मंगल की तरफ बढ़ते कदम

पीयूष द्विवेदी

download (2)ये सुखद है कि भारतीय अंतरिक्ष अनुसन्धान संगठन (इसरो) द्वारा किए गए वर्षों के अथक परिश्रम के बाद आखिरकार भारत के बहुप्रतीक्षित अंतरिक्ष अभियान ‘मिशन मार्स’ के तहत मंगल ग्रह के लिए उपग्रह का सफल प्रक्षेपण हो गया. इस प्रक्षेपण के साथ ही भारतीय अंतरिक्ष संगठन इसरो चीन को पछाड़ते हुए उन कुछ चुनिन्दा` अंतरिक्ष एजेंसियों की श्रेणी में आ गया जिन्हें मंगल पर अभियान भेजने में सफलता मिली है. गौर करना होगा कि अबतक सिर्फ यूरोपियन संघ की यूरोपियन स्पेस एजेंसी, अमेरिका की नेशनल एयरोनोटिक्स एण्ड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) और रूस की अंतरिक्ष एजेंसी रोंस्कोस्मोज को ही मंगल पर अभियान भेजने में सफलता मिल पायी थी. पर अब अपने इस मिशन मार्स के सफल प्रक्षेपण के साथ ही भारत भी इन देशों की कतार में आ गया. हालाकि अभी ये कहना काफी हद तक जल्दबाजी होगी कि ये मिशन मार्स पूरी तरह से सफल हो गया है. कारण कि सही मायने में तो अभी इस उपग्रह के सफर की शुरुआत भी नही हुई है और इसके मंगल की कक्षा में पहुँचने में फिलहाल काफी समय शेष है. इसी संदर्भ में उल्लेखनीय होगा कि अभी अगले २५ दिन तक ये उपग्रह सिर्फ पृथ्वी के चक्कर लगाएगा. इसके बाद १ दिसंबर को ये मंगल ग्रह के लिए प्रस्थान करेगा और मंगल की कक्षा में पहुँचने में इसे तकरीबन ३०० दिन का समय लगेगा. अनुमान के मुताबिक अगर सब कुछ ठीक रहा तो ये उपग्रह २४ सितम्बर २०१४ को मंगल की कक्षा में पहुंचेगा. साफ़ है कि अभी इस यान के मंगल की कक्षा तक पहुँचने के बीच काफी फासला है,, अतः इस अभियान को लेकर आशावादी तो हुआ जा सकता है, पर फिलहाल इसे पूरी तरह से सफल नही कहा जा सकता. अभी सिर्फ इसका प्रक्षेपण सफल रहा है, पूरा अभियान नही. इसकी सफलता उस दिन मुकम्मल होगी जब ये अबाध रूप से मंगल की कक्षा में स्थापित होकर अपना कार्य आरम्भ कर देगा.

