मो कूँ रहत माधव तकत, हर लता पातन ते चकित;
देखन न हों पावति तुरत, लुकि जात वे लखि मोर गति !
मैं सुरति जब आवति रहति, सुधि पाइ तिन खोजत फिरति;
परि मुरारी धावत रहत, चितवत सतत चित मम चलत !
जानत रहत मैं का चहत, प्रायोजना ता की करत;
राखत व्यवस्थित व्यस्त नित, प्रणवत थिरत उद्गार मति !
लीला अजब खेला विलग, नयनन करत क्रीड़ा अमित;
उर में भरत सुर क्षण प्रथक, राखत अथक जीवन
पथिक !
करि कला वे प्रति कर्म विच, लय धर्म की तन मन फुरत;
द्युति मर्म की ता में लखत, मोहन कूँ ‘मधु’ पाबत रहत !
खोजन सम्मोहन विच !
खोजन सम्मोहन विच, लगी रहति दुनियाँ;
पकड़न कब बा कूँ पात, जो छोड़्यौ बहिंयाँ !
रहत संग रचि असंग, तैरत जग नदिया;
हर प्रसंग फुरत तरत, समरथ चित करिया !
प्रीति चहत श्रीति गहत, वितवाबत उमरिया;
सुधारिया उभारिया, उतरावत गागरिया !
साँवरिया हर रसिया, जावत कछु कहिया;
नचवाबत देह मनन, प्राणन रस भरिया !
ओत प्रोत स्रोत देत, प्रौढ़ करत रहिया;
जग- बगिया देखि चलत, ‘मधु’ फूलन मखिया !
मोहन मृग-तृष्णा तकि !
मोहन मृग-तृष्णा तकि, होवत मन मृगया;
भगत जातु जल न पातु, व्यथित क्लान्त फिरिया !
कस्तूरी उर समात, मृग खोजत बनहिं रहत;
समझ आत होत शान्त, छलकत दृग दरिया !
सब दहिया गहिया बहिंया, नाचत जो जग-बगिया;
जग-मगिया युग जागिया, ताण्डव शिव वत रचिया !
आत्मा भव- भावन की, पावन गति प्राणन की;
‘हं’ बनि कें उर आवत, ‘सो’ फुरि कें सुर छोड़त !
का मेरौ का तेरौ, सारौ ई जग तेरौ;
‘मधु’ चाकतु हर चित विच, बा की ई छैंया !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’