‘प्रवक्ता डॉट कॉम’ और ‘डॉ. मधुसूदन’ एकाकार हो गए हैं। पर्याय जैसे। जहां कहीं भी ‘प्रवक्ता’ की चर्चा चलती है तो सबसे अधिक अमेरिका में रहनेवाले प्रवक्ता के नियमित लेखक डॉ. मधुसूदनजी के लेखों के बारे में बात होती है। उनका स्वदेश प्रेम, भारतीयता में अटूट आस्था, हिंदी और संस्कृत के पक्ष में खड़ा होना…यह सब उन्हें विशेष बनाता है। वे ऐसी शख्सियत हैं जिनके जीवन और लेखन में कोई अन्तर्विरोध नहीं है। हम यहां उनका विचारशील संस्मरण प्रकाशित कर रहे हैं (सं.)
(१) “अमानी मानदो मान्यो……”
प्रवक्ता के संचालक मण्डल का नेतृत्व प्रशंसनीय है। मुझे उसमें स्व. दत्तोपंत ठेंगडी़ लिखित नेतृत्व के गुणों का प्रमाण मिलता है।
दत्तोपन्तजी के विशाल और गहन अध्ययन का भी यह प्रमाण मुझे उनके प्रति अभिभूत कर गया था। उनके बौद्धिकों में भी सुना हुआ स्मरण है। संघ प्रभावित संस्थाओं में जो एक पारिवारिक भाव प्रतीत होता है, उसका कारण भी मैं यही मानता हूँ। यही पारिवारिक भाव हज़ारों मिल के अंतर पर भी अक्षुण्ण बना हुआ है।
विशेष रूप से दत्तोपंतजी ने जब विष्णु सहस्र नामों का उल्लेख कर सफल नेतृत्व के गुण निकालकर दिखाये थे। संक्षेप में, वे कहते हैं,
कि, जो अमानी है, अर्थात जिसे स्वयं के सम्मान की चिंता नहीं है; और जो दूसरों का सम्मान करता है, स्वयं पीछे ही रहता है; और इसी कारण सर्वमान्य हो जाता है। यह है, नैतिक नेतृत्व (लोकस्वामी) की व्याख्या। कुशल संगठक में भी इन्हीं गुणों को आप देखेंगे। यह विष्णु भगवान के नामों के अर्थों से ही निःसृत होता है।
अमानी, मानदो, मान्यो, लोकस्वामी, त्रिलोकधृक्॥
(२) विष्णु सहस्र नाम:
विष्णु के सहस्र नामों में ७४७, ७४८, ७४९, और ७५०, वे क्रम पर ये चारों नाम आते हैं।
अमानी, मानदो, मान्यो, लोकस्वामी, त्रिलोकधृक्॥
७४७->अमानी — जो अमानी है,स्वयं सम्मान नहीं चाहता; जिसे स्वयं के सम्मान की चिंता नहीं है।
७४८->मानदो—-जो दूसरों का सम्मान करता है, स्वयं पीछे ही रहता है।
७४९->मान्यो—-इसी कारण सर्वमान्य होता है।
७५०->लोकस्वामी—यही नैतिक नेतृत्व (लोकस्वामी) की व्याख्या है।
७५१-> त्रिलोकधृक—त्रिलोक का स्वामी (विष्णु) ऐसा ही होता है।
विष्णु सहस्र नामों के पीछे भी कैसा तर्क होता है, यह जानकर भी आप हर्षित होंगे।
(३) आदर्श नेतृत्व
दत्तोपन्त ठेंगडी़ जी “आदर्श नेतृत्व” में इन गुणों का स्थान मानते हैं। उन्हीं के लिखित आलेख में, पढकर बहुत चकित हुआ था।
मुझे लगता है कि प्रवक्ता की सफलता में संचालक मण्डल के ऐसे गुण ही कारण है। यह सफलता “झट मँगनी पट ब्याह” नहीं है।
जिस किसी को भी सफल नेतृत्व करना है, उसे इन गुणों से लाभ ही होगा। पर, यह कोई इन्द्रजाल नहीं; यह, मनसा-वाचा-कर्मणा व्यवहार ही है। इसमें दूसरे को फँसाकर अपना उल्लू सीधा करने की भी बात नहीं है। ऐसा नेतृत्व मैं ने संघ से प्रभावित अन्य संस्थाओं में भी अनुभव किया है।
अन्य पॉलिटिकल संस्था वालों को प्रवक्ता का यह व्यवहार चकित करता ही होगा। वे अपने जैसा ही प्रवक्ता को मान कर चले होंगे।