वैसे लगभग साढ़े चार सौ करोड़ की लागत वाले इस मंगल अभियान से हमारे इसरो वैज्ञानिकों को काफी उम्मीदे हैं और ये सही भी है. इसरो के वैज्ञानिकों की मानें तो मार्स आर्बिटर नामक इस उपग्रह को जिस तकनीक से बनाया गया है, वो उपग्रह निर्माण में अत्यंत उपयोगी होने के साथ-साथ काफी कम लागत वाली भी है. अब अगर यह प्रक्षेपण पूरी तरह से सफल रहता है तो मंगल ग्रह पर जीवन की संभावनाएं तलाशने के साथ-साथ अन्य ग्रहों के विषय में भी काफी कुछ नया जानने को मिल सकता है. यहाँ उल्लेखनीय होगा कि अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा अपने मंगल अभियान ‘मार्स रोवर’ द्वारा किए गए अन्वेषण के आधार पर पूर्व में ही ये घोषित कर दिया गया है कि मंगल पर जीवन की कोई संभावना नही है. ऐसे में भारत का ये मिशन मार्स दुनिया भर में अपनी वैज्ञानिक क्षमता का लोहा मनवा चुके अमेरिका की इस घोषणा के लिए भी बड़ी चुनौती है. कहना गलत नही होगा कि भारत का ये मंगल अभियान अभी अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी के दिल में धकधकी लगाए होगा. लिहाजा इस उपग्रह के अपने लक्ष्य स्थान अर्थात मंगल की कक्षा तक पहुँचने पर सिर्फ भारत की ही नहीं, वरन अमेरिका और चीन समेत अधिकाधिक विश्व की नज़र होगी. यहाँ बताना होगा कि अत्याधुनिक तकनीक वाले पाँच उपकरणों से लैस इस उपग्रह का सबसे प्रमुख उपकरण मीथेन सेंसर है जो कि मंगल पर जीवन के लिए अनिवार्य मीथेन गैस की मौजूदगी के बारे में पता लगाएगा. इसके अतिरिक्त इस उपग्रह की कुछ अन्य विशेषताएँ पर एक नज़र डालें तो ये उपग्रह इस स्तर की तकनीक से लैस है कि अगर अभियान के दौरान इसमे कोई गड़बड़ी आती है तो ये बिना किसी जमीनी निर्देश के खुद उस समस्या का पता लगाकर उसका समाधान करने में सक्षम होगा. साथ ही अभियान के दौरान निरंतर गतिमान रहने के लिए आवश्यक सौर ऊर्जा न मिलने पर ये पूर्व में संरक्षित ऊर्जा के द्वारा अपनी गतिशीलता सदैव कायम रखेगा. इन सब बातों को देखते हुए कुल मिलाकर अब ये कहना गलत नही होगा कि भारत का ये मंगल अभियान अगर अपने तय लक्ष्यों को पाने में सफल रहता है तो ये विज्ञान के क्षेत्र में भारत की ढुलमुल स्थिति को काफी हद तक मजबूती देगा और समूचे विश्व में भारत की वैज्ञानिक क्षमता का झंडा लहराएगा.

आजादी के साढ़े छः दशक का समय बिताने के बाद आज यह एक कटु सत्य है कि इन साढ़े छः दशकों में हमने अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा वैज्ञानिक क्षेत्र में काफी धीमी प्रगति की है. इस दौरान अगर दो-एक नामों को छोड़ दें, तो कोई ऐसा भारतीय वैज्ञानिक नहीं दिखता जिसने कुछ नया खोजा हो या नया आविष्कार किया हो. वैसे इस कमी का ये कत्तई अर्थ नहीं कि हमारे वैज्ञानिकों में प्रतिभा का अभाव है. इसमे कोई संशय नहीं कि हमारे वैज्ञानिक प्रतिभासंपन्न हैं. पर बावजूद इसके अगर हम वैज्ञानिक क्षेत्र में चीन, अमेरिका, रूस आदि मुल्कों से काफी पीछे हैं, तो इसके लिए कारण वैज्ञानिक क्षेत्र में हमारा सीमित निवेश है. लिहाजा धन की कमी के कारण हमारे वैज्ञानिकों के बहुतों शोध और प्रयोग समय पर क्रियान्वित नही हो पाते जिस कारण इस क्षेत्र में हम लगातार पिछड़ते जा रहे हैं. पर इन आर्थिक समस्याओं के कारण ही शायद आज हमारे वैज्ञानिकों की योग्यता उस स्तर पर है कि वो सीमित बजट में बड़ा काम करने की क्षमता रखते हैं. इसका सबसे अच्छा प्रमाण इसरो का ये मिशन मार्स ही है जो कि अपने महत्व और उपयोगिता के अनुपात में बेहद काम लागत वाला है. भले ही ये मिशन अभी अपने प्रथम चरण में हो, पर इसके प्रति हमारे वैज्ञानिकों के विश्वास को देखते हुए इसकी पूरी सफलता को लेकर आशावादी हुआ जा सकता है.

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