निःस्वार्थ और अव्यावसायिक संकल्प को सफलता के साथ बनाए रखा ‘प्रवक्‍ता’ ने

pravaktaशब्द मानवीय उद्विकास के महानतम अनुसंधान हैं। परिवार से लेकर समाज तक और कला से लेकर विज्ञान तक मानवता के भव्य महल की प्रत्येक दीवार की नींव में शब्दों की ही ईंट रखी है जिसने मानव मन के अनंत विचारों को अभिव्यक्ति का आधार दिया। यदि अभिव्यक्ति न होती तो निःसन्देह कोई भी विचार कभी मूर्तरूप न लेता। हम ध्यान दें तो स्पष्ट है कि मानवता का विकास भाषा के विकास के समानान्तर ही रहा है, जिस सभ्यता की भाषा जितनी अधिक विकसित व वैयाकरणिक रही वह सभ्यता उतनी ही अधिक विकसित और उन्नत रही। इस सन्दर्भ में संस्कृत और उसकी पुत्री-भाषाओं की अपनी विरासत को देखते हुये हमारे पास एक सुदीर्घ अतीत गर्व करने के लिए है, और निश्चय ही वर्तमान भी क्योंकि हजारों वर्षों के बाद भी हमारी भाषाएँ हमारे साथ उतने ही वैज्ञानिक रूप में बची हुयी हैं जबकि लैटिन व ग्रीक जैसी भाषाएँ लुप्तप्राय हो गईं।

ब्लॉगिंग के क्षेत्र में मैंने लगभग 2 साल पहले पदार्पण किया था। एक प्रश्न मन में था कि अपने लेखों की मुख्य भाषा किसे बनाया जाए, हिन्दी अथवा अंग्रेजी.! निर्णय मैंने स्वाभाविक रूप से हिन्दी के पक्ष में ही लिया इस तर्क के साथ कि विकास मातृभाषा में जितना स्वाभाविक होता है उतना अन्य किसी भाषा में संभव ही नहीं है। मौलिक अभिव्यक्ति स्वाभाविक स्वरूप में ही सबसे सुन्दर होती है। मौलिकता और स्वाभाविकता की सफलता के इसी तर्क को “प्रवक्ता डॉट कॉम” ने स्पष्ट, साकार और प्रमाणित किया है।

प्रवक्ता का इंटरनेट की दुनिया में पदार्पण एक ऐसे समय में हुआ जब इंटरनेट पर हिन्दी लेखन का बीज सही से अंकुरित भी नहीं हुआ था। प्रारम्भ में आम लोग इंटरनेट से इसलिए भय खाते थे क्योंकि इंटरनेट का अर्थ ही लगता था इंग्लिश का भारी-भरकम चिट्ठा.! इस मिथक को तोड़ा गया, इंटरनेट को प्रत्येक साधारण भारतीय की अभिव्यक्ति, संपर्क और ज्ञानार्जन का एक मंच बना दिया गया। निश्चित रूप से यह समय और बाज़ार की मांग थी लेकिन इसे किस स्वरूप में आकार दिया जाए इसमें उन लोगों के योगदान का विशेष महत्व है जिन्होंने शुरुआती दौर में इस आभासी संसार में देवनागरी के सुघढ़ सुडौल अक्षरों को स्थापित करना प्रारम्भ किया था। श्रेय के इन भागीदारों की प्रथम पंक्ति में एक नाम “प्रवक्ता डॉट कॉम” भी आता है इसके लिए टीम प्रवक्ता और संजीव भाई न केवल हम सबकी ओर से धन्यवाद के पात्र हैं वरन् हम हृदय से इनका आभार भी व्यक्त करते हैं।

विषय केवल भाषा की मौलिकता का ही नहीं है, विषय विचारों की मौलिकता का भी है। “प्रवक्ता” भारतीय भाषा में उन विचारों का एक मंच है जो मौलिक रूप से भारतीय हैं न कि आयातित.! और यह भारतीय बहुलता बिलकुल स्वाभाविक है यदि आप वैचारिक संकीर्णता के कारण विचारधारा के आधार पर अपने दरवाजे बंद न करें। हिन्दी लेखन के आज और भी कई मंच हैं लेकिन “प्रवक्ता” की पहचान सबसे अलग इसलिए भी है क्योंकि यहाँ जिस तरह के लेखकों का जमावड़ा है वो विशेष है। या यूं कहें कि “प्रवक्ता” वाकई लेखकों का जमावड़ा है। संख्या इतनी अधिक है कि मैं कुछ का नाम लूँ और कुछ का छूट जाए तो भी उचित नहीं होगा।

“प्रवक्ता” के लेखों को फेसबुक आदि माध्यमों से मिलने वाली लिंक से मैंने पहले भी पढ़ा था लेकिन इससे एक लेखक के रूप में जुडने का अवसर एक अलग संयोग रहा। संजीव भाई ने मेरे लेखों को मेरे ब्लॉग पर पढ़ा और एक कमेंट में मुझसे सम्पर्क करने को कहा। प्रायः मैं ऐसी प्रतिक्रियाओं को हमेशा गंभीरता से नहीं लेता था किन्तु संजीव भाई की प्रतिक्रिया के बाद मैंने संजीव भाई को मेल किया और “प्रवक्ता” के वरिष्ठ लेखकों के मध्य एक कनिष्ठ लेखक के रूप में उपस्थित हो गया, साथ ही संजीव भाई जैसे एक सरल, समर्पित व जुझारू व्यक्ति से जुडने का अवसर भी मिला।

“प्रवक्ता डॉट कॉम” अपने योग्य लेखकों के साथ सफलता और लोकप्रियता के पाँच वर्ष पूरे कर रही है। पाँच वर्षों की समयावधि में “प्रवक्ता” ने राष्ट्रभाषा और राष्ट्र की जो वैचारिक सेवा की है और साथ ही कई लेखकों को एक दूसरे से जो जोड़ने का कार्य किया है वह स्वयं में “प्रवक्ता” के लिए सबसे अमूल्य पुरस्कार है। निःस्वार्थ और अव्यावसायिक संकल्प को सफलता के साथ बनाए रखना एक अद्भुत उपलब्धि है और मुझे ये कहने में किंचित मात्र भी संकोच नहीं होगा कि यह उपलब्धि संजीव जी जैसे निःस्वार्थ और समर्पित व्यक्ति के रहते ही संभव हो सकती है। संजीव भाई का यही गुण मुझे इतने कम समय में उनके इतना निकट ले जाने में सक्षम हुआ। वैचारिक अनुसंधान व राष्ट्रसेवा की यह यात्रा नित्य नए आयाम छुये ऐसी हृदय से शुभाकांक्षा है और प्रवक्ता की पूरी टीम को सफल पाँच वर्ष की स्वर्णिम उपलब्धि पर हार्दिक बधाई व धन्यवाद है।

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