पुरूष ही नहीं महिलाएं भी होती हैं दबंग : मध्यप्रदेश की एक मात्र जेल अधिक्षक सुश्री शैफाली तिवारी

अकसर महिलाओं को लेकर तमाम सवाल उठते रहे हैं। मध्यप्रदेश में महिलाओं पर अत्याचार का होना कोई नई बात नहीं हैं। पुरूष प्रधान समाज में जहां पर नारी को पैरो की जूती समझा जाता रहा हैं। उस पुरूष समाज में पहली बार किसी महिला ने अपनी दबंगाई दिखाते हुए उस चुनौती को स्वीकार किया जिसे कोई आम महिला स्वीकार नहीं कर सकती। मध्यप्रदेश में पहली बार आयोजित जेल  अधिक्षक के पद की पीएससी परीक्षा में मेरीट लिस्ट में आई उज्जैन के पूर्व एडीशनल कमीशनर श्री जेपी तिवारी की बिटीया सुश्री शैफाली तिवारी को मध्यप्रदेश की पहली एक मात्र खुली जेल का जेलर बनाया गया लेकिन जेल का जैसे ही शुभारंभ होने को आया इस महिला अधिकारी का बैतूल तबादला करवा दिया गया। तीन साल की नौकरी में तीन तबादले की त्रासदी झेल चुकी सुश्री शैफाली तिवारी का जन्म 18 जून 1982 को हुआ था। सुश्री तिवारी के पापा मध्यप्रदेश के नामचीन आइएस अधिकारी रहे हैं। वे मध्यप्रदेश एवं वर्तमान छत्तिसगढ़ में सेवारत रहने के बाद सेवानिवृत होकर जबलपुर में रह रहे हैं। अपने पापा के कार्यो से प्रभावित सुश्री शैफाली तिवारी ने डिप्टी कलैक्टर की पीएससी में भी भाग लिया था लेकिन उनका नम्बर लगा जेल की पीएससी में और वे भोपाल में पदस्थ हुई। वैसे तो पूरे प्रदेश में मात्र तीन ही महिला जेल अधिक्षक हैं। जिसमें एक श्रीमति अलका सोनकर शाजापुर , श्रीमति उषाराज दतिया में पदस्थ हैं। बेगमगंज की महिला जेलर श्रीमति ज्योति तिवारी की तरह दबंग महिला जेल अधिक्षक बनी सुश्री शैफाली अपनी स्वजाति श्रीमति ज्योति तिवारी की कार्यप्रणाली की कायल हैं। इन सब से हट कर आपने कभी सपने में नहीं सोचा होगा कि अग्रेंजो के जमाने की जेल में जेल अधिक्षक के पद कोई दबंग महिला पदस्थ होगी। बैतूल जिले की प्रथम महिला जेल अधिक्षक सुश्री शैफाली तिवारी मध्यप्रदेश एवं महाराष्ट्र के सीमावर्ती आदिवासी बाहुल्य बैतूल जिला जेल का बदनाम नक्शा बदलने जा रही सुश्री शैफाली तिवारी मध्यप्रदेश की एक मात्र अनारक्षित परिवार की लाड़ली बिटीया है जिसने जेल जैसे बदनाम विभाग की सूरत और शक्ल बदलने का बीड़ा उठाया हैं। आपको याद होगा हिन्दी की बहुचर्चित शोले फिल्म के जेलर असरानी का वह डायलाग जिसमें वह कैदियों से कहता हैं कि आजकल के जेलरो की तरह नहीं है जो कैदियो को सुधारने की फिकर में लगे रहते हैं। हम जानते हैं कि आजकल हमारी बातो को नहीं पसंद नहीं किया जाता हैं। इसलिए हमारी हर जगह से बदली हो जाती हैं इतनी बदली के बाद में हम नहीं बदले…? शोले के जेलर के उक्त डायलाग ठीक विपरीत बैतूल जिले के कैदियो और जेल को सुधारने में लगी सुश्री शैफाली तिवारी ने समाज शास्त्र   से उच्च शिक्षा पाने के बाद जब जेल अधिक्षक