डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत-पाक विदेश सचिवों की वार्ता जिस ढंग से टली है, वह यह बताता है कि दोनों देशों ने अपूर्व कूटनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया है। न तो भारत ने अपना ठीकरा पाकिस्तान के सिर फोड़ा है और न ही पाकिस्तान ने भारत के सिर! दोनों देशों के शीर्ष नेताओं के बीच निश्चय ही संवाद हुआ है और दोनों ने मिलकर यह संयुक्त फैसला किया है। जरा हम याद करें, पिछले उन दो मौकों को जब वार्ताएं टूटी थीं। एक हुर्रियत के बहाने और दूसरी कश्मीर के बहाने! दोनों सरकारों ने एक-दूसरे के सिर पर छप्पर रखने की कोशिश की थी। दोनों सरकारें अपने-अपने अतिवादियों के दबाव में थीं। दोनों में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे अपने अतिवादियों का मुंह बंद कर सकें लेकिन 25 दिसंबर की नरेंद्र मोदी की लाहौर-यात्रा ने ऐसा चमत्कारी माहौल पैदा कर दिया है कि दोनों सरकारों में अपने पांवों पर खड़े रहने का दम आ गया है।
यही वजह है कि मोदी ने अपने 56 इंच के सीने में ज्यादा हवा नहीं भरने दी। उन्होंने अपने विरोधियों के व्यंग्य-बाणों को अपनी चुप्पी के कवच पर झेला। वे बोले जरुर लेकिन नवाज़ शरीफ से। यदि वे पहले की तरह पठानकोट हमले पर उग्र प्रतिक्रिया करते तो उसके दो बुरे असर पड़ते। एक तो पाकिस्तान सरकार हमेशा की तरह पलटवार करती और दूसरा, भारत की जनता पूछती कि आप सिर्फ बातें ही बनाते रहते हैं या कुछ करके भी दिखाएंगे? मोदी के संयम ने उनके विरोधियों और पाकिसतान, दोनों को काबू कर लिया। मोदी के गंभीर और शांत रवैए ने सबसे ज्यादा मदद की मियां नवाज़ की! ऐसा पहली बार हुआ है कि पाकिस्तान की फौज ने अपने नेताओं की बात को तरजीह दी है। सेनापति राहील शरीफ ने नवाज़ शरीफ के साथ कदम से मिलाकर कदम उठाया है। इसीलिए यह भी पहली बार हुआ है कि किसी आतंकी घटना की जिम्मेदारी पाकिस्तान ने ली है। वरना, हमेशा पाकिस्तान कह देता है कि यह आतंकी वारदात भी भारत ने ही प्रायोजित की है ताकि वह पाकिस्तान को बदनाम कर सके। इस बार, दोनों शरीफों ने काफी शराफत का परिचय दिया है।
इस शराफत के पीछे अमेरिकी दबाव तो है ही। राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने मुख्य भाषण में पाकिस्तान का नाम लेकर कहा है कि वह अंतरराष्ट्रीय आतंक का गढ़ बन रहा है। इसके अलावा विदेश मंत्री जाॅन केरी ने भी नवाज़ शरीफ पर बार-बार जोर डाला है कि वे पठानकोट-कांड के षड़यंत्रकारियों को पकड़ें। इसी बीच सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि अमेरिकी संसद (कांग्रेस) ने पाकिस्तान को दिए जानेवाले एफ-16 लड़ाकू हवाई जहाजों के बारे में पुनर्विचार शुरु कर दिया है। इससे भी ज्यादा, मियां नवाज़ के हाथ इस बात से भी मजबूत हुए हैं कि पाकिस्तान के कई कूटनीतिज्ञों, राजनीतिक विश्लेषकों और कुछ प्रबुद्ध पत्रकारों ने बड़ी हिम्मत दिखाई और अपनी सरकार से मांग की कि वह पठानकोट के आतंकियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करे। पाकिस्तान के आम लोग भी अपने ही आतंकियों से बेहद तंग आ गए हैं। डेढ़ साल पहले फौज ने आतंकियों के खिलाफ जो जंगी अभियान चलाया था, उसमें उसने लगभग 10 हजार आतंकियों का सफाया कर दिया था। अब ऐसा लग रहा है कि पाकिस्तान आतंकियों और आतंकियों में फर्क करना बंद करने लगा है। पहले माना जाता था कि जो आतंकी हिंदुस्तान पर हमला करें, वे अच्छे हें और जो पाकिस्तान में ही हमला करते हैं, वे बुरे हैं। लेकिन पिछले पांच-छह साल के तजुर्बे ने पाकिस्तान को यह सबक सिखा दिया है कि भारत के मुकाबले उसे ज्यादा चोट पहुंची है। पाकिस्तान में ज्यादा लोग मरे हैं। पेशावर के सैनिक स्कूल के 150 बच्चों की मौत ने जनता का दिल दहला दिया था। यदि पाकिस्तान की सरकार और फौज अपनी जनता की इस भावना की कद्र करके अपना सोच बदल रही हैं तो भारत ही नहीं, दुनिया के सारे देश उसका स्वागत करेंगे। पाकिस्तान जो एक गुंडा राज्य (रोग स्टेट) के नाम से सारी दुनिया में कुख्यात हो चुका है, अब इस कलंक को अपने माथे से हटायेगा।