बाकी विचारधाराएं, बहस करते समय भी सामने वाले का तमस जगाने का ही प्रयास करती है। ये लोग वकालत करते हैं, सत्य की खोज नहीं।
(४) प्रवक्ता का जन्म
जब सामान्य शिक्षित को भी, बहुसंख्य समाचार-माध्यम, पारदर्शी रूप से बिके हुए प्रतीत होते थे; ऐसे विकट और निर्णायक काल-खण्ड में, “स्वस्थ बहस” को उजागर करते हुए, सत्य का “प्रवक्ता” सामने आया। पर जब प्रवक्ता में लिखने का मैंने निश्चय किया तो प्रारंभ में, मित्रों के दूरभाष आते, और हिंदी में लिखने के बदले अंग्रेज़ी में लिखने का परामर्श देते, और तर्क देते, कहते,कि कौन तुम्हें पढेगा? पर मुझे जब हिंदी का ही पुरस्कार करना था, तो उसे अंग्रेज़ी में कैसे किया जा सकता था।
पर फिर भी, जब प्रवक्ता में लिखने का निश्चय किया, तो; इसे ईश्वर प्रदत्त अवसर मानकर मुझे भी फॉन्ट से ही, श्री गणेश करना पडा। संस्कृत के माध्यम से हिंदी का भी कुछ अध्ययन करना पडा। ऐसा नहीं कि मैं, तनिक भी हिन्दी नहीं जानता था। पर हिंदी की वर्तनी और लिंग गुजराती और मराठी से अलग होते हैं, इस लिए अनेक बार शब्द-कोश के पन्नों को पलटाना पडा। वैसे मेरी लिंग और वर्तनी की गलतियाँ आज भी होती है। शिष्टाचार के कारण पाठक बताते नहीं है। पर संस्कृत का आश्रय लेकर ही मैं लिख सकता था, गुजराती जो ठहरा।
अंतमें, व्यथित करनेवाला एक प्रसंग मुझे स्मरण है, जब युवा लेखक, पंकज झा ने अपने आप को ’प्रवक्ता’ से अलग कर लिया था। प्रवक्ता भी व्यथा अनुभव कर रहा था, और पंकज भी। जब राम अयोध्या छोडकर वनवास गए, तो अयोध्या भी दुःखी थी, राम भी दुःखी थे।
अंत में कहना चाहता हूँ, कि प्रवक्ता की विजय स्वस्थ बहस की विजय है। सुसंवाद की वाद-विवाद पर विजय है। समन्वयवाद की वर्चस्ववाद पर विजय है। बिकी हुयी समाचार संस्थाओं की मृगमरीचिकाओं में प्रवक्ता एक गंगा है।
क्षितिज पर आशा की, किरणें दिखाई दे रही है,सुनो, दुंदुभि भी बज रही है।
अब चूकने का अवसर नहीं है।
प्रवक्ता आप सफलता के शिखर चढो, हम आप के साथ हैं।
पाँच वर्ष पूरे करने पर संचालकों का अभिनन्दन।
इ मेल से आया संदेश, बिना किसी काट छाट, प्रस्तुत है।
मित्रों मेरी कमियोंका ज्ञान भी मुझे है।
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“आदरणीय विद्वद्वर मधुसूदन जी,
प्रवक्ता का “अमानी” नेतृत्व आलेख पढ़ा । आपके मनस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी व्यक्तित्व तथा कृतित्व के सम्बन्ध में सम्पादक महोदय के आकलन से मैं हर्षित भी हुई और गर्वित भी । प्रवक्ता ने आपको सम्मानित करके अपना ही गौरव बढ़ाया है ।हिमाचल का निमन्त्रण भी इसी का परिचायक है । “अमानी”होकर ही आप मानदो और मान्य – इन दोनों विशेषणों के अधिकारी पात्र बन जाते हैं । आपके वैदुष्य और निरभिमानता को मेरा सादर नमन ।
सत्य ही कहा गया है – विद्या ददाति विनयम् , विनयात् याति पात्रताम् ।
आप जिस अभियान में सक्रिय हैं , उसमें सफलता के लिये आप जैसे कर्मठ और दृढ़संकल्पी व्यक्तियों का
नेतृत्व ही हमारा मार्ग प्रशस्त करेगा – ऐसा मेरा विश्वास है ।
शुभकामनाओं सहित सादर,
शकुन्तला बहन”