समाजवाद के भगवा – संस्करण के साथ भाजपा ने बिहार में महागठबंधन को एक झटका तो जरूर दे दिया है l विरोधाभास की खोखली राजनीति में विरोधियों में ‘खुजली’ पैदा करना भी रणनीति का अहम हिस्सा होता है और इस फ्रंट पर भाजपा सफल होती दिख रही है l मोदी और मुलायम के बीच की ‘मुलायमियत’ का खुलासा जब मैंने प्रधानमंत्री जी के बांगलादेश दौरे के ऐन पहले किया था तो अनेकों ‘राजनीतिक पंडितों’ ने ये कहकर मेरा मज़ाक भी उड़ाया था कि ये मेरी कपोल-कल्पना है , “समय आने दीजिए सब साफ हो जाएगा” बस यही कह कर मैंने अपना पक्ष रखा था , आखिरकार आज स्थिति स्पष्ट हो ही गई l
आइए अब आते हैं मुख्य-मुद्दे पर , महागठबंधन से मुलायम के अलग होने का निर्णय कथित समाजवाद व तीसरे विकल्प (मोर्चे) की जटिलताओं में बिखरने की पुरानी कहानी को एक बार फिर से दुहराता और साबित करता दिखता है l बिहार विधानसभा चुनाव के संदर्भ में अगर इसे देखा जाए तो ऐसा नहीं है कि इससे महागठबंधन प्रभावित नहीं होगा , भले ही प्रभाव का असर बहुत व्यापक न हो ! लेकिन उत्तरप्रदेश की सीमा से सटी २० सीटों और पूर्वाञ्चल के आठ जिलों की यादव-मुस्लिम बहुल सीटों पर समाजवादी पार्टी और उसका संभावित गठबंधन महागठबंधन के वोट – बैंक में डेंट तो जरूर करेगा l अगर समाजवादी पार्टी के साथ वाम-दल भी जुडते हैं तो अति-पिछड़ा व दलित मतों के त्रिकोणीय विभाजन से भी इंकार नहीं किया जा सकता l यहाँ सबसे अहम और दिलचस्प ये देखना होगा कि पप्पू यादव और समाजवादी पार्टी के बीच कैसे समीकरण उभरते हैं ? अगर पप्पू यादव के साथ समाजवादियों की कोई प्रत्यक्ष – अप्रत्यक्ष गांठ जुड़ती है ( जिसकी संभावना प्रबल है , ज्ञातव्य है कि पप्पू यादव पूर्व में समाजवादी पार्टी की प्रदेश इकाई की कमान भी संभाल चुके हैं और कल समाजवादी पार्टी के निर्णय के पश्चात समाजवादी पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को फीलर्स देता हुआ उनका बयान भी काफी अहमियत रखता है ) तो यादव मतों में बिखराव देखने को मिल सकता है l इस बिखराव की व्यापकता क्या पूरे बिहार को प्रभावित करेगी ये कहना अभी मुश्किल है , कारण भी हैं अभी कौन से सीट किसके खाते में जाएगी ये घोषणा नहीं हुई है , उम्मीदवारों का चयन बाकी है और कौन सा गठबंधन कैसा स्वरूप लेगा ये भी बहुत स्पष्ट नहीं है l
समाजवादी पार्टी के इस निर्णय से महागठबंधन को सबसे बड़ा नुकसान पूर्वाञ्चल में ही संभावित है , इसके कारण भी स्पष्ट हैं
१. पहली अहम बात….. इस इलाके में यादव –मुस्लिम समुदाय में पप्पू यादव की पकड़ को नजरंदाज नहीं किया जा सकता l साथ ही इस क्षेत्र का यादव समुदाय लालू यादव के साथ कभी भी बहुत सहज नहीं रहा है , शरद यादव की जीत और लालू यादव की हार से इसे समझा जा सकता है l
