मीडिया की विश्वसनीयता का संकट और आत्म नियंत्रण की पुरजोर आवश्यकता – प्रफुल्ल केतकर

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“पत्रकारिता का एकमात्र उद्देश्य सेवा होना चाहिए। अखबार और प्रेस एक महान शक्ति है, लेकिन जैसे पानी का अनियंत्रित उन्मुक्त प्रवाह गाँव के गाँव डुबा सकता है, फसलों को नष्ट कर सकता है, ठीक उसी प्रकार एक अनियंत्रित कलम सेवा के स्थान पर महान विध्वंश कर सकती है । लेकिन इसे नियंत्रित करने का प्रयास, अनियंत्रित छोड़ने से कहीं अधिक घातक है । यह तभी लाभदायक है जब नियंत्रण आतंरिक हो । अगर इस तर्क को सही माना जाए, तो दुनिया में कितने पत्र पत्रिका इस कसौटी पर खरे उतरेंगे? “- महात्मा गांधी, An Autobiography or the Story of My Experiments with Truth, p. 211

1920 के दशक में पत्रकारिता पर गांधीजी द्वारा की गईं उक्त गंभीर टिप्पणियां दर्शाती है कि मीडिया संकट कोई नई बात नहीं है ।

हाल ही में आरोप लगा है कि करीब 20 पत्रकारों को ऑगस्टा वेस्टलैंड द्वारा हेलीकॉप्टर सौदे को लेकर अनुकूल रिपोर्टिंग के लिए मेनेज किया गया ! ये आरोप सामने आने के बाद भारतीय मीडिया जगत की प्रतिष्ठा में कमी आई है ।

यदि हमारे वरिष्ठ पत्रकार, विदेशी धन और प्रभाव के द्वारा मेनेज हो जाते हैं तो यह प्रवृत्ति अत्यंत गंभीर है । मीडिया में विध्वंशक प्रवृत्ति इतनी जबरदस्त है कि लोग मैसेंजर के संदेशों पर कठिनाई से ही विश्वास करते हैं और सोशल मीडिया पर आलेखों में गंभीर मसलों को परिभाषित किया जाता है । ट्विटर जैसे खुले प्लेटफार्म पर कुछ व्यक्तियों को जिस तरह हूट किया जाता है, वहां खेल के किसी नियम का पालन नहीं किया जाता । सवाल यहाँ एक व्यक्ति या सिर्फ एक मीडिया समूह का नहीं है, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की ‘विश्वसनीयता’ सवालों के घेरे में है ।

अगर हम इशरत जहाँ मामले से लेकर हेलिकॉप्टर घोटाले तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के द्रष्टिकोण का “हम” विरुद्ध “वे” के सन्दर्भ में खुले तौर पर विश्लेषण करें तो मुद्दा और अधिक गंभीर दिखाई देता है।

यदि हम इतिहास और मीडिया की रीतिनीति में नैतिकता की कमी की प्रवृत्ति पर नजर दौडाएं, तो हम पायेंगे कि साख बहाली के लिए कुछ मानकों पर आये बिना समाधान नहीं हो सकता है।
ब्रिटिश राज के दौरान जब आधुनिक युग की पत्रकारिता ने भारत में प्रवेश किया, तब उसका घोष वाक्य था जीवन के विभिन्न पहलुओं पर भारतीय द्रष्टिकोण से समाचार और विचार का प्रसार व उसके माध्यम से राष्ट्र सेवा ।

कई नेताओं ने पत्रकार बन कर समाज के सहयोग से प्रेस संचालित कर अखबार निकालने, तथा इस प्रकार देश की गूंगी आवाज को स्वर देने का फैसला किया । लक्ष्य था स्वतंत्रता की प्राप्ति, किन्तु व्यावसायिक दृष्टि से घोषित किया गया राष्ट्र सेवा ।

लेकिन धीरे धीरे विज्ञापन के नाम पर सरकार और कॉर्पोरेट दोनों ने एक घूस तंत्र विकसित किया । आपातकाल के काले अध्याय के दौरान अन्य के साथ मीडिया ने भी ‘प्रतिबद्धता’ का एक और अर्थ लगाया।

फिर भी, कुछ मीडिया घरानों ने निरंकुश शासन से लड़ने में एक निर्णायक भूमिका निभाई लेकिन आपातकाल के बाद तो पत्रकारिता में राष्ट्रसेवा गौण और सारी सीमा लांघकर व्यावसायिकता प्रमुख हो गई ।

मीडिया एक लाभ कमाने वाला उद्योग बन गया और राजनीतिक ताकतों द्वारा उसका सहयोजन एक आम प्रवृत्ति बन गया। तथ्य आधारित पत्रकारिता के परंपरागत उद्देश्य में सर्वाधिक कमी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आगमन के बाद हुई ।

‘ब्रेकिंग न्यूज’ सिंड्रोम ने पारंपरिक ज्ञान को तोड़ दिया और मीडिया घरानों के लिए व्यापार एकमात्र प्रेरणा शक्ति बन गया। प्रिंट पत्रकारिता की गतिशीलता रातों रात सेलिब्रिटी चेहरे में बदल गई और समझौता, समाचार कवरेज का सेट पैटर्न बन गया। इसके भी आगे अब हम देख रहे हैं कि भ्रष्टाचार का फल चखने में मीडिया, तंत्र के शक्तिशाली लोगों का साझीदार बन गया है ।

संक्षेप में कहा जाये तो इसी कारण स्वतंत्र और अपेक्षाकृत अधिक तथ्य आधारित सोशल मीडिया जनता के मन में अधिक विश्वसनीयता हासिल कर रहा है । यदि तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया या पत्रकारों ने स्वयं को भ्रष्टाचार के प्रमुख सूत्रधारों के हस्तक और साझेदार की भूमिका में ही रखा तो वे अप्रासंगिक और पराजित हो जायेंगे ।

उपरोक्त पैराग्राफ में वर्णित विचारों को आगे बढाते हुए महात्मा गांधी ने आगे कहा था कि “लेकिन जो अनुपयोगी हैं, उन्हें रोकेगा कौन ? उपयोगी और व्यर्थ, आमतौर पर अच्छाई और बुराई की तरह साथ साथ चलते हैं, और इंसान को उनमें से ही किसी को पसंद करना चाहिए। ”

लोग पहले से ही स्वतः अपनी रूचि दर्शा रहे हैं । लोकतंत्र में हम सभी जिम्मेदार पत्रकारों को विचार करना होगा कि हम अन्य उद्योगों के समान इस तंत्र के वश में होकर अपनी विश्वसनीयता हमेशा के लिए खो देना चाहते हैं, या फिर “आतंरिक नियंत्रण” के कठोर व्यायाम से मीडिया को अपने पुराने जनसेवा के मकसद पर लौटाकर सम्मान पुनः पाना चाहते हैं ।

 

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