पूर्ववर्ती राष्ट्रपतीय चुनावों के कुछ संस्मरण / लालकृष्‍ण आडवाणी

लालकृष्ण आडवाणी

मेरा पिछला ब्लॉग चौदहवें राष्ट्रपतीय चुनाव के विषय में था। इस चुनाव में दो प्रमुख प्रतिद्वन्द्वियों, सरकारी पक्ष के प्रणव मुखर्जी और विपक्ष के प्रत्याशी पूर्णो संगमा ने गत् सप्ताह अपने नामांकन पत्र भर दिए हैं।

पूर्ववर्ती चुनावों का संक्षिप्त इतिहास बताते हुए मैंने इंगित किया था कि पूर्व के तेरह चुनावों में 1977 ही एकमात्र ऐसा अवसर था जब राष्ट्रपति निर्विरोध चुना गया।

मैं इस ब्लॉग में 1977 की कुछ यादें ताजा कर रहा हूं जो 19 महीने के आपातकाल के बाद की है; इस आपातकाल के दौरान राष्ट्र को नागरिक स्वतंत्रताओं का निर्दयी दमन देखना पड़ा जैसाकि ब्रिटिश शासन में भी नहीं देखने को मिला था।

स्वतंत्रता के बाद से यह पहला अवसर था जब कांग्रेस पार्टी नई दिल्ली की सत्ता गवां चुकी थी। 1977 के लोकसभाई चुनावों में कांग्रेस की पराजय पूर्णतया अप्रत्याशित थी। आपातकाल में हुई ज्यादतियों से मतदाता इतने गुस्से में थे कि उत्तरी भारत के बहुत बड़े हिस्से में कांग्रेस का सफाया हो गया था।

पंजाब (13), हरियाणा (9), हिमाचल (4), दिल्ली (7), चंडीगढ़ (1), उत्तर प्रदेश (85) और बिहार (54) की कुल 173 लोकसभाई सीटों में से कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली! मध्यप्रदेश (38) और राजस्थान (25) की कुल 63 सीटों में से कांग्रेस को मात्र 2 सीटें (दोनों प्रदेशों में से एक-एक) प्राप्त हो सकीं।

वह पहला अवसर था जब हम जनसंघ के सदस्य केंद्रीय सरकार में मंत्री बने। सरकार का नेतृत्व श्री मोरारजी देसाई कर रहे थे।

26 जून, 1975 को जिस दिन आपातकाल थोपा गया उस दिन मैं और अटलजी दल बदल विरोधी कानून के बारे में संसदीय समिति की बैठक में भाग लेने हेतु बंगलौर गए हुए थे।

जब 25/26 जून की रात्रि को हजारों की गिरफ्तारियां हो रही थीं (इनमें लोकनायक जयप्रकाश नारायण, श्री मोरारजी देसाई और श्री चन्द्रशेखर शामिल थे), तब अटलजी, मधु दण्डवतेजी, श्याम नन्दन मिश्राजी और मैं, जो बंगलौर में संसदीय समिति की बैठक हेतु आए थे, को 26 जून की सुबह बंगलौर में ही गिरफ्तार कर लिया गया।

आपातकाल के ढाई महीने हमें रोहतक जेल भेजा गया, सिवाय इसके हमारा अधिकांश बंदीकाल बंगलौर सेंट्रल जेल में रहा।

बंगलौर में बंदी के रुप में हमारे वकील के रुप में श्री रामा जायॅस और श्री संतोष हेगड़े थे (दोनों ही बाद में उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश बने)। बाद में, जब हमारी औपचारिक नजरबंदी याचिका कर्नाटक उच्च न्यायालय में विचारार्थ हेतु आई तब हमारी ओर से श्री एम.सी. छागला, श्री शांति भूषण और श्री वेणु गोपाल जैसी प्रमुख विधिक हस्तियों ने केस लड़ा।

‘आर्गनाइज़र‘ में पत्रकार के रुप में काम करते हुए ही मोरारजीभाई, चन्द्रशेखरजी और डा. लोहिया जैसे वरिष्ठ राजनीतिक नेताओं से मेरा संबंध 1970 में संसद में आने से पहले ही बन चुका था। अत:, जब श्री देसाई ने मुझे अपने मंत्रिमण्डल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया, तो अक्सर वह मुझसे मेरे मंत्रालयों से इतर विषयों पर भी अनौपचारिक रुप से विचार-विमर्श कर लेते थे।

मुझे स्मरण आता है कि उनकी सरकार के शुरुआती दिनों में ही एक बार उन्होंने मुझसे पूछा, ”तुम्हें क्या लगता है कि देश का नया राष्ट्रपति कौन होना चाहिए?”

जब मोरारजीभाई ने देश के राष्ट्रपति के बारे में मेरा मत पूछा तो बंगलौर से मेरा इतना लगाव हो गया था कि प्रधानमंत्री को मेरा स्वाभाविक जवाब था: क्यों नहीं न्यायाधीश श्री के.एस. हेगड़े, जिनकी वरिष्ठता की पीछे कर श्रीमती गांधी ने एक कनिष्ठ न्यायाधीश श्री ए.एन. रे को पदोन्नत कर दिया था। जब श्री रे मुख्य न्यायाधीश थे तभी सर्वोच्च न्यायालय ने अनेक उच्च न्यायालयों द्वारा मीसा बंदियों के पक्ष में दिए गए फैसलों को रद्द कर दिया था। न्यायाधीश श्री एच.आर. खन्ना सर्वोच्च न्यायालय की पीठ में एकमात्र न्यायाधीश थे जिन्होंने इस फैसले के विरुध्द अपनी असहमति दर्ज कराई थी।

मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि मोरारजीभाई मेरे मत से सहमत थे। लेकिन उन्होंने कहा कि संजीव रेड्डी यह मानते हैं कि 1969 में कांग्रेस संसदीय बोर्ड द्वारा उन्हें राष्ट्रपति पद का अधिकृत प्रत्याशी चुना गया था, परन्तु कांग्रेस की ही नेता और प्रधानमंत्री द्वारा उन्हें इस पद से वंचित कर एक स्वतंत्र प्रत्याशी श्री वी.वी. गिरी को समर्थन देने में कोई गुरेज नहीं हुई। मोरारजीभाई के निर्णय की न्यायसंगतता को मैं समझ सकता हूं। अत: श्री रेड्डी तब राष्ट्रपति बने और न्यायाधीश हेगडे लोकसभा के स्पीकर।

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पूर्ववर्ती अधिकांश राष्ट्रपतीय चुनाव संसद सत्र के चलते सम्पन्न हुए।

मुझे याद है कि 1974 में छठे राष्ट्रपति चुनाव के दौरान सभी विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों की बैठक बुलाई गई ताकि विचार और निर्णय हो सके कि कांग्रेस के प्रत्याशी फखरूद्दीन अली अहमद के विरोध में एक सर्वमान्य विपक्ष का प्रत्याशी कौन हो। मैं इस बैठक में जनसंघ की तरफ से शामिल था। संक्षिप्त विचार-विमर्श के पश्चात् रिव्यूलेशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आर.एस.पी.) के श्री त्रिदीब चौधरी के नाम पर सहमति हुई।

त्रिदीबजी के साथ राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जहां जनसंघ के अधिकाधिक में विधायक थे, में साथ जाने का मुझे स्मरण हो आ रहा है। इन राज्यों में रेल यात्रा के दौरान त्रिदीबजी ने मुझे कहा कि उनके अन्य वामपंथी साथी साधारणतया आर.एस.एस. (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) और जनसंघ के प्रति पूर्वाग्रह रखते हैं, लेकिन वह सदैव आर.एस.एस. को आदर से देखते हैं। एक स्कूली छात्र होने के नाते उन्होंने डॉक्टर हेडगेवार को अक्सर कलकत्ता में अनुशीलन समिति की बैठकों में भाग लेते देखा, जो अंग्रेजों के विरूध्द एक भूमिगत क्रांतिकारी संस्था थी। इस प्रकार की बातचीत हमारे पार्टी सहयोगियों को शिक्षित करने में काफी उपयोगी सिध्द हुई कि देशभक्ति-विभिन्न वैचारिक तत्वों को भी एक डोर में बांधने का शक्तिशाली बंधन हो सकती है।

सन् 1977 में आपातकाल के तुरंत बाद होने वाले सातवें राष्ट्रपतीय चुनाव में कांग्रेस इतनी हतोत्साहित थी कि वह कोई प्रत्याशी तक खड़ा नहीं कर पाई, अत: संजीव रेड्डी निर्विरोध चुने गए।

1974 में विपक्ष के एक सर्वमान्य प्रत्याशी के सम्बन्ध में जनसंघ द्वारा अपनाया गया दृष्टिकोण 1982 में भी दोहराया गया।

विपक्षी दलों के प्रतिनिधियों की प्राथमिक बैठक में यह सुझाया गया कि कांग्रेस पार्टी के ज्ञानी जैल सिंह के मुकाबले किसी वरिष्ठ सांसद के नाम पर विचार किया जाए।

जब किसी ने श्री हीरेन मुखर्जी का नाम लिया तो मैं सबसे पहला था जिसने इस पर तुरंत सहमति दी।

संसद की प्रेस दीर्घा में अक्सर जाने वाले पत्रकार के रूप में सदैव मेरा मानना रहा कि पहली लोक सभा (1952-57) में जो दो सर्वाधिक श्रेष्ठ वक्ता थे वे दो मुखर्जी ही थे – श्यामा प्रसाद और हीरेन। मैं जानता हूं कि दोनों एक-दूसरे का काफी सम्मान करते थे।

अत: इस बैठक में, श्री हीरेन मुखर्जी का नाम सर्वसम्मति से तय हुआ।

दो दिन बाद, सीपीआई के प्रतिनिधि ने बताया कि हीरेन दा का नाम किसी प्रकार मतदाता सूची में दर्ज नहीं है, अत: एक नए नाम पर विचार करने के लिए विपक्ष की बैठक बुलानी पड़ेगी।

उक्त बैठक विधिवत सम्पन्न हुई। इस दूसरी बैठक में मैंने न्यायाधीश एच0आर0 खन्ना का नाम सुझाया। इस नाम पर तुरंत सभी की सहमति बनी।

पश्च्यलेख (टेलीपीस)

न्यायमूर्ति खन्ना का 95 वर्ष की आयु में 25 फरवरी, 2008 को निधन हो गया। उनके युगांतरकारी निर्णय के बाद ‘दि न्यूयॉर्क टाइम्स‘ ने अपने सम्पादकीय में लिखा था : ”यदि भारत कभी पीछे मुड़कर अपनी स्वतंत्रता और लोकतंत्र को देखेगा, जिसने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में पहले अठारह वर्षों में जो गौरवशाली उपलब्धियां प्राप्त की हैं, तो निश्चित रूप से कोई न्यायाधीश न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना का स्मारक सर्वोच्च न्यायालय में अवश्य बनवाएगा।”

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