अनिल अनूप
मज़दूरों का प्रवासी होना (‘माइग्रेशन’, आप्रवास या प्रव्रजन) पूँजीवाद की आम परिघटना, लक्षण और परिणाम है। यूँ तो ज़्यादातर औद्योगिक मज़दूर या अन्य शहरी मज़दूर भी ऐसे ही लोग हैं जो (या जिनकी पूर्ववर्ती पीढ़ियाँ) कभी न कभी गाँव से प्रवासी होकर शहर आये थे। धीरे-धीरे वे किसी एक शहर या औद्योगिक क्षेत्र में क़ानूनी या ग़ैरक़ानूनी ढंग से बसायी गयी मज़दूर बस्ती में झुग्गी या कोठरी ख़रीदकर किराये पर रहने लगे। इनमें से कुछ कुशल या अर्द्धकुशल मज़दूर हो गये। कुछ के बी.पी.एल. राशन कार्ड और पहचानपत्र भी बन गये। कुछ के ई.एस.आई. कार्ड भी बन गये। हालाँकि ये सुविधाएँ भी बहुत कम को ही नसीब हुईं। छँटनी, तालाबन्दी या बिना किसी ठोस वजह के नौकरी से कभी भी निकाल दिये जाने की तलवार इनके सिर पर भी लटकती रहती है। लेकिन एक ठौर-ठिकाना और आसपास अपने ही जैसों के बीच जान-पहचान का दायरा ऐसे मज़दूरों को नयी नौकरी ढूँढ़ने में भी काफी मदद करते हैं। रहने का कोई स्थायी ठौर और नौकरी का कोई सुनिश्चित बन्दोबस्त नहीं होने के कारण प्रवासी मज़दूर जीने और काम करने की सर्वाधिक असुरक्षित, अनिश्चित और नारकीय स्थितियों को झेलने के लिए अभिशप्त होते हैं। पूरी दुनिया में, उन्नत पूँजीवादी देशों से लेकर भारत जैसे पिछडे पूँजीवादी देशों तक प्रवासी मज़दूरों की कमोबेश एक सी ही दुर्दशा है वे सबसे सस्ती दरों पर अपनी श्रम शक्ति बेचने वाले, सबसे नारकीय परिस्थितियों में रहने और काम करने वाले, सर्वाधिक असुरक्षित उजरती ग़ुलाम होते हैं।
यूँ तो पूँजी हमेशा से लोगों को अपनी जगह-ज़मीन से दर-बदर करती रही है ताकि उनकी श्रम शक्ति को निचोड़कर वह लगातार अपनी वृद्धि कर सके। सामन्तवाद से पूँजीवाद में संक्रमण के साथ, ज़मींदार की ज़मीन से बँधे मज़दूर ”मुक्त” होकर कारख़ानों के मज़दूर बने। छोटे मालिक किसान भी पूँजी की मार से उजड़ने लगे। उनमें से कुछ ग्रामीण सर्वहारा बने, कुछ शहरों में प्रवास करके औद्यौगिक सर्वहारा बन गये और कुछ सीज़नल सा अस्थायी मज़दूर के तौर पर शहरों में आकर काम करने लगे। खेती-बाड़ी का पूँजीवादीकरण जहाँ-जहाँ सापेक्षत: तेज़ हुआ, वहाँ-वहाँ मज़दूरों की माँग बढ़ी, पर जल्दी ही मशीनीकरण ने उन्हें वहाँ भी काम से निकाल बाहर किया। ‘जीवित श्रम’ का स्थान ‘मृत श्रम’ ने ले लिया। यही प्रक्रिया शहरों में भी जारी रहती है। उत्पादन के किसी भी सेक्टर में नयी मशीनें आती हैं और मज़दूर काम से बाहर कर दिया जाता है। यही नहीं, मुनाफे की अन्धी हवस और पूँजीवादी उत्पादन की अराजकता जब अतिउत्पादन और मन्दी का दौर लाती है तो पूँजीपति पहला काम यही करता है कि छँटनी और तालाबन्दी करके मज़दूर को सड़क पर ढकेल देता है। बेघर-बेदर मज़दूर फिर किसी और उद्योग या इलाक़े में काम ढूँढ़ने निकल पड़ता है। इस तरह मज़दूर पिछडे उत्पादन क्षेत्र (कृषि और छोटे उद्यमों) से उन्नत