मोदी का उपवास पीएम बनने की क़वायद या पश्चाताप?

शक क्यों न हो राजनेताओं ने अपनी विश्वसनीयता गंवा दी है!

इक़बाल हिंदुस्तानी

गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी ने सुप्रीम कोर्ट के अपने पक्ष में दिये गये एक फैसले के बाद जिस तरह से तीन दिन का उपवास सद्भावना के लिये रखा उसका मतलब अलग अलग निकाला जा रहा है। हालांकि इसका मक़सद एकता के लिये प्रार्थना बताया जा रहा है लेकिन उनके विरोधी और खासतौर पर कांग्रेसी शंकर सिंह वाघेला इसे ढोंग बताने के बावजूद खुद इसी तरह का उपवास कर रहे हैं। मोदी इस उपवास के ज़रिये जो संदेश देना चाहते हैं उसके लिये उन्होंने प्रदेशवासियों के नाम एक चिट्ठी भी लिखी है जिसको पूरे देश की जनता तक पहुंचाने के लिये अख़बारों और टीवी चैनलों पर प्रकाशित और प्रसारित किया गया है। मोदी ने अपने उपवास को एक मिशन का नाम दिया है और देश के साथ साथ इस को समाज को भी समर्पित किया है। इस अभियान का उद्देश्य सभी के लिये एकता, सौहार्द और भाईचारे की कामना बताया गया है। चिट्ठी में मोदी ने यह माना है कि 21वीं सदी की शुरूआत गुजरात के लिये अच्छी नहीं रही जिसमें भूकंप से लेकर 2002 के दंगों में गयी बेकसूर लोगों की जान और माल के नुकसान को दुःखद दौर स्वीकार किया गया है। मोदी ने यह तो कबूल किया कि वे कसौटी के दिन थे लेकिन यह नहीं माना कि इस परीक्षा मंे वे जानबूझर भी नाकाम रहे। यह ठीक है कि आज गुजरात विकास कर रहा है लेकिन यह सच मोदी को अब पता लगा है कि शांति, एकता, सद्भाव और भाईचारे का वातावरण ही प्रगति को सही दिशा में ले जा सकता है। मोदी का दृढ़ता से यह मानना कि जातिवाद के ज़हर और साम्प्रदायिक उन्माद ने कभी किसी का भला नहीं किया, अगर सच है तो सुखद आश्चर्य का विषय है। साथ ही ‘गुजरात ने भी यह बात समझ ली है’ कहना एक तरह से यह माना जा सकता है कि मोदी और उनकी भाजपा ने भी यह वास्तविकता स्वीकार कर ली है। ऐसी विकृतियों से ऊपर उठकर गुजरात ने सर्वसमावेशी विकास का मार्ग अपनाया है यह बताता है कि धर्मनिरपेक्षतावादियों की यह दलील देर से ही सही मोदी को माननी पड़ी है कि विकास का असली मतलब क्या होता है।

इतना ही नहीं घोर साम्प्रदायिक, संकीर्ण और अहंकारी माने जाने वाले मोदी ने यह पहली बार कहा है कि वे उन लोगों के आभारी हैं जिन्होंने पिछले दस सालों में उनका ध्यान उनकी वास्तविक गल्तियों की ओर आकृष्ट किया है। मोदी अब तत्कालीन एनडीए सरकार के पीएम वाजपेयी की राजधर्म निभाने की सलाह पर भी सहमत होते नज़र आ रहे हैं जिसमें वे कहते हैं कि राज्य का सीएम होनेे के नाते हर नागरिक की पीड़ा उनकी अपनी पीड़ा है और सभी को न्याय मिले यह राज्य का कर्तव्य है। सबका साथ सबका विकास का नारा भी मोदी की पहले की हिंदूवादी एकतरफा छवि से छुटकारा पाने का प्रयास नज़र आता है। देश एकता और विविधता की बेहतरीन मिसाल मान लेने वाले मोदी मन से यह मानते हैं या नहीं यह तो उनका मिशन पीएम पूरा होने के बाद ही पता चल सकता है, बहरहाल सवाल यह अहम है कि उनकी मातृसंस्था आरएसएस उनको केवल बदला हुआ प्रोजेक्ट करना चाहती है या अपना सदियों पुराना नज़रिया बदलकर कथनी करनी एक रखते हुए इस देश की राजनीति और व्यवस्था को आमूल चूल बदलकर भ्रष्टाचार और अन्याय से वास्तव में मुक्त करना चाहती है।