लेकिन असली प्रश्न यह है कि पाकिस्तान फिलहाल दिखावाट कर रहा है या सचमुच उसका हृदय-परिवर्तन हो रहा है? भारत सरकार भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं है। जहां तक नवाज का प्रश्न है, वे तो निश्चय ही भारत से मधुर संबंध बनाना चाहते हैं। वे मूलतः व्यापारी हैं। इसीलिए व्यावहारिक हैं और अमनपसंद हैं। लेकिन पिछले 70 साल से भारत के खिलाफ पाकिस्तान में जैसा विषैला प्रचार हो रहा है, अब उसका उल्टा पहिया घुमाना आसान नहीं है। मियां नवाज़ पाकिस्तानी पंजाब के हैं। पंजाब सारे प्रांतों से बड़ा है और पंजाब में ही सबसे ज्यादा भारत-विरोधी माहौल बना हुआ है। इसका फायदा उठाकर जेशे-मुहम्मद के सरगना अजहर मसूद ने मियां नवाज़ को चुनौती दी है। पाकिस्तानी सरकार की हिम्मत नहीं पड़ रही है कि वह यह साफ-साफ कहे कि उसने मसूद को गिरफ्तार कर लिया है। यदि गिरफ्तार कर भी लिया तो क्या हुआ? गिरफ्तार तो हाफिज सईद और लखवी को भी किया गया था। इस नाजुक मुकाम पर यह अच्छा हुआ कि भारत ने अपनी तरफ से वार्ता भंग नहीं की। उसने पाकिस्तान की डोर लंबी कर दी है। देखें, पाकिस्तान अपनी नट-चाल कैसे चलता है? यह तो साफ है कि पाकिस्तान आज इस स्थिति में नहीं है कि वह आतंकवाद की कमर तोड़ सके। उसे पता है कि लाल-मस्जिद पर हमला बोलकर मुशर्रफ ने कैसे अपनी गद्दी गंवाई थी लेकिन वह आतंकवाद की एक टांग तो तोड़ सकता है। तब तक औपचारिक संवाद टल जाएं तो टल जाए। यदि अभी दोनों सचिव मिलते तो मोदी की बड़ी किरकिरी होती। यों अभी अनौपचारिक संवाद तो कायम है ही और जोरों से है। दोनों प्रधानमंत्री, दोनों सुरक्षा सलाहकार, दोनों विदेश सचिव, दोनों देशों के पत्रकार फोन और टीवी चैनलों पर जो कर रहे हैं, वह संवाद नहीं तो क्या है? जनरल मुशर्रफ और हमारे रक्षामंत्री और सेनापति जो बयान दे रहे हैं, उनसे भी घबराने की जरुरत नहीं है। वे दोनों देशों के पुराने घिसे-पिटे रवैयों की पुनरावृत्ति कर रहे हैं। दोनों देशों के अतिवादियों के लिए वे चूसनियों (लाॅलीपाप) की तरह हैं। लेकिन मियां नवाज़ शरीफ यदि सचमुच मोदी की शराफत को ससम्मान लौटाना चाहते हैं और मोदी के विरोधियों का भारत में मुंह बंद करना चाहते हैं तो उन्हें भारत-विरोधी आतंकियों के सारे अड्डों को तुरंत नष्ट करना चाहिए। उन्हें पता होना चाहिए कि आतंकी किसी के सगे नहीं होते। श्रीलंका के आतंकियों ने राजीव गांधी के साथ और अफगान आतंकियों ने जनरल जिया के साथ जो किया है, वह किसी से छिपा नहीं है। मोदी और नवाज के लिए पठानकोट-हमला एक ऐसा एतिहासिक अवसर बन गया है, जो दोनों देशों की सत्तर साल पुरानी गांठों को खोल सकता है।
आशावादी होना बहुत अच्छी बात है.
कोई शक्ति तो है जो भारत को अपने पड़ोसियों से सम्बन्ध सुधारने के प्रयासों के राह में रोड़े अटका रही है। दक्षिण एशिया में अनेक सार्वभौम मुल्क है, लेकिन उन सब में एक रिश्तेदारी है। हमारे आपसी सम्बन्ध सुधरेंगे तो उसका लाभांश समृद्धि और शान्ति के रूप में प्रत्येक नागरिक को मिलेगा। लेकिन कोई शक्ति है जो नेता, पत्रकार, अतिवादी, ब्यूरोक्रैट में अपने एजेंटों को प्रयोग कर सम्बन्धो को सुधरने नही देती। आज दोनों देश उस अन्धकारयुगीन मानसिकता से ऊपर उठे है तो यह खुशी की बात है। लोग तो कुछ उलटा सीधा कहेंगे, दोनों तरफ। लेकिन काम सीधा हो। मुझे आज भी मरियम शरीफ का ट्वीट याद आता है जिसमे वह भारत और पाकिस्तान के आर्थिक एकीकरण की ख्वाइस रखती है।