गरीबी का आधुनिकीकरण

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ऐसा बताया जाता रहा है कि बढ़ते हुए परिवर्द्धन के साथ-साथ अभाव की स्थिति में कमी आती जाएगी तथा अन्त में विश्व के हर कोने से गरीबी समाप्त हो जाएगी। परिवर्द्धन (Development) और गरीबी के बीच विलोमानुपाती सम्बन्ध समझा जाता रहा है। पर यह परी-कथा ही निकली।

अमीर और गरीब के बीच के फर्क के दो पहलू हैं —– आर्थिक और सांस्कृतिक। परिवर्द्धन के नतीजे में सांस्कृतिक फर्क में कमी आई है, जबकि आर्थिक फर्क पहले से अधिक धारदार हो गया है।

परिवर्द्धन के साथ गरीब की अस्मिता और सम्मान-बोध पर प्रश्न-चिन्ह लगने लग गया है। पारम्परिक समाजों में सम्पन्न वर्ग अच्छे भवनों में रहता है, और गरीबों की झोपड़ियाँ होती हैं । अमीर मँहगे और आधुनिक परिधान पहनते हैं, जब कि गरीब के पास एक जोड़ा पारम्परिक पहनावा रहता है एक पहनता है, तो दूसरा धोता है। पर मोटामोटी तौर पर साफ-सुथरा रह लेता है। धनी नाना व्यंजन और पकवान का भोजन करते हैं तो गरीब को भी रूखासूखा जुट जाता है। पारम्परिक समुदायों में परिवेश की प्राकृतिक सम्पदा पर सब का साँझा होता है, इसलिए गरीब नि:स्व नहीं होता। गरीबों की जीवन-शैली अमीरों से स्पष्टत: भिन्न होती है, पर इन समाजों में गरीब अनेक स्थितियों में अपनी उपस्थिति महत्वपूर्ण बना सकने में समर्थ होते हैं। परिवर्द्धन के साथ-साथ अमीर-गरीब की जीवन-शैलियों का अन्तर समाप्त होने लगा; वह अन्तर गरीबों की अस्मिता और सम्मान को पूरी तरह नष्ट होने से बचाता था। परिवर्द्धन ने महानगरों के साथ-साथ झुग्गी-झोपड़ियों को अस्तित्व दिया, उभाड़ा । परिवेश के संसाधनों पर की साँझी विरासत में सेंध पड़ी; गरीब निस्व(destitute) होने लग गया।

हम देखते हैं कि परिवर्द्धित समुदायों में गरीबों के पास वे सारी वस्तुएँ हैं जो अमीरों के पास होती हैं। फर्क है कि उनकी वस्तुएँ सस्ती,और घटिया हैं। झुग्गी-झोपड़ियों में कम दाम पर खरीदे गए टेलिविज़न, फ्रिज़, फुटपाथ पर खरीदे हुए जिन्स और सोफा-सेट तक (जिनके अंजर-पंजर ढीले हों) का होना आम बात हो गई हैं। पारम्परिक समुदायों की तुलना में यहाँ नशाखोरी और अपराध कर्म काफी अधिक हुआ करते हैं तथा आपसी सरोकार और मनोरंजन के लिए ये जन-सम्प्रेषण के साधनों पर निर्भर रहने को दुर्दशापूर्ण रूप से मजबूर रहते हैं। परिवर्द्धन के वर्तमान प्रारूप ने गरीबों के उस सुरक्षा-कवच को नष्ट कर दिया जिससे वह अपनी पहचान कर पाता था तथा अपने लिए लक्ष्य निर्द्धारित करता था। परिवर्द्धन से गरीबी में कमी शायद आई है, पर नि:स्वता(destitution) में वृद्धि हुई है।

आधुनिकता की उपभोक्तावादिता द्वारा निर्देशित परिवर्द्धन व्यवस्था (Developmental regime) ने सम्पन्न वर्ग की संवेदनहीनता के स्तर में स्पष्ट वृद्धि की है। इनके आचरण में परिवेशीय विवेक (ecological conscience) का नितान्त अभाव रहा करता है। इसलिए भी परिवर्द्धन के वर्तमान प्रारूप के परीक्षण की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता इसे इसलिए तो अपरिहार्य नहीं मान लिया जाना चाहिए कि मानवीय विचक्षणता ने इससे बेहतर विकल्प का आविष्कार नहीं किया है।

कृषक तथा ओद्यौगिक समुदायों के बीच मौलिक अन्तर वृद्धावस्था के प्रति उनके दृष्टिकोण में हुआ करता है। खेतिहर समाज में बुजुर्ग अपने आप में तथा जमीन, जलवायु, ऋतुओं के सम्बन्ध में अपनी जानकारियों और अनुभवों के लिए, विशिष्ठ रुप से सम्मानित रहा करते हैं । युवा खेतिहर बुजुर्ग खेतिहर से मार्गदर्शन चाहा करता है; अनभिज्ञ बुनकर अनुभवी बुनकरों से सीखा करते हैं। प्राक्-आधुनिक काल में, सामाजिक और घरेलू ज़िन्दगी का आधार पीढ़ियों के बीच घनिष्ठ मेलजोल हुआ करता था। किन्तु ओद्यौगिक समुदायों में बूढ़ों की स्थिति परिवार में असहज और अस्वस्तिकर हो जाती है। उनको छोटों से आदर नहीं, उपेक्षा मिला करती है। इसकी एक वजह आधुनिक काल में तेजी से हो रहा तकनीकी परिवर्तन है। आदमी अपनी युवावस्था में जो हुनर सीखा होता है, वे उसके बूढ़े होने तक पूरी तरह अनुपयोगी हो चुके होते हैं। साठ के दशक के वकील सामान्यतः बौद्धिक सम्पत्ति के कानून की बारीकियों से परिचित नहीं हुआ करते तथा सेवा-निवृत्त चिकित्सकों को open-heart surgery में हुई प्रगति का कोई सुराग़ नहीं हुआ करता। हमारे काल में बूढ़े यथार्थ में किसी ‘उपयोग ‘ के नहीं होते और इसलिए वे अपने आप के दरबों में निर्वासित कर दिए गए होते हैं। आज की विडम्बना है कि आयु-सीमा में नाटकीय प्रगति हुई है, यह और बात है कि आज के बूढ़ों को जीने के मुकाबले मरने के हक़ में अधिक वज़हों का होना महसूस हुआ करता है।

 

 

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