रंग लाई मोदी की कूटनीतिक रणनीति

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प्रमोद भार्गव
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कूटनीतिक रणनीति अब रंग लेती दिखाई देने लगी है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के बढ़ते रुतबे के साथ ही शक्तिशाली देशों के संगठनों में जगह मिलने लगी है। यह दुरूस्त कूटनीति का ही परिणाम है कि ऐसे संगठनों में भारत की सदस्यता की मुखर पैरवी ज्यादातर विकसित पश्चिमी देश कर रहे हैं। इससे चीन और पाकिस्तान को कूटनीति के स्तर पर मुंहतोड़ जबाव मिलने की उम्मीद बढ़ गई है। परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह यानी एनएसजी की सदस्यता के लिए व्यापक समर्थन जुटाने के साथ ही भारत को मिसाइल प्रौद्योगिकी नियंत्रण व्यवस्था समूह, मसलन एमटीसीआर के सदस्य समूह देशों में शामिल करने के प्रयासों को हरी झंडी मिली है। मोदी की दो साल के भीतर अमेरिका की चार यात्राओं और राष्ट्रपति बराक ओबामा से सात मुलाकतों के बाद संभावनाओं के ये द्वार खुले हैं।
एनएसजी का सदस्य बनने की प्रक्रिया में स्विट्जरलैंड, अमेरिका और अब मैक्सिको ने भी भारत को सकारात्मक एचं रचनात्मक सहयोग देने का वचन दिया है। इससे भारत की ऊर्जा संबंधी जरूरतें पूरी होंगी और वह परमाणु शक्ति संपन्न देश कहलाने लग जाएगा। वहीं एमटीसीआर देशों की कतार में शामिल होने से भारत को मिसाइल बेचने एवं अमेरिका से मानवरहित ड्रोन खरीदने के दरवाजे खुल जाएंगे। मसलन दुनिया के रक्षा कारोबार में उसे ब्रह्मोस मिसाइल बेचने की सुविधा मिल जाएगी। ये दोनों ही अवसर भारत को मोदी और ओबामा के बीच बीते दो सालों के भीतर प्रगाढ़ हुई दोस्ती का परिणाम हैं। बावजूद एनएसजी में चीन का शत्रुतापूर्ण दखल अभी भी इसलिए बना रहेगा, क्योंकि इन दोनों संगठनों में सदस्यता मिलने के बाद दक्षिण एशियाई देशों में जहां चीन का वर्चस्व टूटेगा, वहीं पाकिस्तान लगभग अलग-थलग पड़ जाएगा। ये दोनों ही स्थितियां वैश्विक फलक पर भारत की भूमिका को महत्पूर्ण और असरकारी बनाने का काम करेंगी।
इस बार मोदी की अमेरिका समेत पांच देशों की यात्रा भारत के लिए कूटनीतिक उपलब्धियों की दोहरी सफलता साबित हुई है। एमटीसीआर 34 देशों का समूह है। इस समूह की स्थापना 1987 में हुई थी। शुरूआत में इसमें जी-7 देश अमेरिका, कनाडा, जापान, इटली, फ्रांस और ब्रिटेन शामिल थे। चीन इस समूह का सदस्य नहीं है। इसलिए उसके विरोध की गुंजाइश ही नहीं है। हालांकि चीन इस समूह के दिशा-निर्देश का पालन करता रहा है। इसके पीछे चीन का मकसद बैलिस्टिक मिसाइल बेचने की सीमा सुनिश्चित करना है। हालांकि भारत उन पांच देशों में से एक है, जो 2008 से ही एमटीसीआर की सभी शर्तों का पालन कर रहा है। इसी कारण अमेरिका भारत को इस संगठन में शामिल करने की कोशिश में है। बावजूद इटली भारत की सदस्यता का विरोध करता रहा है। किंतु अब बदले परिदृश्य में वह भी भारत के समर्थन में है। इसके अलावा भारत ने हाल ही में ‘हेग कोड आॅफ कन्डक्ट‘ पर भी दस्तखत किए हैं, इस कारण भी हमारी दावेदारी पुख्ता हुई है। यह कोड आॅफ कन्डक्ट एक स्वैच्छिक बैलिस्टिक मिशाइल अप्रसार समझौता है, जिसे एमटीसीआर का पूरब माना जाता है।
