मोदी ने मुसलमानों का बोझ उतार दिया!

पश्चिम एशिया की एक संकरी पट्टी में स्थित इस्राइल की स्थापना को अगले साल 70 वर्ष पूरे होंगे। ब्रिटिश गुलामी से मुक्त होकर विखंडीत रूप में ही सही लेकिन स्वतंत्र होकर भारत को इस वर्ष अगस्त में 70 साल पूरे होंगे। यानि ये एक के बाद एक जन्मे हुए भाई है। लेकिन इस दौरान उनकी ओर इस्राइल नामक देश की ओर झांकने की भी फुर्सत भारत को नहीं हुई। कारण था भय! खुद को धर्मनिरपेक्ष कहलानेेवाली कांग्रेस ने मान्यता बनाई, औरों की भी बनवाई, कि मुसलमानों को अपने देश से ज्यादा अपने धर्म से प्यार है और व्यवहार भी उसी तरह किया। राजकाज का पौरोहित्य करनेवाले विचारकों ने भी उसी लकीर को आगे बढ़ाया और एक देश को बहिष्कृत कर दिया। यही लोग भारत वंशवादविरोधी होने तथा सहिष्णू होने का ढकोसला दुनिया के सामने करते रहे!

इस्राइल का झगड़ा फिलिस्तीन से था और फिलीस्तीन यानि मुस्लिम यह समीकरण हमने पक्का कर लिया था। इस्राइल और फिलीस्तीन एक दूसरे से अटूट रूप से जुड़े होंगे भी, लेकिन इस कारण भारतीय मुसलमान और फिलीस्तीनी मुसलमान भी एक दूसरे से जुड़े हो, यह धारणा गलत है। इसके दीगर भी फिलिस्तीन यानि मुस्लिम नहीं है, वहां ईसाई भी हैं। लेकिन सन् 1948 से नेहरूवादी विचारधारा ने इस धारणा का बीज बोया और मुसलमानों को भारत से तोड़ने के पूरे प्रयास किए। मुसलमानों को भारतीय पहचान दिलाने की बजाय उन्हें पाकिस्तानी या अरबी पहचान दिलाने में इन लोगों ने अपना जीवनोद्देश पाया। इसीलिए, फिलीस्तीनी लोगों का दुश्मन हमारा भी दुश्मन इस तरह की गलत धारणा बोई गई।

यहूदी, ईसाई और इस्लाम ये तीनों धर्म इब्राहीम (अब्राहमिक) कुल के है। इनका संघर्ष तीन सगे भाईयों का संघर्ष था। नवजात भारत को उसमें पड़ने का कोई कारण नहीं था। लेकिन भारतीय मुसलमानों को भारतीय के रूप में न देखने की परिणति एक भाई का पक्ष लेने में हुई। यासिर अराफात जैसे आतंकवादी को समर्थन देकर इसकी हद हो गई। दुनिया में हवाई जहाज के अपहरण की तकनीक अपनानेवाला यह पहला आतंकवादी। उसकी स्वतंत्र फिलिस्तीन सरकार को सऊदी अरब और मिस्र से भी पहले समर्थन देनेवाली सरकार थी इंदिरा गांधी की। इसी अराफात ने मुस्लिम देशों के संगठन में कश्मीर समस्या पर भारत के दांत खट्टे किए – एक बार नहीं, बार बार! और उसका ऋण हमने नेहरू और इंदिरा गांधी के नाम पर पुरस्कार देकर हमने चुकाया।

इसका मतलब यह है, कि भारत के मुसलमानों के न चाहते हुए भी उन्हें कहा गया, कि ‘तुम फिलीस्तीन वाले, तुम सऊदी अरबवाले’ वगैरह। ‘कौमी इत्तेहाद’ (धार्मिक एकता) का जुआ उनकी गर्दन पर जोता गया। उन पर बिंबित किया गया, कि इस्राइल उनका प्राकृतिक दुश्मन है। उनकी स्वदेशी धारणा इतनी खोखली की गई, कि दूर किसी म्यांमार में कत्ल होनेवाले लोगों के लिए वे मुंबई में उधम मचाने लगे।

इसलिए ‘इस्राइल से बचके रहना’ की भूमिका अपनाई गई। किसी प्रधानमंत्री द्वारा उस देश का दौरा करना तो बहुत दूर है। इस्राइल से हमारे राजनयिक संबंध स्थापित ही हुए सन् 1992 में। क्योंकि इस बात का हौव्वा हमेशा खड़ा किया, कि इस्राइल का नाम निकालते ही मुस्लिम मतदाता सरकार से नाराज़ होंगे। साथ ही बाकी के अरब देश भी नाराज़ होंगे, इस बात की दहशत भी थी। उनकी नाराज़गी मोल लेने की हिम्मत नहीं थी, क्योंकि एक तो ये सारे देश इस्लामी थे। साथ ही वे भारत के ग्राहक भी थे। अनाज, सब्जियां, फल आदी माल बड़े पैमाने पर वहां भारत से जाता था। वैकल्पिक बाजार खोजने की ज़रूरत भी महसूस नहीं होती थी।

