मोदी एक, भाजपा और मुश्किलें अनेक

देवेश खंडेलवाल

गुजरात दंगे, विकास पुरुष की छवि, टाइम मैगजीन के कवर पेज पर दस्तक, प्रधानमंत्री बनने की जद्दोजहद ये है नरेन्द्र मोदी का छोटा सा परिचय, कहते है कि राजनीति में सब कुछ जायज़ होता है, सत्ता के अंधे युद्ध में कुछ भी कर गुजरने वाली हर चाल का मतलब सिर्फ जीत से ही होता है, वैसे भी ये राजनीति का कडवा सच है, और इस कडवे सच का सबसे बड़ा उदहारण गुजरात दंगों से बड़ा क्या हो सकता है. मोदी के लिए गुजरात दंगे एक उस ना छुटने वाले काले दाग की तरह है जिसे छुड़ाने की कोशिश में खुद के हाथ भी काले होने लगते है, खैर गुजरात वैसे तो दंगे से एक दशक आगे निकल आया है लेकिन इन दंगों की लपटे रह रह बाहर निकल कर आती है और मोदी के लिए मुसीबतें ही बढ़ाने का ही काम करती है.

एक दशक बाद ओडे दंगा मामले में दोषी पाए गए 23 लोगों को दोषी ठहराने से साफ़ है कि मोदी की राह अभी आसान नहीं है, लेकिन मोदी भी पीछे हटने वालो में से नहीं है, ओडे दंगा पर फैसला आने के ठीक एक दिन बाद ही मोदी को गुलबर्ग सोसायटी मामले में तो क्लीन चिट मिल गयी जो मोदी के लिए फ़ौरी तौर पर राहत

का काम करेगी.

राजनीति का एक उसूल होता है कि यहाँ कुछ भी निश्चित नहीं, और जो निश्चित है उसका भविष्य नहीं, नरेन्द्र मोदी इस बात को अच्छी तरह से जानते है अगर वो गुजरात के ही होकर रह गए तो उनका कोई भविष्य नहीं, इसलिए वे अब अपने भविष्य की तलाश में राष्ट्रीय राजनीति में अपना वजूद बनाने की फ़िराक में है, कयास लगाये जा रहे है कि अब उनकी इच्छा प्रधानमंत्री पद की है, हालाँकि इस दौड़ में उन्हीं की पार्टी के कई बड़े नेता भी लगे हुए है, यही नहीं मोदी की पार्टी के सहयोगी भी इस दौड़ में अपना नाम शामिल करवाने में कोई कसर छोड़ना नहीं चाहते, यानी एक पार्टी में ही प्रधानमंत्रियों की पूरी एक मंडी सज चुकी है, वैसे भी हमारे देश में ये प्रचलन में है. यहाँ का हर छोटा बड़ा नेता प्रधानमंत्री बनने का सपना जरुर देखता है, और ये भी एक बड़ी विडम्बना रही है इस देश की राजनीति में अधिकतर मौकों पर यहाँ “वैकल्पिक” व्यक्ति को ही प्रधानमंत्री चुना गया.

