नए क्षितिज पर भारत-भूटान संबंध

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-अरविंद जयतिलक-
modi in bhutan

भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पड़ोसी देश भूटान की यात्रा से दोनों देशों के संबंधों में निखार आया है। दशकों पुराने दरकते रिश्ते को संजीवनी मिली है और दोनों एक दूसरे के करीब आए हैं। प्रधानमंत्री मोदी की नजर में भूटान का कितना महत्व है इसी से समझा जा सकता है कि उन्होंने सत्ता संभालते ही सबसे पहले भूटान की यात्रा को तरजीह दी और ‘भारत के लिए भूटान और भूटान के लिए भारत’ की जरुरत बता दोनों देशों के अटूट रिश्तों को सहेजने की कोशिश की। उन्होंने भूटानी संसद के माध्यम से भूटान को भरोसा दिया है कि दोनों देशों के रिश्ते पहले से भी अधिक प्रगाढ़ होंगे, वहीं दुनिया को भी आभास करा दिया है कि ताकतवर भारत ही दक्षिण-एशियाई मूल्कों को समस्याओं के दलदल से उबार सकता है। रिश्तों में प्राण फूंकने के लिए भारत ने गेहूं, खाद्य तेल, दूध पाउडर और गैर बासमती चावल पर निर्यात पर लगी रोक से भूटान को मुक्त कर एक सराहनीय कदम उठाया है। निश्चित रूप से इससे भूटान की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी और वह खुद को भारत के और करीब पाएगा। प्रशंसनीय है कि बदलते वैश्विक परिदृष्य में दोनों देशों ने राष्ट्रीय हितों से जुड़े मसले पर कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ने और आतंकवाद के खिलाफ मिलकर लड़ने का संकल्प व्यक्त किया है। मोदी की भूटान यात्रा दोनों देशों के आर्थिक और सामरिक लिहाज से महत्वपूर्ण है।

भूटान के भौगोलिक और राजनीतिक परिदृष्यों पर नजर दौड़ाएं तो वह पूर्वी हिमालय में स्थित एक छोटा-सा स्वतंत्र देश है। 18000 वर्ग मील वाले इस देश की जनसंख्या तकरीबन 8 लाख है और अधिकतर भूटिया जाति के लोग हैं। भारत की पहल पर ही वह 1971 में संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बना और 1973 में निर्गूट आंदोलन में शामिल हुआ। भूटान सार्क का भी सदस्य है। भारत-भूटान संबंध निर्माण में 1949 की संधि का विशेष महत्व है। इस संधि के अनुसार दोनों देशों ने चिरस्थायी शांति सुनिश्चित करने का आश्वासन दिया है। संधि के मुताबिक भूटान सरकार विदेशी मामलों में भारत सरकार की सलाह को मानने के लिए सहमत है। भारत-चीन युद्ध के उपरांत भूटान ने प्रतिरक्षा का भार भारत को सौंप दिया। लेकिन फरवरी 2007 में जब भूटान सम्राट जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचूक की भारत यात्रा पर आए तो दोनों देशों ने संधि को संशोधित करते हुए इसमें एक नई बात जोड़ दी। वह यह कि दोनों देश एक दूसरे की संप्रभुता, स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखण्डता का सम्मान करेंगे। आज की तारीख में भूटान 53 देशों के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित कर चुका है। लेकिन उसकी चीन से बढ़ती नजदीकी भारतीय हितों और मूल्यों के खिलाफ है। गौर करें तो पिछले एक दशक में भारत-भूटान संबंधों में काफी उतार-चढ़ाव आए हैं। गत वर्ष जिस तरह भारत सरकार ने भूटान के संसदीय चुनाव से पहले केरोसिन और रसोई गैस की सब्सिडी पर रोक लगायी उससे दोनों देशों के बीच संबंधों में खटास पनपा।

हालांकि एक महीने बाद भारत सरकार ने सब्सिडी पर लगी रोक हटा ली। लेकिन बिगड़ते रिश्ते के लिए भूटान भी कम जिम्मेदार नहीं। गौर करें तो 2008 के बाद से ही भारत के संदर्भ में भूटान की रणनीति में बदलाव देखा जा रहा है। भूटान की प्राथमिकता में अब भारत के बजाए चीन आ गया है। भूटानी प्रधानमंत्री थिनले की चीन से आत्मीयता किसी से छिपा नहीं है। याद होगा पिछले वर्श रियो द जेनेरो में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान उन्होंने चीनी प्रधानमंत्री से मुलाकात की और 15 बसों का सौदा किया। इससे भारत बेहद नाराज हुआ और संभवतः उसी नाराजगी की वजह से भूटान को दी जाने वाली सब्सिडी पर रोक लगायी। अब यह माना जाने लगा है कि बदले वैश्विक माहौल में भूटान अब भारत की छाया से मुक्त होना चाहता है। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय मसलों पर भी उसकी नीति भारत से विपरीत रही। 1979 के हवाना गुटनिरपेक्ष सम्मेलन में जहां भारत बहुसंख्यक निर्गूट देशों के साथ कम्पूचिया की सीट को खाली रखने के पक्ष में था वहीं उसने कम्पूचिया की सीट पोल पोत समूह को देने का समर्थन किया। यही नहीं उसकी नीति परमाणु अप्रसार संधि के मसले पर भी भारत के खिलाफ है।