जहां तक अमेरिका का सवाल है उसे मोदी,भाजपा या गुजरात से कोई लेना देना नहीं है उसका तो एक सूत्री प्रोग्राम यह है कि कल अगर राहुल गांधी या कांग्रेस की बजाये भारत के लोग सत्ता का ताज मोदी के सर पर रख देते हैं तो साम्प्रदायिकता, दंगे और संकीर्णता का चोला उतारकर मोदी अभी से एकता और भाईचारे का तानाबाना बुनते नज़र आयें जिससे हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और वाली कहावत लागू होती नज़र आये तो कोई बुराई नहीं है लेकिन मोदी की दंगों और अहंकार वाली छवि के रहते उनको जैसा का तैसा स्वीकार करना अमेरिका के लिये मुश्किल होगा। यह सारी कवायद कोर्ट के जिस फेसले को लेकर चल रही उसमें सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात मंे गोधरा कांड के बाद हुए दंगों की एक अहम घटना गुलबर्ग सोसायटी के मामले में यह फैसला दिया है कि इस केस की सुनवाई पहले नियमानुसार निचली अदालत में ही की जाये। इस एक तकनीकी पहलू को गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा ने इतना बड़ा मुद्दा बना दिया है मानो सुप्रीम कोर्ट ने उनको दंगों में बेदाग घोषित कर दिया हो या फिर यह मान लिया हो कि गुजरात मंे दंगा ही नहीं हुआ। सच तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने ही इससे पहले दंगो से जुड़े कई बेहद गंभीर मामले गुजरात से दूसरे राज्यों में केवल इस आशंका से स्थानान्तरित कर दिये थे क्योंकि मोदी की विवादास्पद छवि को देखते हुए कोर्ट ने यह मान लिया था कि गुजरात में निष्पक्ष सुनवाई संभव नहीं है।

गुलबर्ग सोसायटी वाले मामले में दंगाइयों ने कांग्रेसी सांसद एहसान जाफरी सहित सैकड़ों लोगों को पुलिस की मौजूदगी में ज़िंदा जलाकर मार डाला था। यह भी चर्चा है कि जब जाफरी ने मोदी से संपर्क करने का प्रयास किया तो उनसे तो जाफरी की बात नहीं हो पाई लेकिन मोदी की तरफ से भी उनको निराशाजनक जवाब ऐसा ही दिया गया जिसका मतलब यह निकलता था कि अब अपनी हाईकमान सोनिया गांधी से कहो कि वह आपको बचायें। यह तो दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि इन बातों में कितनी सच्चाई है लेकिन यह सच आईने की तरह बिल्कुल साफ है कि मोदी ने दंगों के दौरान वही भूमिका अदा की जो रोम जलने पर नीरो ने बंसरी बजाकर की थी। इसी हरकत पर उस समय के पीएम अटल बिहारी वाजपेेयी ने मोदी से राजधर्म निभाने को कहा भी था लेकिन तत्कालीन गृहमंत्राी और उपप्रधानमंत्री एल के आडवाणी का खुला समर्थन चूंकि आरएसएस के साथ मोदी को प्राप्त था जिससे सब सोची समझी साज़िश का हिसाब से माना जाता रहा है।

दंगे जिस तरह शुरू हुए और जितने बड़े पैमाने पर चले और जैसे चुनचुनकर अल्पसंख्यकांे को निशाना बनाया गया, उससे साफ पता चल रहा था कि इसमें मोदी की शह शामिल है। सरकारी मशीनरी और पुलिस को शासन ने किस तरह तमाशाई या दंगाइयों की मदद करने को कहा हुआ था इसका भंडाफोड़ कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से लेकर हर्षमंदर जैसे ईमानदार आइएएस पहले ही कर चुके हैं। आज जिस अमेरिकी रिपोर्ट को लेकर मोदी फूले नहीं समा रहे इसी अमेरिका ने उनको वीज़ा देने से इंकार कर उनको भारत का पहला दंगाई मुख्यमंत्राी होने का तमगा भी दिया था।