के लिए पीएससी की परीक्षा दी तो उन्हे सपने में भी कल्पना नहीं थी कि बैतूल जैसे जिले में भी पदस्थ होना पड़ सकता है। महानगरो में पढ़ी – लिखी सुश्री तिवारी के लिए बैतूल एक अग्रि परीक्षा की तरह हैं। बैतूल जिले के आदिवासी क्षेत्र की महिलाओं के द्वारा घटित अपराधों की विवेचना करने के बाद वे कहती हैं कि जिले की अधिकांश महिला बंदी आदतन अपराधी नहीं हैं। किसी परिस्थिति और अनजाने में हुए अपराधों के बोझ तले दबी कुचली महिलाओं को सुधारने का प्रयास उनकी पहली प्राथमिकता रहेगी। सुश्री तिवारी कहती हैं कि इन्दौर के आसपास की महिला बंदी के अपराध और झाबुआ , मंदसौर , नीमच की महिला बंदी के अपराधो के पीछे की कहानी में भिन्नता हैं। आपका यह मानना हैं कि हिन्दुस्तान में महिलाए आज भी कानून के प्रति जानकार नहीं है जो थोड़ा बहुुंत जानती हैं वह उसका उपयोग दुसरो के हित में करने के बजाय उसका दुरूप्रयोग करती हैं। मां नर्मदा के किनारे पली – बढ़ी सुश्री शैफाली को ताप्ती का तट अच्छा जरूर लगेगा लेकिन वे अभी तक ताप्ती के तट पर जा नहीं सकी हैं। दबे स्वर में सुश्री शैफाली तिवारी भी मानती हैं कि मध्यप्रदेश की जेले भी महिला जेल अधिक्षको , महिला जेलरो , महिला जेल आरक्षक के लिए किसी यातना से कम नहीं हैं। पुरूष प्रधान समाज में आज भी पुरूषो द्वारा खास कर अपने अधिनस्थ महिला अधिकारियों , कर्मचारियों को ना ना प्रकार से प्रताडि़त किया जाता हैं। सुश्री तिवारी भी मानती हैं उनके पापा यदि आइएस अधिकारी नहीं होते तो वह भी प्रताडऩा का शिकार होती और आज भी हो रही हैं। अपने तीन साल के कार्यकाल में तीन तबादले को सुश्री शैफाली तिवारी एक प्रकार से प्रताडऩा ही मानती है लेकिन इसे चुनौती समझ कर स्वीकार भी किया और आज बैतूल में पदस्थ हैं। अंतराष्ट्रीय महिला दिवस पर सुश्री तिवारी कहती हैं कि भाषणों एवं नेतागिरी से महिलाओं का उद्धार नहीं होगा। नारी को अबला नहीं सबला बनना होगा। आपका यह भी मानना हैं कि नारी को हर उस जाब में जाना चाहिए जिसके बारे में यह भ्रम फैला दिया जाता है कि यह काम औरतो का नहीं है,उसे तो सिर्फ चुल्हा चौका ही संभालना चाहिए। आप इस कटु सत्य को भी स्वीकार करती हैं कि चुल्हा चौका और बेलन नारी की पहचान हैं लेकिन उससे हट कर भी तो कुछ किया जा सकता हैं। सुश्री तिवारी सवाल करती हैं कि क्या अमेरिका के राष्टपति की पत्नी को या भारत की महिला प्रधानमंत्री ने कभी अपने चुल्हे चौके में अपने परिवार के लिए काम नहीं किया होगा। मां अपने बच्चे को अपने ही हाथ का बनाया खाना खिलाना पसंद करती हैं। इसी तरह पत्नि भी अपने पति के लिए और बेटी अपने परिवार के लिए चुल्हा चौका संभालती हैं। हम जिस समाज में रह रहे है, हमें उसकी थोड़ी सी नकारात्म सोच को बदलना हैं।

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