1995 में गुजरात विधानसभा चुनावों में भाजपा ने जब जीत हासिल की तो उसका सारा श्रेय नरेन्द्र मोदी को ही मिला, लेकिन मुख्यमंत्री बने केशुभाई पटेल, फिर भी नरेन्द्र मोदी का जलवा इतना था कि उस समय 33 मत्रियों वाली “जम्बो” केबिनेट का गठन किया गया जिसमें अधिकतर नाम नरेन्द्र मोदी की तरफ से थे. नरेन्द्र मोदी के बढ़ते प्रभाव ने पार्टी के अन्दर ही गुटबाजी की स्थिति पैदा कर दी हालात यहाँ तक बन गए कि तत्कालीन गुजरात भाजपा प्रदेश अध्यक्ष काशीराम राणा ने नरेन्द्र मोदी को पार्टी की कार्य समिति में जगह तक देने से मना कर दिया और उनकी जगह सुरेश मेहता को जगह दे दी गयी. गुजरात में मोदी को लेकर आलम ये था कि पार्टी कार्यकर्तायों और जमीनी कार्यकर्ताओं को छोड़ दे तो पार्टी के बड़े नेता मोदी को पसंद नहीं करते थे. यही कारण था कि मोदी को 6 सालों के लिए केंद्र में जाना पड़ा. मोदी तो चले गए गुजरात में हालत और बदतर हो गए गुजरात में भाजपा के अन्दर ही कई भाजपा बन गयी, आखिरकार मोदी गुजरात लौटे और इसी के साथ शुरू हो गया नरेन्द्र मोदी के लिए हर मौके पर एक अग्नि परीक्षा देने का सिलसिला. इस समय भी नरेन्द्र मोदी मुश्किल के दौर गुजर रहे है, एक तरफ गुजरात दंगों के 10 साल बीत जाने पर भी गुजरात दंगों का भूत मोदी का पीछा छोड़ने को तैयार नहीं है वही दूसरी ओर पार्टी में ही उनको लेकर कई मतभेद जारी है हालाँकि अपनी सदभावना यात्रा के दौरान उन्होंने अपना शक्ति प्रदर्शन कर बता दिया कि मोदी का साथ देने वालो की कोई कमी नहीं है चाहे वो पार्टी के लोग हों या फिर बाहर के, मोदी के सबसे महत्वपूर्ण समर्थकों में से एक है नितिन गडकरी, भाजपा ने राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी ने कई मौकों पर साफ़ कर दिया कि आगामी आम चुनावों में मोदी भाजपा के तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार होंगें. साफ़ है कि गडकरी ने आरएसएस के सन्देश को पार्टी की जुबान में बोल दिया लेकिन इसके साथ एक समस्या भी जुडी है कि गडकरी का कार्यकाल अगले लोक सभा चुनावों से पहले ही समाप्त हो जायेगा और अगर गडकरी जाते है और अगला पार्टी अध्यक्ष अगर आरएसएस कि मर्जी के खिलाफ बन गया तो संभव है कि मोदी कि समस्याएं और बढ़ जाएँगी. लेकिन भाजपा पहले ही इतने आत्मघाती कदम उठा चुकी है जिसका कोई हिसाब ही नहीं है, इसी बीच टाइम मैगजीन के अनुसार वे अब दुनिया की सबसे प्रभावशाली हस्तियों

में से एक है, मोदी के लिए ये शुभ संकेत हो सकता है, अब अगर मोदी गुजरात में भाजपा को फिर से सत्ता दिला दे तो इसके बाद ये मुमकिन है कि फिर मोदी को भाजपा की नहीं भाजपा को मोदी की जरुरत महसूस होने लगेगी.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछले कुछ सालों में मोदी मजबूत हुए है और उनकी पार्टी से हटकर अलग पहचान बनी है. लेकिन हाल ही की परिस्थिति पर नज़र डालें तो मोदी के लिए फिर से एक अग्नि परीक्षा की घडी सामने है. भाजपा के आल टाइम पीएम इन वेटिंग, लाल कृष्ण आडवानी अभी भी अपनी महत्वाकांक्षा को बनाए रखे हुए है. इस के लिए आडवानी तो कई बार मध्याविधि चुनावों कि बात जनता के सामने कह चुके है, क्योंकि आडवानी के लिए 2014 तक इंतेजार करना महंगा साबित हो सकता है, आडवानी अपनी राजनीतिक जीवन की ढलान पर है, और उनकी जगह भाजपा में दूसरी पंक्ति के नेता लेने लग गए है. संघ के लिए भी आडवानी अब ज्यादा चहेते नहीं रहे, और अब क्षेत्रीय नेता भी तेजी से राष्ट्रीय स्तर पर उभरने लगे है, इस बीच हाल ही के पांच राज्यों में विधान सभा चुनावों में भाजपा कमजोर हुई है, गुटबाजी ने पहले ही भाजपा को बेहाल कर रखा है. यही कारण है कि पार्टी अब कोई जोखिम भरा कदम नहीं उठा सकने के मूड में नहीं लगती है. भाजपा को इस बात का भी अंदेशा है कि अगर मध्याविधि अभी होते भी है तो उसका ज्यादा फायदा क्षेत्रीय दलों को ही मिलेगा. वैसे भी भाजपा के पास अब शिरोमणि अकाली दल, जदयू और शिवसेना के अलावा कोई सहयोगी नहीं है. जिसमें जदयू भाजपा को आँखे दिखाने में कोई कमी नहीं रखता. और अगर मध्याविधि चुनावों की स्थिति में क्षेत्रीय दल मजबूती के साथ उभर गए तो ना मोदी प्रधानमंत्री बन पायेंगे न ही आडवानी. और इसी के साथ ख़त्म हो जायेगा भाजपा का एक युग।

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