संस्मरण – ३ : मानवता अभी मरी नहीं है / विपिन किशोर सिन्हा

संस्मरण-१ : मानवता अभी मरी नहीं है 

संस्मरण-२ : मानवता अभी मरी नहीं है 

अब तक आशा काफी सहज हो चुकी थी। मैंने उससे उसके गांव का नाम पूछा। उसने बताया कि वह अपने गांव नहीं जाएगी। वहां उसका कोई नहीं है। वह शहरी महिला भी ढूंढ़ते-ढूंढ़ते वहां पहुंच सकती है। उसने अपनी बुआ के पास जाने की इच्छा प्रकट की, जो हाज़ीपुर से मात्र एक किलोमीटर दूर ‘खोदा’ गांव में रहती थी। उसने अपने फ़ूफ़ा का नाम अर्जुन पासवान बताया। सामने की बर्थ पर एक युवक बड़े ध्यान से आशा, हुसेन और मेरी बातें सुन रहा था। अपना नाम उसने अशोक बताया। उसने मुझे संबोधित किया –

:”अंकलजी। आप परेशान न हों। मैं इस लड़की को इसकी बुआ के पास पहुंचा दूंगा। मैं भी हाज़ीपुर ही जा रहा हूं। खोद गांव के पास ही मेरा भी गांव है। मुझे खोदा होकर ही अपने गांव जाना पड़ता है। इसकी बुआ के घर छोड़ने में मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी।”

“हम आपका पूरा परिचय जानना चाहते हैं। अज़नबी पर विश्वास करने की बहुत बड़ी सज़ा भुगत चुकी है यह लड़की,” मैंने अपनी शंका स्पष्ट शब्दों में व्यक्त की।

“मेरा नाम अशोक सिंह है। मैं दिल्ली में रहता हूं और रेलवे में काम करता हूं। होली मनाने मैं घर जा रहा हूं। मेरी छोटी बहन इस लड़की की उम्र की है। इसकी आपबीती सुन मुझसे रहा नहीं गया। इसलिए मैंने इसके घर पहुंचाने में आपलोगों की मदद की पेशकश की है। अशोक ने अपना परिचय-पत्र भी मुझे दिखाया। पास बैठे टिकट परीक्षक ने उसका परिचय-पत्र ध्यान से देखा और यह प्रमाणित किया कि वह सही परिचय पत्र था। मैंने परीक्षक महोदय से आग्रह किया कि उन्हें हाज़ीपुर तक तो वैसे ही जाना है, अशोक के साथ वे भी आशा की बुआ के पास जाने का कष्ट करें। उसे उसकी बुआ को सौंपकर ही वे अपने घर जाएं। मेरे इस आग्रह को टिकट निरीक्षक ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। मैंने आशा का पूर्ण विवरण एक कागज पर लिखकर उसके थैले में रख दिया। मुहम्मद हुसेन ने आशा को सकुशल घर पहुंचाने के लिए पांच सौ रुपए का एक नोट अशोक की ज़ेब में रख दिया। अशोक ने वह नोट वापस करते हुए कहा –

“हुसेन जी! आपको यह लड़की अपनी बेटी लगती है और मुझे अपनी बहन। ईश्वर की दया से मैं रेलवे में नौकरी करता हूं। मेरे पास पर्याप्त पैसे हैं। मुझे इसे इसके घर तक पहुंचाने में न तो कोई अतिरिक्त यात्रा करनी होगी और न कोई अतिरिक्त पैसा ही खर्च करना होगा। मेरा मोबाईल नंबर आपलोग नोट कर लें और मुझे भी अपना नंबर दे दें। मैं इसे इसकी बुआ को सौंपकर आप दोनों से इसकी बात कराऊंगा। यह ट्रेन चार बजे हाज़ीपुर पहुंचेगी। मैं पांच बजे इसके गांव पहुंचूंगा।”

मुहम्मद हुसेन ने अपना नोट वापस ले लिया। अपना पर्स खोला और उसमें से पांच सौ का एक और नोट निकाला। दोनों नोटों को एकसाथ हाथ में लेकर बराबर किया, फिर आशा के हाथ में सौंपते हुए बोला –

“बेटी! कुछ ही देर में यह ट्रेन भाटपार रानी पहुंच जाएगी। मैं तुमसे रुखसत हो जाऊंगा। मेरा आशीर्वाद समझ कर ये पैसे रख लो। वक्त-जरुरत पर काम आएंगे।”

आशा पैसे नहीं ले रही थी। मेरे समझाने पर उसने पैसे लिए और अपने थैले में रख लिए।

ट्रेन अपनी पूरी गति से चल रही थी। कई स्टेशनों को पार कर वह भाटपार रानी पहुंच ही गई। मुहम्मद हुसेन ने आशा के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिए और आंसू पोछते हुए ट्रेन से उतर गया। वह बार-बार कातर नेत्रों से मेरी ओर देख रहा था। मैंने आंखों ही आंखों में उसे विश्वास दिलाया कि ईश्वर की दया से लड़की अपने घर सुरक्षित पहुंच जाएगी। दो मिनट के बाद ट्रेन चल दी। हुसेन गीली आंखों से ट्रेन को निहारता रहा। एक घंटे के बाद ट्रेन मेरे स्टेशन दुरौन्धा पहुंची। आशा को अशोक और टिकट परीक्षक को सौंपकर मैं भी ट्रेन से उतर गया। आशा का प्यारा चेहरा आंखों से हटने का नाम नहीं ले रहा था। पता नहीं, उसमें कौन सा आकर्षण था कि कूपे के सभी यात्री उससे बंध से गए थे। शायद यह मानवता का दृढ़ बन्धन था जो उचित महौल मिलने पर और मज़बूत हो गया था।

दिनांक ७, मार्च, २०१२। समय शाम पांच बजे। मेरे मोबाईल की घंटी बजती है। उसपर अशोक का नाम उभरता है। मैं इसी की प्रतीक्षा कर रहा था। लपककर मोबाईल उठाता हूं। उधर से अशोक की आवाज़ आती है – “आशा सुरक्षित अपनी बुआ के पास पहुंच गई है। अपनी बुआ से मिलकर काफी खुश है। लीजिए उसीसे बात कीजिए।”

आशा ने बात की। उसने अशोक के कथन की पुष्टि की। टिकट परीक्षक महोदय ने भी आशा के उसके घर पहुंचने पर अपनी खुशी प्रकट की। आशा की बुआ ने भी मुझसे बात की। मेरे सिर से टनों बोझ एक क्षण में उतर गया। दिल से एक आवाज़ आई –

मानवता अभी मरी नहीं है।

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