याद होगा 1981 में भूटानी विदेश मंत्री ने राश्ट्रीय असेंबली में घोशण की कि भूटान चीन के साथ द्विपक्षीय वार्ता करना चाहता है। इसके अलावा भारत-भूटान संबंधों में उत्तेजना के कुछ अन्य कारण और भी हैं। इनमें भूटान के आयात-निर्यात पर भारत के कानूनों का लागू होना प्रमुख है। गौरतलब है कि 1972 के व्यापार समझौते की धारा 5 में इसकी व्यवस्था है। हालांकि नवंबर 1977 में बतौर विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने भूटान यात्रा की तो भरोसा दिया कि ये नियम अब भूटान के आयात-निर्यात पर लागू नहीं होंगे। पर्यटकों के लिए आंतरिक परमिट व्यवस्था को लेकर भी भूटान की भारत से नाराजगी है। उसका कहना है कि विदेशी पर्यटकों को भूटान आने में परमिट न मिलने से उसे राजस्व की हानि होती है। निश्चित रूप से इस पर विचार किए जाने की जरूरत है। अगर भूटान को आर्थिक नुकसान पहुंचेगा तो निश्चित रूप से उसका झुकाव पड़ोसी देश चीन की ओर होगा। हालांकि भारत भूटान को जन व धन दोनों की सहायता करता है। भूटान की कृषि, सिंचाई और सड़क परियोजनाओं में भारत लगातार सहयोग कर रहा है। भूटान की जिन प्रमुख परियोजनाओं में भारत ने सहयोग किया है उनमें चुक्ख हाइडिल परियोजना और पेनडेना सीमेंट संयंत्र प्रमुख है। गौरतलब है कि भारत की सहायता से निर्मित भूटान प्रसारण केंद्र और चुक्ख जल परियोजना से ही भूटान को कुल राजस्व का लगभग आधा राजस्व प्राप्त होता है। 2010 में भारत ने भूटान में दो अन्य जल विद्युत परियोजनाओं मांगदेछू परियोजना तथा पुनदसांगहू की आधारशिला रखी। भारत ने पेनडेना सीमेंट संयंत्र खोलने के लिए तकरीबन 1300 करोड़ रुपए मदद दी। भूटान में माध्यमिक और उच्चतर षिक्षा को बढ़ावा देने के लिए भारत पर्याप्त अनुदान देता है। भारत की सहायता से चल रही छिपेन रिगपेल आइटी परियोजना से भूटान की आधी जनसंख्या आने वाले पांच वर्षों में कम्प्यूटर साक्षर हो जाएगी। भूटान यात्रा पर गए प्रधानमंत्री मोदी ने भूटानी छात्रों की छात्रवृत्ति को दोगुना कर एवं भूटान में डिजिटल लाइब्रेरी की स्थापना में मदद का भरोसा देकर भूटान को और करीब आने का मौका दिया है। भारत भूटान के सचिवालय निर्माण में भी मदद किया है। इसके अलावा भूटान के सांस्कृतिक स्मारकों यानी मठों व विहारों के जीर्णोद्धार के लिए भी भारत बराबर आर्थिक सहायता प्रदान करता है।

यह तथ्य है कि पिछले एक दशक में दोनों देशों के संबंधों में कडुवाहट आयी है और चीन की भूटान में घुसपैठ भारत की चिंता का सबब बना है। जबकि भारत की प्रतिरक्षा के संदर्भ में भूटान का अत्यधिक महत्व है। भारत की उत्तरी प्रतिरक्षा के संदर्भ में भूटान को भेद्यांग की संज्ञा दी जाती है। गौर करें तो चुम्बी घाटी से चीन की सीमाएं सिर्फ 80 मील हैं। अगर चीन चुम्बी घाटी तक रेल लाइन बिछाने में कामयाब हो जाता है तो वह उत्तरी बंगाल, असम और अरुणाचल प्रदेश को आसानी से भारत से काट सकता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि चीन भूटान की सामरिक अविस्थिति का लाभ उठाने के लिए सदैव तत्पर रहता है। पशुओं को चराने के बहाने वह अनगिनत बार भूटान की सीमाओं को अतिक्रमण भी कर चुका है। दरअसल वह भूटान-तिब्बत की वर्तमान प्राकृतिक सीमा को स्वीकारता ही नहीं। वह 1959 से भूटान में रह रहे 4000 से अधिक तिब्बतियों को भी भूटान से निकलवाने पर आमादा है। उसके इशारे पर भूटान कई बार षरणार्थी तिब्बतियों को अल्टीमेटम भी दे चुका है। भूटान का कहना है कि वह या तो भूटान की नागरिकता स्वीकार कर भूटानी समाज में घुल मिल जाएं या उन्हें बाहर खदेड़ दिया जाएगा। चीन के इशारे पर भूटान की यह धमकी भारत के हितों के खिलाफ है। अगर तिब्बती शरणार्थी भूटान, नेपाल या भारत की नागरिकता स्वीकार कर लेते हैं तो फिर तिब्बत की स्वाधीनता का मसला नेपथ्य में चला जाएगा और भारत का चीन पर दबाव बनाने का अवसर खत्म हो जाएगा। बहरहाल मोदी की यात्रा से भूटान का भारत पर भरोसा बढ़ा है और संबंधों को नया क्षितिज मिला है।

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