उत्पादन क्षेत्रों की ओर आप्रवास करता है और फिर अधिक मशीनीकरण वाले उन्नत क्षेत्रों से कम मशीनाकरण वाले उत्पादन क्षेत्रों की ओर जाता रहता है। बड़ी-बड़ी औद्योगिक अन्य निर्माण परियोजनाओं और खनन परियोजनाओं में लाखों की तादाद में मज़दूरों की ज़रूरत पड़ती है और प्रोजेक्ट ख़त्म होते ही यह सारी आबादी नये काम की तलाश में निकल पड़ती है। ‘लार्सन एण्ड टयूब्रो’ और ‘नवयुग’ जैसी पचासों कम्पनियाँ हैं जो कोई भी प्रोजेक्ट (जैसे ‘दिल्ली मेट्रो’ या कोई बाँध या फैक्टरी या सड़क परियोजना) लेते समय हज़ारों (कभी-कभी लाखों) मज़दूर भरती करती हैं और प्रोजेक्ट समाप्त होते ही उन्हें निकला देती हैं। बिल्डर कम्पनियाँ भी इसी प्रकार काम करती हैं। मेण्टेनेंस जैसे काम करने वाली प्राइवेट कम्पनियाँ भी अपने 90-95 प्रतिशत मज़दूरों को (थोड़े से कुशल अनुभवी लोगों को ही एक हद तक स्थायित्व प्राप्त होता है) कभी स्थायी नहीं करतीं। जहाँ जैसा ठेका मिलता है, उसी हिसाब से निकालने और भर्ती करने का काम होता रहता है। इस तरह मज़दूरों की एक भारी आबादी कहीं स्थिर होकर रह नहीं पाती। जो सीज़नल मज़दूर कुछ दिनों के लिए गाँव से शहर आते है, उनका भी जीवन प्रवासी मज़दूरों का ही होता है।
काम की तलाश में लगातार नयी जगहों पर भटकते रहने और पूरी ज़िन्दगी अनिश्चितताओं से भरी रहने के कारण प्रवासी मज़दूरों की सौदेबाज़ी करने की ताक़त नगण्य होती है। वे दिहाड़ी, ठेका, कैजुअल या पीसरेट मज़दूर के रूप में सबसे कम मज़दूरी पर काम करते हैं। सामाजिक सुरक्षा का कोई भी क़ानूनी प्रावधान उनके ऊपर लागू नहीं हो पाता। कम ही ऐसा हो पाता है कि लगातार सालभर उन्हें काम मिल सके (कभी-कभी किसी निर्माण परियोजना में साल, दो साल, तीन साल वे लगातार काम करते भी हैं तो उसके बाद बेकार हो जाते हैं)। लम्बी-लम्बी अवधियों तक ‘बेरोज़गारों की आरक्षित सेना’ में शामिल होना या महज पेट भरने के लिए कम से कम मज़दूरी और अपमानजनक शर्तों पर कुछ काम करके अर्द्धबेरोज़गारी में छिपी बेरोज़गारी की स्थिति में दिन बिताना उनकी नियति होती है।
पिछले इक्कीस वर्षों से जारी उदारीकरण-निजीकरण का दौर लगातार मज़दूरी के बढ़ते औपचारिकीकरण, ठेकाकरण, दिहाड़ीकरण, ‘कैजुअलीकरण’ और ‘पीसरेटीकरण’ का दौर रहा है। नियमित/औपचारिक/स्थायी नौकरी वाले मज़दूरों की तादाद घटती चली गयी है, यूनियनों का रहा-सहा आधार भी सिकुड़ गया है। औद्योगिक ग्रामीण मज़दूरों की कुल आबादी का 95 प्रतिशत से भी अधिक असंगठित/अनौपचारिक है, यूनियनों के दायरे के बाहर है (या एक हद तक है भी तो महज़ औपचारिक तौर पर) और उसकी सामूहिक सौदेबाज़ी की ताक़त नगण्य हो गयी है। ऐसे मज़दूरों का बड़ा हिस्सा किसी भी तरह के रोज़गार की तलाश में लगातर यहाँ-वहाँ भागता रहता है। उसका स्थायी निवास या तो है ही नहीं या है भी, तो वह वहाँ से दूर कहीं भी काम करने को बाध्य है। तात्पर्य यह कि नवउदारवाद ने मज़दूरों को ज़्यादा से ज़्यादा यहाँ-वहाँ भटकने के लिए मजबूर करके प्रवासी मज़दूरों की संख्या बहुत अधिक बढ़ा दी है।
