है ऐसा करना लाजिमी रहा हो लेकिन इस बात को भला वे कैसे आसानी से मान लें जिन्होंने इस त्रासदी में अपना सब कुछ खोया है। उनके अपने तो लौट नहीं सकते पर एक सम्मानजनक न्याय और मदद उनकी टीस, उनकी पीड़ा को कुछ तो कम कर सकती है। यही शासन और समाज की प्राथमिकता होनी चाहिए।

आज चाहे भले ही सब लोग भोपाल के गैस पीड़ितों के लिए दर्द दिखा रहे हों लेकिन उनकी लड़ाई अग किसी ने ईमानदारी से लड़ी तो वे गैर सरकारी संगठन है जो इसके लिए बधाई के पात्र हैं। उन्हें साधुवाद कि इन गरीब और सीधे-सादे लोगों के साथ वे खड़े हुए और उन्होंने इनकी लड़ाई लड़ी जो कायदे से भारत सरकार को लड़नी चाहिए थी। विपक्ष तभी इस बारे में खामोश ही रहा, दुर्घटना के बाद आयी कई सरकारों ने भी शायद इसे उतनी गंभीरत से नहीं लिया जितना लिया जाना चाहिए था। अब अगर सब नींद से जाग गये हैं तो शायद यह उनकी मजबूरी है क्योंकि इस बड़ी त्रासदी से मुंह चुराना उन्हें महंगा पड़ा सकता है। इससे उनके जन समर्थन में फर्क पड़ सकता है जो शायद भविष्य में उनके सत्ता समीकणों को भी बदल सकता है। ऐसा कोई नहीं चाहेगा चाहे वह सत्ता पक्ष हो या प्रतिपक्ष। हम और हर देशवासी भी यही चाहता है कि जिन लोगों ने अंधाधुंध औद्योगिक विकास की कीमत अपनी जान देकर चुकायी है, या जो आज भी उस त्रासदी का दुख भोग रहे हैं, उन्हें न्याय मिले। ऐसी इच्छा गैरवाजिब तो नहीं। सत्ता पक्ष विपक्ष इस त्रासदी पर राजनीति खेलने के बजाय आपसी समझदारी से जितना बन पड़े पीडि़तों की मदद करे। इसमें ही देश और गैस त्रासदी का गम झेल रहे लोगों का भला है।

1 COMMENT

  1. ॥भविष्य़ के लिए एक बोधपाठ ॥
    एक बिलकुल सीधा, सादा सुझाव—रखता हूं।
    (१) अमरिकामें O S H A,{Occupational Safety and Health Authority} एक ऑर्गनायज़ेशन है
    इस संस्थाके प्रावधानों का अध्ययन किया जाए। और सारी सावधानियोंका किसी तीसरी स्वतंत्र संस्थासे —उसका –नियंत्रण करवाया जाए। जिसके अंतर्गत लॉग हो। उसे जांच कर भरा जाए।
    एक कंपनीका कर्मचारी लॉग भरता है, दूसरी कंपनीका उसको दुबारा अलग लॉगमें उसे सत्यापित करे। OSHA के अतिरिक्त और भी संस्थाएं है। ===सिद्धांत==> जो भी स्तर या मानक अमरिकामें लागू होता है, कमसे कम (अधिक हमपर है) उतना तो सोचा जाए, लागु करे,वही मानक या स्तर को अपना ले। इसमें ढिलाई ना चला ले।
    दूसरी संस्था है, F E M A( Federal Emergency Management Authority) वह अकस्मात की घटना होने के बाद त्वरित दौडकर जाती है, और सहायता करती है।संगठित और पहलेसे तैय्यार रहती है। ( किंतु लुइज़ीयाना की बाढके समय उसकी क्षमता कम पडी थी, ऐसा बहुतोंका मानना है।) हमे कोई नये सीरेसे काम करना नहीं है।यह सुझाव एक प्रारंभ के लिए है। आगे और भी सोचा जा सकता है। उपरकी संस्थाएं बहुत बडी है, जिसमे हजारों कर्मचारी और सैंकडो विभाग है।

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