यह ठीक है कि गोधरा दंगों के बाद हिंदू साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से हारती लग रही बीजेपी इंसानी लाशों पर वोट लेकर जीत गयी थी। यह भी सही है कि गुजरात में विदेशी निवेश से लेकर विकास और प्रगति के कई आयाम तय किये गये हैं लेकिन जिस मुख्यमंत्री का नज़रिया अपनी जनता के लिये हिंदू मुस्लिम जैसा साम्प्रदायिक और संकीर्ण रहा हो वह भारत का पीएम बनने का सपना भले ही देखता हो लेकिन उसको इस देश की जनता इसलिये भी सर माथे पर नहीं बैठा सकती क्योंकि अटल जैसे उदार समझे जाने वाले नेता को तो राजग के घटक दल पीएम बनाने पर राज़ी हो गये थे लेकिन कट्टर समझे जाने वाले आडवाणी का ही नम्बर आज तक नहीं आ सका है। शायद मोदी भूल रहे हैं कि उनको बिहार में नितीश कुमार ने चुनाव प्रचार से दूर रखकर ही इतनी भारी जीत हासिल की थी। ममता, जयललिता, नवीन पटनायक, चन्दरबाबू नायडू और मायावती तक को मोदी के नाम पर सख़्त एतराज रहा है जिससे वह कभी भी इस देश की मुस्लिम ही नहीं अधिकांश उदार और सेकुलर हिंदू जनता के नेता नहीं बन सकते अगर विश्वास नहीं हो तो पीएम पद के दावेदार बनकर भ्रम दूर करलें।

सिर्फ़ एक क़दम उठा था गलत राहे शौक में,

मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूंढती रही ।।

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इक़बाल हिंदुस्तानी
लेखक 13 वर्षों से हिंदी पाक्षिक पब्लिक ऑब्ज़र्वर का संपादन और प्रकाशन कर रहे हैं। दैनिक बिजनौर टाइम्स ग्रुप में तीन साल संपादन कर चुके हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक 1000 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। आकाशवाणी नजीबाबाद पर एक दशक से अधिक अस्थायी कम्पेयर और एनाउंसर रह चुके हैं। रेडियो जर्मनी की हिंदी सेवा में इराक युद्ध पर भारत के युवा पत्रकार के रूप में 15 मिनट के विशेष कार्यक्रम में शामिल हो चुके हैं। प्रदेश के सर्वश्रेष्ठ लेखक के रूप में जानेमाने हिंदी साहित्यकार जैनेन्द्र कुमार जी द्वारा सम्मानित हो चुके हैं। हिंदी ग़ज़लकार के रूप में दुष्यंत त्यागी एवार्ड से सम्मानित किये जा चुके हैं। स्थानीय नगरपालिका और विधानसभा चुनाव में 1991 से मतगणना पूर्व चुनावी सर्वे और संभावित परिणाम सटीक साबित होते रहे हैं। साम्प्रदायिक सद्भाव और एकता के लिये होली मिलन और ईद मिलन का 1992 से संयोजन और सफल संचालन कर रहे हैं। मोबाइल न. 09412117990

6 COMMENTS

  1. येसे सेकुलारिस्तो के लेखो को इश मंच पर जगह ही क्यों दी जाय, जिनको इश देश की एकता और प्रगति से कोई मतलब नहीं है.

  2. श्रीमान इकबाल हिन्दुस्तानी जी,
    आप यदि पाकिस्तानी इकबाल नहीं हैं, तो वह इकबाल अवश्य हैं, जिसने
    ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसताँ हमारा’
    कहना छोड़कर यह कहना शुरु कर दिया-
    ‘मुस्लिम हैं वतन है, सारा जहाँ हमारा’
    वैसे उस इकबाल से आपकी तुलना करना बेमानी है, वह खुले विचारों वाला स्पष्टवादी व्यक्ति था, आप सेकुलर हैं. आपके इस लेख पर इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि २००२ के जिन दंगों को भुक्त्भोती गुजरात की जनता ने भुला दिया और बार-बार नरेंद्र मोदी को जितवाया, उसका निरंतर प्रचार करके आप देश में आग लगाना चाहते हैं.

  3. इक़बाल हिन्दुस्तानी जैसे लोग सत्य का दर्शन करना ही नहीं चाहते है यदि गाहे बगाहे हो भी गया तो उसका एकांगी वर्णन करते है मोदी का गुजरात आज उनके कर्म निष्ठता का फल है अगर ये आप कहते क़ि उनके राज्य में मुशालमन विकास का लाभ लेने से रोका गया तो सोचने क़ि बात होती पर ऐसा तो है
    नहीं अब कुछ बोलना है तो दंगे का सवाल उठा दो ताकि लोग असली मुद्दे से भटक जाये अहमदाबाद के दंगे क़ि बात तो इक़बाल को याद आती है पर गोधरा कांड क़ि नहीं जब क़ि ट्रेन में मुसाफिरों को जिन्दा जला दिया गया था विकास हुआ है और उसमे सबकी भागीधारी है मोदी पश्चाताप करे या नहीं यह कोई बात हुई देखना तो यह चाहिए क़ि उनके नेतृत्व में गुजरात कितना बढा और कितना आगे बढेगा दूसरो को भी इससे सीख लेनी चाहिए गुजरती जन वैसे भी कर्मनिष्ठ समाज है वह भारत ही नहीं दुनिया के अन्य देशो में अपनी कर्म्निष्ठाता का अपरिचय दे चुके है यह किसी से छुपा हुआ नहीं है यह बात अन्य समाजो को भी सीखनी चाहिए.
    बिपिन कुमार सिन्हा

