डूबते पहाड़ और धुंध में विलीन होते महानगर

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विपिन जोशी

गरूड़, उत्तराखण्ड

डूबते पहाड़ और धुंध में विलीन होते महानगर, सुनने में कैसा लगता है यह वाक्य? निःसन्देह खराब ही लगेगा। क्योंकी पहाड़ के डूबने का अर्थ है हमारे अस्तित्व का डूबना। पहाड़ डूबेगा तो सबकुछ डूब जाएगा, मसलन हिमालय, खेत, जंगल, जमीन यानी जीवन का एक बड़ा हिस्सा काल के गाल में समा सकता है। पहाड़ का डूबना हमें प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखता है। इसी के समानान्तर हम देखें तो आसानी से महानगरों का धुंध में खो जाना हमें रोज दिखता है। दिल्ली एनसीआर का प्रदूषण सूचकांक हो या मशीनी युग का प्रभाव, जिसे उद्योग जगत की देन कहने में संकोच नहीं होता। सब मुद्दे जिम्मेदार हैं महानगर की आबोहवा को बिगाड़ने में। 

हालांकि फिलहाल पहाड़ वालों को प्रदूषण की चिंता नहीं है। लेकिन पहाड़ की भी अपनी चिंताएं हैं। हिमालय से निकलने वाली अविरल जल धाराओं को रोक कर, बड़े बांध बनाकर पहाड़ की जमीन और जंगलों को इंसानी बस्ती समेत जलमग्न करने की नीतियां न सिर्फ भयावह हैं बल्कि चिंताजनक भी हैं। उदाहरण चाहे विकास का मंदिर कहे जाने वाले टिहरी बांध का हो या भविष्य में आकार लेने वाले पंचेश्वर बांध का। ऐसे बहुत से उदहारण हमारी अक्ल को आईना दिखाने के लिए काफी हैं। जिस बिजली उत्पादन के लिए बड़े बांध बन रहे हैं उसका सीधा लाभ किसे और किस कीमत पर मिल रहा है? इस सवाल को समझने की जरूरत है। क्योंकि यह सवाल पहाड़ के अस्तित्व से जुड़ा हुआ है। जिसकी अनदेखी भविष्य में सरकारों को बहुत मंहगी पड़ सकती है। 

आज के दौर की सबसे बड़ी चिन्ता मानव जीवन के अस्तित्व को बचाने और पर्यावरण संरक्षण की है। क्योंकि बिना पर्यावरण संतुलन के हमारी धरती भी अन्य ग्रहों की तरह बन जाएगी, जहां जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है। लेकिन सरकारों की चिन्ताएं किस ओर को अग्रसर हैं इस बात की समीक्षा भी करनी होगी क्योंकि इस भयावह भविष्य का नुकसान केवल आमजन को ही होगा। सक्षम जन तो हिमालय की ऑक्सीज़न खरीद लेगा, ग्लेश्यिर के स्रोत का पानी मंगा लेगा। ऑक्सीज़न बार से मंहगी आक्सीजन ले लेगा, लेकिन गरीब जनता जो सिर्फ एक वोट के रूप में अक्सर जानी जाती है या चुनावी रैलियों में किराये की भीड़ बनकर कहीं गुम हो जाती है, उसकी ज़िम्मेदारी कौन उठाएगा? आखिर क्या होगा समाधान हैं इसका? क्योंकि आंकड़े तो बेहद डरावने हैं। 

देश की राजधानी दिल्ली दुनिया की सबसे ज्यादा प्रदूषित शहरों में एक है। विश्व वायु गुणवत्ता सूचकांग रैंकिंग के ऐयर विजुवल आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में एयर क्वालिटी इंडेक्स जानलेवा है। हालात इतने संगीन हैं कि स्कूल-काॅलेज तक को बंद करनी पड़ी थी। दिल्ली सहित देश के अन्य महानगरों में मास्क और एयर प्यूरीफायर की डिमांड बढ़ गई है। लोग घरों और ऑफिसों में एयर प्यूरीफायर का उपयोग करने लगे हैं। न्यूज एजेंसी रायटर्स केअनुसार प्रधानमंत्री कार्यालय सहित छह सरकारी ऑफिसों के लिए 140 एयर प्यूरी फायर खरीदे गए हैं। जिसके लिए केन्द्र सरकार ने 2014 से 2017 के बीच 36 लाख रूपये खर्च किए। अब ऐसे में यह सवाल और बड़ा हो गया है कि आखिर लगातार ज़हरीली होती आबोहवा के लिए ज़िम्मेदार कौन है? 