प्रवासी मज़दूर वे सच्चे सर्वहारा हैं, जिनके पास खोने को कुछ भी नहीं होता। सचमुच उनका कोई देश, शहर, इलाक़ा नहीं होता। अपनी श्रमशक्ति बेचकर वे जीते हैं क्योंकि उनके पास ज़्यादातर, रस्मी तौर पर भी और कुछ भी नहीं होता। उनकी संख्या आज भारत में भी सबसे अधिक है और पूरी दुनिया में भी। हर जगह उनकी एक समान स्थिति है। आप्रवासन केवल एक देश के भीतर नहीं है, बल्कि देश के बाहर भी होता है। हालाँकि साम्राज्यवादी देश नहीं चाहते कि बड़े पैमाने पर पिछड़े देशों के मज़दूर उनके देशों में जायें, क्योंकि तब उन्हें उनको (अपने देश के मज़दूरों के मुक़ाबले काफी कम होते हुए भी) ज़्यादा मज़दूरी देनी पड़ती है। इसलिए वे चाहते हैं कि पिछड़े देशों में ही पूँजी लगातार सस्ती से सस्ती दरों पर श्रमशक्ति को निचोड़ा जाये। ऐसी बहुतेरी तमाम प्रत्यक्ष-परोक्ष बन्दिशों के बावजूद जो भारतीय मज़दूर दूसरे देशों में जाकर काम करते हैं उन्हें अपने परिवारों को पैसे भेजने के लिए नारकीय गुलामों का जीवन बिताना पड़ता है। उन्हें भेजी हुई विदेशी मुद्रा से भारत सरकार को अपने विदेश व्यापार के चालू खाते और विदेशी मुद्रा भण्डार की स्थिति मज़बूत करने में सर्वाधिक मदद मिलती है, लेकिन भारतीय कामगारों के हितों की रक्षा के लिए यह एक भी क़दम नहीं उठाती क्योंकि यह सरकार उन भारतीय पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी है जो विश्व पैमाने की लूट में साम्राज्यवादियों के कनिष्ठ साझीदार हैं।
दिलचस्प बात यह है कि भारत में भी नेपाल और बंगलादेश से आकर जो लाखों ग़रीब मेहनतकश महज़ दो जून की रोटी के लिए काम करते हैं, उनके लिए श्रम क़ानूनों का कोई मतलब नहीं होता, सबसे कम मज़दूरी पर वे सबसे कठिन व अपमानजनक काम करते हैं, सामूहिक सौदेबाज़ी की उनकी कोई ताक़त नहीं होती, वे नारकीय जीवन बिताते हैं तथा अक्सर घृणित नस्ली, धार्मिक और अन्धराष्ट्रवादी पूर्वाग्रहों का सामना करते हैं। पूँजीपति इसका लाभ उठाकर उनका और अधिक शोषण करते हैं और भारतीय मज़दूरों के दिलों में यह बात बैठाने की कोशिश करते हैं कि इन ”बाहरी लोगों” की वजह से उनके रोज़गार के अवसर कम हो रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि या तो मज़दूरों पर दबाव बनाने के लिए रोज़गार की कमी का हौव्वा खड़ा किया जाता है या फिर मन्दी और बेरोज़गारी की जो भी स्थिति होती है उसका कारण कामगारों की संख्या की बहुतायत नहीं बल्कि पूँजीवादी उत्पादन और विनिमय प्रणाली के ढाँचे में मौजूद होता है। पूँजीपति वर्ग अपने दुष्प्रचार के द्वारा मज़दूरों की श्रम शक्ति कम दरों पर ख़रीदने के साथ ही मेहनतकशों की व्यापक एकजुटता को तोड़ने और उन्हें आपस में ही लड़ाने का भी काम करता है।