आज स्थिति बदल गई है। पिछले 25 वर्षों में इस्राइल ने अपनी उपयुक्तता बार-बार साबित की है। सिंचाई भ्रष्टाचार का नहीं, बल्कि विकास का विषय है, यह अकेले महाराष्ट्र से सैकड़ों किसान वहां जाकर खुद देख आए है। इसके अलावा भारत के समक्ष उपस्थित आतंकवाद के मुद्दे पर इस्राइल कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा हैं।

जब प्रधानमंत्री मोदी यात्रा कर रहे थे, उसी दिन इस्राइल के विदेश मंत्रालय के उपमहासचिव मार्क सोफर ने यरूशलम में संवाददाताओं से कहा, “इस्राइल ने कभी यह तथ्य नहीं छुपाया कि वह आतंकवाद के मामले पर भारत का पूरी तरह समर्थन करता है…हम बदले की कार्वाई की मांग नहीं कर रहे हैं। आप केवल पाकिस्तान से पैदा होने वाले आतंकवाद से ही पीड़ित नहीं है बल्कि भारत के भीतर के आतंकवाद से भी पीड़ित है। हमारा मानना है कि भारत को आतंकवाद से अपनी रक्षा करने का उसी प्रकार अधिकार है जैसे इस्राइल को आतंकवादियों के खिलाफ अपनी रक्षा करने का अधिकार है। हम एक जैसे संकट का सामना कर रहे हैं। मुझे लश्कर ए तैयबा एवं हमास के बीच कोई अंतर नहीं दिखता। मुझे कभी कोई अंतर नजर नहीं आया और न ही आज कोई फर्क नजर आता है। आतंकवादी एक आतंकवादी होता है। हम बुरी ताकतों के खिलाफ स्पष्ट रूप से समान संघर्ष कर रहे हैं।” सोफर भारत में इस्राइल के राजदूत रह चुके है।

नरेंद्र मोदी का बड़प्पन यह है, कि अपने पूर्ववर्तियों के इस बोझ के नीचे वे झुके नहीं है। “भारत के प्रधानमंत्री द्वारा इस्राइल का दौरा करना पाप है, फिलीस्तीनसहित सभी मुस्लिम देशों की नापसंदगी को आमंत्रित करना है,” ऐसे विचारों को उनके पास जगह नहीं है। इसीलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस्राइल जानेवाले वे पहले प्रधानमंत्री है। वास्तव में, इस दौरे में जो समझौते-अनुबंध होंगे वे दीगर है, लेकिन उनका प्रमुख योगदान अलग ही होगा। भारतीय मुसलमानों की गर्दन से एक जुआ उन्होंने उतार फेंकाहै। फिलिस्तीन में या कतर में क्या होता है इससे उसका कोई संबंध नहीं है, यह उन्होंने दिखा दिया है।

आज इस्राइल में मोदी का जो स्वागत किया जा रहा है, उससे हमें अंदाजा हो जाएगा, कि एक दोस्त को हमने कितना तरसाया है। “मेरे मित्र भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अगले सप्ताह इस्राइल आ रहे है। यह इस्राइल की एक ऐतिहासिक यात्रा है। हमारे देश के 70 वर्षों के अस्तित्वकाल में किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने यात्रा नहीं की है। इजरायल के सैन्य, आर्थिक और कूटनीतिक ताकत की यह झलक है,” प्रधानमंत्री मोदी की यात्रा से नौ दिन पहले इज़रायली प्रधानमंत्री नेतनयाहू का किया यह वक्तव्य है।

“इन दोनों देशों के बीच संबंधों को मजबूत बनाने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम है,” नेतनयाहू ने कहा था।

इस्राइल की मीडिया ने भी इस यात्रा को काफी महत्त्व दिया है। ‘द मार्कर’ अखबार ने कहा है, कि मोदी दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण प्रधानमंत्री है। ‘येरूसलम पोस्ट’ ने पहले पृष्ठ पर शीर्षक दिया है ‘नमस्ते मोदी’। ‘इस्राइल हैलोम’ नामक हिब्रू समाचारपत्र ने देवनागरी लिपी में नमस्ते शीर्षक दिया है।

इसलिए इस्राइल भारत का कितना मित्र है अथवा इससे भारत को क्या मिलेगा, इसके पार भी इस यात्रा का महत्त्व है तो इस लिहाज़ से!

देविदास देशपांडे

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