यदि सक्षम और असक्षम के बीच जीवन अस्तित्व की जंग छिड़ गई तो क्या होगा?  एक तरफ वह लोग हैं जो पर्यावरणीय खतरों से बचने के लिए अपनी पावर और धन का उपयोग कर लेंगे लेकिन यह भी एक सीमित दायरे में और अस्थाई उपया होगा। दूसरी ओर बस्तियों में और सड़कों पर रहने वाले लाखों लोग हैं जो तमाम तरह के प्रदूषण को सीधे तौर पर झेलते हैं। ऐसे में हर तरफ से नुकसान तो गरीब जनता को ही उठाना होगा। यदि वर्तमान दर से प्रदूषण बढ़ता रहा तो आज जो मुसीबत दिल्ली एनसीआर पर आई है वह हर जगह मौजूद होगी। इस समस्या से बचने के बहुत से उपायों में सबसे बेहतर और टिकाउ उपाय तो एक ही है और वह है अपनी जीवन शैली को बदलना तथा  अधिक से अधिक संख्या में पेड़ लगाना। जो स्थाई विकास की ओर अग्रसर कदम हो सकता है। जरूरत से ज्यादा लग्जरी एकत्र करना, अधिक मात्रा में संसाधनों का संकलन करना, दोहन करना भी धरती की सेहत के लिए नुकसानदायक है। 

दिल्ली सरकार का ऑड इवन सिस्टम काफी हद तक सकारात्मक कदम कहा जा सकता है, यह एक प्रकार की समझदारी है और पर्यावरण के प्रति ज़िम्मेदारी भी कि एक ही कार्यक्षेत्र में काम करने वाले पांच लोग पांच गाड़ियों का उपयोग करें या बारी-बारी से एक-दूसरे के साथ गाड़ी साझा करें? व्यक्तिगत तौर पर इस तरह की पहल से आपसी संबंध भी मधुर होते हैं और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में छोटा सा लेकिन एक सार्थक कदम भी बढ़ता है। अक्सर सरकारें पर्यावरणीय नुकसानों के लिए आमजन को जिम्मेदार ठहराने का कुचक्र रचती हैं। विभिन्न माध्यमों से यही कहा जाता है कि जंगलो को नुकसान आमजन पहुंचाते हैं। जबकि वास्तविकता यही है कि जंगल के बाशिंदे ही हैं जिन्होने जंगलों को आजतक सहेजकर रखा है। 

सबसे ज्यादा नुकसान तो आधुनिक विकास और व्यवसायिक दृष्टिकोण ने किया है। सड़कों का जाल, बड़े बांध, शांत हिमालयी क्षेत्रों में बेतहाशा निर्माण कार्यों से ही इन जंगलों को सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ है और इसका सीधा असर यहां की नदियों और वातावरण पर पड़ा है। उदाहरण के लिए ऑल वेदर रोड (सभी मौसम में खुले रहने वाली सड़क) के अंतर्गत उत्तराखण्ड में गंगोत्री हाईवे के लिए हजारो टन पेड़ काट डाले गए जबकी इसका वैकल्पिक रास्ता निकालकर इन पेड़ों को कटने से बचाया जा सकता था। किसी एक जोन में इतने सारे पेड़ो के कट जाने से वहां के इको सिस्टम पर क्या प्रभाव होते हैं इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है। 

हिमालयी क्षेत्र के प्रति सरकार की असंवेदनशीलता की एक और बानगी नेपाल और भारत की संयुक्त पहल से बनने वाला पिथौरागढ़ जिले का पंचेश्वर बांध है। जिसके निर्माण से पिथौरागढ़ जिले के न केवल सैकड़ों गांव जलमग्न क्षेत्र की परिधि में आ रहे हैं बल्कि लाखों पेड़ जलमग्न हो जाएंगे। इस बांध से बनने वाली बिजली से ज्यादा जरूरी है यहां का इकोसिस्टम। जिसकी परवाह दिल्ली में बैठे कॉर्पोरेट्स और हमारे नुमाइंदे नहीं करते हैं। यकीनन विकास भी जरूरी है लेकिन किस कीमत पर और कैसा? हिमालयी क्षेत्र में हिमालय की भौगोलिकता के अनुरूप विकास होगा या अंधाधुंध दोहन आधारित विकास? इस बारीक अंतर को समझना ज़रूरी है। अन्यथा पहाड़ डूब जाएंगे और महानगर धुंध में विलीन हो जाएंगे। (चरखा फीचर्स)

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