मोदी की मलाई न मिली तो मुंह फुला बन गए जनता परिवार

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-कुमार सुशांत-

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‘नाम’ के अनुरूप ही अगर राजनीतिक दलों का काम हो जाए तो क्या कहने। जनता परिवार का बैनर लिए 15 अप्रैल 2015 को जब छह दलों के मठाधीश एक मंच पर एकदूसरे का हाथ थामे मीडिया को जवाब दे रहे थे, उस वक्त ऐसा महसूस हो रहा था कि ये छह दल (सपा, सजपा, जदयू, राजद, इनेलो और जदएस) देश के प्रति कितने गंभीर हैं। हो भी सकते हैं। लेकिन पर्दे के पीछे की कहानी इतनी दिलचस्प है कि जनता परिवार की पोल-पट्टी खोल देती है, साथ ही यह बताती है कि जनता परिवार का फिर से भविष्य क्या होगा। अंदर की बात करें तो जिस समय से जनता परिवार के एक होने की बात हो रही थी, उसके बाद से विलय में इसलिए देरी हुई क्योंकि जनता परिवार में शामिल हुए कई नेता एनडीए की ओर इस उम्मीद के साथ देख रहे थे कि हो सकता है उन्हें बुलावा आ जाए, या बात बन जाए। इसी कड़ी का एक नतीजा था कि मुलायम सिंह यादव के पोते की सगाई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बुलावा भेजा गया। जो राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव कभी नरेंद्र मोदी से इस तरह की नजदीकी बनाने से परहेज करते थे, उस नीति को सपा प्रमुख ने चुटकी में आसानी से दूर कर दिया। प्रधानमंत्री उस समारोह में आए, इस बात से जदयू प्रमुख शरद यादव खासे नाराज थे। नाराज़गी यहां तक थी कि उन्होंने उस समारोह में प्रधानमंत्री से हल्की दुआ-सलाम ही की। शरद यादव को मुलायम के पीएम की ओर इस नजदीकी पर खासी आपत्ति थी। इसके तुरंत बाद मुलायम सिंह यादव ने तत्कालीन बजट सत्र के दौरान केंद्रीय रेल मंत्री द्वारा पेश रेल बजट की तारीफ भी कर दी। इसके बाद शरद यादव को इस बात का एहसास हो चुका था कि कहीं एनडीए में कुछ और उनके साथी न चलें जाएं। अंदर की खबर तो यहां तक है कि इससे पहले कि सपा और राजद लंबा हाथ मार लें, शरद यादव की ओर से एनडीए की तरफ सशर्त सांकेतिक दोस्ती का हाथ बढ़ा। इसी बढ़ती नजदीकी का नतीजा था कि लोक सभा में शरद यादव के सवाल का जब प्रधानमंत्री जवाब दे रहे थे तो उन्होंने जिस पुस्तक का संदर्भ देकर हुए उत्तर दिया, उस पुस्तक को प्रधानमंत्री ने शरद यादव के घर भी भेजवा दिया। लेकिन इस कहानी में नया मोड़ तब आया जब शरद यादव लोक सभा में दक्षिण भारत की महिलाओं पर विवादित बयान दे बैठे और एनडीए नेताओं की ओर से की जा रही पहल पर विराम लग गया। इसके बाद से ही शुरू हुआ जनता परिवार का फिर से नया खेल।

चलिए जनता परिवार का गठन हो भी गया, तो क्या यह परिवार सच में देश की समस्याओं को लेकर सरकार पर वार कर पाएगा ? ये सवाल इसलिए है क्योंकि यह परिवार पहले भी एकजुट हो चुका है, लेकिन नतीजा कुर्सी को लेकर रस्साकस्सी रही, और फिर टांय-टांय फिस्स… जनता परिवार अतीत में दर्जनों बार टूट चुका है। अलग-अलग गुट के नेता अलग-अलग पार्टी बना चुके हैं। इतिहास ये भी कहता है कि सियासी संकट के समय समाजवादी कुनबे ने सारे मतभेदों को ताक पर रखकर एक होने और सत्ता हासिल होते ही अलग-अलग राह पकड़ने में देर भी नहीं लगाई। बीते चार दशक में एक दर्जन से भी अधिक बार टूटने का इतिहास इसका गवाह है।

वर्ष 1977 में यह कुनबा जनसंघ समेत तब एक हुआ जब उसे आपातकाल लगाने वाली इंदिरा गांधी सरकार से दो-दो हाथ करने थे। हालांकि पहली बार सत्ता हासिल करने के महज तीन साल के अंदर इसमें शामिल दलों ने अपनी अलग राह चुन ली। 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रयास से लोकसभा में राजीव गांधी के नेतृत्व में सबसे बड़ी जीत हासिल करने वाली कांग्रेस के खिलाफ लोकदल, कांग्रेस एस और जनमोर्चा ने जनता दल का चोला पहना। मगर करीब एक साल बाद ही चंद्रशेखर और वीपी के मतभेद के बाद जनता दल बिखर गया। नब्बे के दशक में समाजवादी कुनबे की कई पार्टियों का जन्म हुआ। चंद्रशेखर ने सजपा बनाई तो मुलायम सिंह यादव ने सपा। इसी तरह जार्ज ने समता पार्टी बनाई तो अजित सिंह ने रालोद। दिग्गज नेता रामकृष्ण हेगड़े ने लोकशक्ति, लालू प्रसाद ने राजद, एचडी देवगौड़ा ने जदएस, रामविलास पासवान ने लोजपा का गठन कर अपनी नई राजनीतिक राह पकड़ी। नई सदी के पहले दशक में समता पार्टी को भंग कर जदयू अस्तित्व में आया।

इस बार के विलय के पीछे भी समाजवादी कुनबे के सामने अस्तित्व का संकट ही सबसे बड़ा कारण है। बीते लोकसभा चुनाव में अलग-अलग लड़ कर यह कुनबा विभिन्न राज्यों में हासिल हुई करारी हार के बाद अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। जाहिर है कि बहरहाल बिहार विधानसभा चुनाव एक हो चुके जनता परिवार के लिए लिटमस टेस्ट होगा। बिहार में जीत जहां जनता परिवार के लिए संभावनाओं के नए मार्ग खोलेगी तो हार पर इसके बिखरने की। बिहार में जीत के बाद बीजद और रालोद भी नए दल में शामिल हो सकते हैं तो तृणमूल कांग्रेस भी नई सियासी परिस्थितियों में इन कुनबे पर डोरे डाल सकती है।

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