ई-पत्रिकाओं के इतिहास को अभी बमुश्किल पाँच-छ: वर्ष ही हुए हैं। आरंभ में इन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया; बीतते समय के साथ एक नये शब्द का सृजन हुआ – वैकल्पिक मीडिया। अब यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि विश्वसनीयता के लिये वैकल्पिक माध्यमों की ओर ही गंभीरतापूर्वक देखा जाता है।
“प्रवक्ता” के साथ मेरा रिश्ता पुराना है; वह दौर था जब बस्तर में नक्सलवाद अपने चरम पर था और दिल्ली से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में वहाँ की चर्चाएं प्राथमिकता से हुआ करती थीं। तब मुझे महसूस होता था कि क्या एसा कोई मंच मुझे प्राप्त हो सकता है जहाँ निरपेक्षता से मैं अपनी बात रख सकूं। निरपेक्षता शब्द का प्रयोग मैं इसलिये कर रहा हूँ चूंकि ई-माध्यमों में भी आहिस्ता से मठ प्रवेश करने लगे थे। एक ई-पत्रिका के सम्पादक ने तो मेरे आलेख इस तरह प्रकाशित किये कि कभी उसका मूल तेवर अपनी भूमिका लिख कर बदल दिया गया तो कभी मेरे परिचय के साथ छेड़-छाड़ की गयी। इसी दौर में “प्रवक्ता” पर मेरा पहला आलेख प्रकाशित हुआ था “बस्तर में आन्दोलन और आन्दोलनकर्ताओं के सच”।
नक्सलवाद जैसी विभीषिका को आन्दोलन मान चुकी मुख्यधारा की मीडिया के कई स्रोतों से यह आलेख मेरे पास “ना” जवाब के साथ लौट चुका था। “प्रवक्ता” में प्रकाशित होने के पश्चात् इस आलेख को जो प्रतिक्रियाएं प्राप्त हुईं वह मुझे समझाने के लिये पर्याप्त थीं कि अब समय वैकल्पिक मीडिया का है और स्वस्थ मंच अपनी बात सशक्त तथा बिना किसी अनावश्यक हस्तक्षेप के रख पाने का बेहतरीन माध्यम हैं। मुझे यह कहने में गुरेज नहीं कि “प्रवक्ता” में प्रकाशित होने के पश्चात् मेरे भीतर यह आत्मविश्वास पैदा हुआ कि मैं अपनी बात चाहे जितने कठोर शब्दों में कहूं, सर्वाधिक पढा जाने वाला यह ई-मंच मुझे मेरी मौलिकता के साथ प्रस्तुत करेगा। समयपर्यंत मैंने अनेक मंचों से अपनी बात कही, किंतु “प्रवक्ता” मेरे महत्वपूर्ण आलेखों के लिये पहली पसंद बना रहा।
आज मेरी तीन पुस्तकें प्रकाशित हो कर आ गयी हैं तथा अनेकों समाचार पत्रों में संपादकीय पृष्ठ पर जगह मिलने लगी है और इस सब की शुरुआत के लिए अपने मंच “प्रवक्ता” का मैं जिन भी शब्दों में धन्यवाद कहूं, कम ही है।
“प्रवक्ता” के साथ जुडे रह कर मैंने बहुत से निरपेक्ष वाद-विवाद देखे। बहुत कम मंच एसे हैं जिनकी ज्ञात विचारधारा होने के पश्चात् भी वहाँ खुली बहसें होती रही हैं। यह स्वागत योग्य है कि अनेकों वाम विचारकों ने भी अपनी बात रखने का मंच “प्रवक्ता” को बनाया, यहाँ तक कि असहमति वाले अनेक विषयों पर मुखर किंतु संग्रहणीय परिचर्चाएं मुझे यहाँ देखने-पढने को मिली हैं।
“प्रवक्ता” ने वैचारिक छुआछूत का न केवल विरोध ही किया अपितु इसी विषय पर एक खुली चर्चा भी आमंत्रित की थी। यदि इस परिचर्चा के आलेखों और टिप्पणियों का ही ध्यान से प्रेक्षण किया जाये तो यह समझा जा सकता है कि “प्रवक्ता” स्वतंत्र विमर्श का कितना विचारोत्तेजक मंच बन कर सामने आया है। वैकल्पिक मीडिया से आप यही तो उम्मीद करते हैं कि वह सच के प्रस्तुतिकरण में खरा हो तथा निर्भीकता उसका धर्म बने।
प्रवक्ता के योग्य सम्पादक भाई “संजीव कुमार सिन्हा” की भी मैं इस अवसर पर प्रसंशा करना चाहूंगा, चूंकि एक सम्पादक के रूप में उनपर न केवल रचना-चयन का ही दबाव होता है अपितु मुझ जैसे उत्साही लेखक फोन और एसएमएस कर के उनका समय खाने का कोई मौका नहीं छोडते, इस सबके बाद भी पूरी विनम्रता और सहृदयता के साथ वे हमारे सुझावों और आलेखों को यथायोग्य स्थान देते रहते हैं।
एक लेखक के रूप में प्रवक्ता मेरे आरंभिक मंचों में रहा है तथा हमेशा मेरी प्राथमिकता में बना रहेगा। “प्रवक्ता” का लेखक होना मेरे लिये गर्व का विषय है। इस मंच की प्रगति के लिये तथा पाँच वर्ष पूरा होने के अवसर पर “प्रवक्ता” की पूरी टीम को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।