ज्वलंत मुद्दों पर बहस है ‘प्रवक्‍ता’ की खासियत

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प्रिय संजीव जी, 

नमस्कार! 

पांच वर्ष पूर्व ‘प्रवक्ता’ के रूप में आपने जो वैचारिक अंकुर लगाए थे वह अब वृक्ष का आकार लेने लगा है। ‘प्रवक्ता’ आज जिस मुकाम पर है वह वाकई में एक मिसाल है।

पिछले दो दशकों में पत्रकारिता की दुनिया काफी बदल गयी है। वर्तमान में मीडिया का जो स्वरूप दिखायी दे रहा है वह निश्चित तौर पर पूर्ववर्ती युग से अतुलनीय है। बीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध सूचनाक्रांति के क्षेत्र में विशेष परिवर्तनों वाला रहा। मीडिया में यह बदलाव सिर्फ तकनीकी स्तर पर ही नहीं है बल्कि उसके मूल्यों एवं कार्यशैली में भी है। आज का मीडिया अपने परंपरागत मूल्यों को त्याग चुका है। इसमें आम आदमी की समस्या और संघर्ष दिखाई नहीं देता है। पत्रकारिता की मिशनरी भावना पर बाजारबाद हावी हो गया है। अखबारों के प्रसार और मुनाफे में लगातार वृद्धि हो रही है लेकिन खबरों और विचारों में निरंतर गिरावट आ रही है। एक पेशे के रूप में पत्रकारिता की विश्वसनीयता और उसकी सामाजिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठने लगे हैं। देश भर की पत्रकारिता की कमोबेश यही स्थिति है।

pravaktaमीडिया के व्यावसायिक दृष्टिकोण ने उसे आम आदमी के प्रति उदासीन बना दिया है। आमलोगों की समस्याओं और जरूरतों के लिए मीडिया में जगह और सहानुभूति दिखलाई नहीं देती है। अखबारों में जन मुद्दों पर सार्थक और स्वस्थ बहस नहीं छिड़ती। अखबारों के मालिक प्रेस की आज़ादी के नाम पर अपनी शक्ति बढ़ाने, व्यवसायिक हित साधने और राजनीतिक में भागीदारी बढाने में लगे हैं। पत्रकारिता कस्बे से लेकर शहरों और राजधानी तक लोगों को दलाली का लाइसेंस देती है। न्यूज चैनलों का हाल और निराशाजनक है। कुल मिलाकर मुख्यधारा की पत्रकारिता से मोहभंग की स्थिति है। ऐसे लोगों के लिए जो गंभीर पत्रकारिता या संजीदगी की पत्रकारिता करना चाहते हैं उनके लिए वेब पत्रकारिता एक विकल्प के रूप में उभरा है। अखबार या टीवी के मुकाबले यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ज्यादा है। बड़ी संख्या में लोग इससे जुड़ रहे हैं। इस माध्यम से व्यवस्था के विरूद्ध स्वर भी सुनाई देता है। वेब पत्रकारिता का निरंतर विकास हो रहा है। वेब पत्रिकाओं की संख्या बढ़ रही है लेकिन कंटेट के लिहाज से एक सामान्य किस्म का खालीपन यहां भी दिखाई देता है। कुछ पत्रिकाओं ने अपने सीमित संसाधनों के बावजूद इस गैप को भरने करने की कोशिश है, ‘प्रवक्ता’ उन्हीं में एक है। यह ऐसा मंच है जहां पाठक और लेखक संयुक्त रूप से बिना किसी पूर्वग्रह के चिंतन, मनन और लेखन करते नजर आएंगे। यहां समय-समय पर ज्वलंत मुद्दों पर बहसें भी होती हैं। चाहे वह आरक्षण का मामला हो, नक्सलवाद का मामला हो, भ्रष्टाचार की बात हो या फिर न्यायालयों में भारतीय भाषाओं को हक देने की बात प्रवक्ता कभी चुप नहीं रहा। यही सोच प्रवक्ता को अन्य पत्रिकाओं से अलग करती है। निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता के जरिए ‘प्रवक्ता’ लोगों की आवाज बनता जा रहा है। कोई यह नहीं कह सकता है कि ‘प्रवक्ता’ किसी खास विचारधारा वाली पत्रिका है।

व्यक्तिगत रूप से कहूं तो ‘प्रवक्ता’ से जुड़े दो वर्ष से ज्यादा हो गये। बीमारी की वजह से सक्रिय पत्रकारिता छूट गयी थी। शारीरिक पीड़ा और मानसिक तनाव की वजह से लिखने का उत्साह नहीं बचा था। उन्हीं दिनों बन्धुवर आशीष झा ने लेखन कार्य दोबारा शुरू करने और ‘ईसमाद’ से जुड़ने का आग्रह किया। आशीष बेहद आत्मीय और मेरे बारे में हार्दिक रूप से सोचनेवालों में रहे हैं। उनके आग्रह को टाल पाना मेरे लिए संभव नहीं था। ‘ईसमाद’ से जुड़ने के बाद अन्य वेब पत्रिकाओं पर नजर पड़ी। ‘प्रवक्ता’ कुछ अलग लगा। फिर ‘प्रवक्ता’ में लिखने का निश्चिय किया और अपनी रचनाएं भेजनी शुरू की। यह सिलसिला अनवरत जारी है। प्रवक्ता के रूप में मुझे एक ऐसा मंच मिला है जहां मैं अपनी भावनाओं को बेहिचक रख सकता हूं।

‘प्रवक्ता’ के पांच वर्ष पूरे होने पर आपको और आपकी पूरी टीम को हार्दिक बधाई। एक अलग किस्म की पत्रिका को चलाने के लिए जो जुनूं होना चाहिए वह आप में है। जिस सोच के साथ आप आगे बढ़ रहे हैं उस पर भविष्य भी कायम रहें। मुझे पूरा विश्वास है कि आनेवाले दिनों में यह नयी ऊँचाइयों को छूएगा और वेब पत्रकारिता के क्षेत्र में अद्वितीय स्थान बना लेगा।

सादर, 

हिमकर श्याम

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