२. दूसरी अहम बात….. जो इस क्षेत्र में लोगों के बीच अपने बिताए गए अनुभव के आधार पर मैं कह रहा हूँ , इस इलाके के यादव खुद को बिहार के अन्य इलाकों के यादवों से , प्रबुद्ध , ऊपर का और अभिजात्य मानते हैं और इसी संदर्भ में एक लोकोक्ति भी काफी प्रचलित है “रोम का (में) पोप और मधेपुरा का (में) गोप l” इस इलाके का यादव समुदाय बिहार के अन्य इलाकों के यादवों की तुलना में पहले से समृद्ध भी रहा है और यादवों की सही मायनों में जमींदारी बिहार में कहीं भी रही है तो वो इसी इलाके में रही है और इसी पृष्ठभूमि की मानसकिता के साथ इस इलाके के यादव समुदाय का एक बड़ा हिस्सा मुलायम सिंह परिवार को अपने विस्तृत व प्रोग्रेसिव स्वरूप के रूप में भी देखता है l
३. इस संदर्भ में तीसरी सबसे अहम बात….. अगर समाजवादी पार्टी अपने पूरे दम-खम के साथ चुनावों में उतरती है और उत्तर-प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव के सघन चुनावी दौरे बिहार में होते हैं तो यादव समुदाय के युवा तबके का एक बड़ा हिस्सा अगर समाजवादी पार्टी के साथ खड़ा हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं ! बिहार के युवा यादवों की एक बड़ी आबादी अखिलेश यादव को अपने रोल-मॉडल के रूप में देखती है और संवाद के दौरान ये खुले तौर पर कहती है कि “लालू जी के दोनों पुत्रों में अखिलेश वाली बात नहीं है l”
४. चौथी अहम बात जो मुझे दिखती है…. अगर ओवैसी की पार्टी पूर्वाञ्चल बिहार या बिहार के अन्य मुस्लिम बहुल या निर्णायक संख्या वाले मुस्लिम आबादी के क्षेत्रों से अपने उम्मीदवार खड़े करती है ( अगर सूत्रों से मिल रही जानकारी और ओवैसी के किशनगंज के सम्बोधन को आधार मानें तो ये लगभग तय ही है ) और तारिक अनवर के नेतृत्व में एनसीपी समाजवादियों के साथ आती है तो ऐसे में मुस्लिम मतों में चतुष्कोणीय विभाजन का नुकसान महागठबंधन के हिस्से में ही जाते दिखता है और वोट बंटने का भाजपा को सीधा फायदा होता दिखता है l
बिहार के भिन्न इलाकों से मिल रही खबरों , जानकारियों एवं अपने और अपनी टीम के लोगों के द्वारा आम जनता से किए गए सीधे संवादों के विश्लेषण के पश्चात मैं ये कह सकता हूँ कि “व्यापक संदर्भ में देखा जाए तो जैसी परिस्थितियाँ बन रही हैं , सारी विचारधारा को ताखे पर रखकर ‘जंग में सब कुछ जायज है’ का पालन करते हुए जैसे बिल्कुल ही नए और चौंकाने वाले समीकरणों के साथ भाजपा चुनावी समर में आगे बढ़ रही अगर इनमें कोई बड़ा फेरबदल चुनावों के पहले नहीं होता है तो आज की तारीख में बिहार में महागठबंधन की सत्ता में वापसी की राह में अनेकों रोड़े हैं और सत्ता हाथों से जाती ही दिखती है l” वैसे राजनीति अनिश्चितताओं का खेल है और चुनावों में समीकरण वोटिंग के चंद घंटों पहले तक बदलते-बनते-बिगड़ते हैं और इसी उम्मीद के सहारे महागठबंधन को कुछ नए समीकरणों की संभावनाएं तलाशनी होंगीं , कुछ नई रणनीतियों के साथ भाजपा को काउंटर करना होगा l
आलोक कुमार
आपने अपने ढंग से विश्लेषण तोअच्छा किया,पर जो असल मुद्दा है,उससे मुंह चुरा गए.मुलायम सिंह बन्दर घुड़की के शिकार हो गए. मेरे विचार से उनको बताया गया कि अगर आप इस महागठबंधन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं ,तो आपके बेटे के हाथ से यू पी की बागडोर छीनने का इंतजाम किया जाएगा.इसके साथ ही आपके सब मामलों पर नए सिरे से विचार शुरू हो जायेगा.इसके बाद नेता जी करते भी तो क्या?