  4. निश्चित रूप से लेखक कभी गुजरात नहीं गया और सिर्फ कोंग्रेसियों द्वारा प्रचारित अनर्गल बातों को सुन पढ़कर लिखने बैठ गया.

  5. नरेन्द्र मोदी प्रकरण में सबसे मजेदार बात यह है कि जहां एक ओर गुजरात का आम नागरिक, फिर चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, क्षेत्र का हो, मोदी के शासन में खुश है और समृद्धि की ओर बढ़ता दिखाई दे रहा है, वहीं गुजरात के बाहर, और खास कर उत्तर प्रदेश में मोदी को पानी पी पी कर कोसने वाले भरे पड़े हैं जिनका मुख्य उद्देश्य देश के मुसलमानों को येन-केन-प्रकारेण ये एहसास कराते रहना है कि ये वही मोदी है जिसके राज में भयानक दंगे हुए थे।

    इक़बाल हिन्दुस्तानी को लगता है कि आज दस वर्ष बाद मोदी को राष्ट्रीय राजनीति में आने की इच्छा के चलते सद्भावना और सर्व समावेशी शासन पद्धति की याद आ रही है, पर इस तथ्य को बड़ी आसानी से नज़र अंदाज़ कर जाते हैं कि गुज़रात दंगों का भयानक दौर गुज़र जाने के बाद गुज़रात ने विकास के राजमार्ग पर दौड़ लगाते हुए कभी भी पीछे मुड़ कर नहीं देखा । मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने राज्य की जनता को हिन्दू और मुसलमान के रूप में बांट कर नहीं देखते और इसीलिये गुज़रात के मुसलमान मोदी के गुण गाते रहते हैं ।

    देश के तथाकथित धर्मनिरपेक्षता वादियों की विश्वसनीयता उस समय समाप्त हो जाती है जब उनको मुलायम सिंह और दिग्विजय सिंह जैसे नेता जो खुले आम मुस्लिम वोटों का सौदा करते घूमते हैं, धर्मनिरपेक्षता के अवतार नज़र आते हैं। इन धर्मनिरपेक्षता वादियों को यह झूठ प्रचारित करने में भी कोई गुरेज़ नहीं है कि आडवाणी की राम रथयात्रा से दंगे भड़के थे। जबकि वास्तविकता ये है कि सारे दंगे उ.प्र. में हुए थे जहां मुलायम सिंह ने राम रथयात्रा के जवाब में अपनी “सद्‌भावना” यात्रा निकाली थीं । जिस- जिस जिले में मुलायम सिंह भाषण दे कर आते रहे, अगले दिन उस उस जिले में दंगे आरंभ होते चले गये थे। अडवाणी को तो उत्तर प्रदेश में घुसने से पहले ही बिहार में लालू सरकार ने गिरफ्तार कर लिया था। फिर भी दयनीय चिंतन के धनी हमारे तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी दंगों का दोष मुलायम के सर पर डालने के बजाय रामरथ यात्रा पर ही डालते हैं। इन स्वनामधन्य वामपंथी मीडियाकर्मियों का मानना है कि एक झूठ को निरन्तर प्रचारित करते रहो । कभी न कभी, कुछ न कुछ लोगों के लिये तो वह सच हो ही जायेगा । पर वास्तव में ये बौद्धिक दिवालियेपन का ही प्रमाण है इससे अधिक कुछ भी नहीं ।

  6. सवाल ये नहीं है कि ये प्रधानमंत्री पद की कबायद है कि पश्याताप सवाल ये है कि आज एक योग्य व्यक्ति देश की जनता के विकास के लिए उठ खड़ा हुआ है जो अबसर मिला तो किसी का रबर स्टाम्प नहीं बनेगा घोटालो का हिमालय नहीं खड़ा करेगा बो अपने निजी स्वार्थों के लिए देश हित की बलि नहीं देगा बो करेगा तो बस गुजरात के बिकास की तरह पूरे देश का बिकास

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