दरअसल एमटीसीआर मुख्य रूप से 500 किलोग्राम पोलेड ले जाने वाली एवं 300 किमी तक मार करने वाली मिसाइल और अनमैंड एरियल व्हीकल प्रौद्योगिकी ;ड्रोनद्ध की खरीद-ब्रिकी पर नियंत्रण रखती है। एमटीसीआर का मकसद ऐसी मिसाइलों के उपयोग को प्रतिबंधित करना है, जो रासायनिक, जैविक और परमाणु हमलों के लिए तत्पर रहती है। भारत को एमटीसीआर की सदस्यता इसलिए जरूरी थी, क्योंकि पिछले एक-डेढ़ साल के भीतर भारत ब्रह्मेस के साथ कई तरह की मिसाइलों का सफल परीक्षण कर चुका है। भारत ने मिसाइल क्षेत्र में आत्मनिर्भरता 90 प्रतिशत स्वदेशी तकनीक से की है। लिहाजा उसे कालांतर में दुनिया के बाजार में मिसाइल बेचने का अधिकार मिल जाएगा तो भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ;इसरोद्ध और रक्षा अनुसंधान विकास संस्थान “डीआरडीओ” अरबों-खरबों कमाकर स्वयं तो आर्थिक रूप से स्वालंबी होंगे ही, भारत की अर्थव्यवस्था की गति बढ़ाने में भी बहुमूल्य योगदान मिलने लगेगा। वैसे भी फिलहाल हम पोलर सेटेलाइट लांच व्हीकल ;पीएसएलवीद्ध के माध्यम से दूसरे देशों के अंतरिक्ष में उपग्रह प्रक्षेपित करने का काम पहले ही शुरू कर चुके हैं। इससे हमारा अंतरिक्ष में व्यापार करने का मार्ग खुल चुका है।
भारत ने पिछले साल एमटीसीआर की सदस्यता के लिए आवेदन किया था। हालांकि चंद देशों ने विरोध भी किया।, किंतु ओबामा और अमेरिकी प्रशासन के भारत के पक्ष जबरदस्त समर्थन के कारण यह विरोध नक्कारखाने में तूती साबित हुआ। यही नहीं अमेरिका ने एमटीसीआर के अलावा तीन अन्य निर्यात नियंत्रण व्यवस्था समूहों में भी भारत की भागीदारी सुनिश्चित करने की जोरदार पैरवी की है। ये हैं, परमाणु प्रदाता समूह, आस्ट्रेलिया समूह और वैसेनार अरेंजमेंट समूह। इनमें आस्ट्रेलिया समूह रासायनिक हथियारों पर नियंत्रण करता है। वैसेनार कमोबेश छोटे हथियारों पर नियंत्रण करता है। खैर, फिलहाल मोदी-ओबामा की इस गर्मजोषी से भरी मुलाकात से इतना तो तय हो गया कि भारत को एमटीसीआर की सदस्यता मिलने की महज आपैचारिकता पूरी होनी है। सदस्यता भारत को जल्दी मिले इस उद्देश्य से एमटीसीआर के अध्यक्ष रोनाल्ड वीज भी अगले महीने भारत आ रहे हैं। भारत का इस सदस्यता के लिए दावा इसलिए भी मजबूत है, क्योंकि उसने कभी भी अपने मिसाइल विकास कार्यक्रम के तहत एमटीसीआर के निर्देशों का सदस्य नहीं होने के बावजूद उल्लंघन नहीं किया। लिहाजा यह मोदी की बड़ी और बहुप्रतिक्षित कूटनीतिक कामयाबी है।
मोदी की दूसरी बड़ी कामयाबी अमेरिका, स्विट्जरलैंड और मैक्सिको द्वारा एनएसजी की सदस्यता के लिए मिला समर्थन है। अभी तक स्विट्जरलैंड और मेक्सिको इसलिए खिलाफत कर रहे थे, क्योंकि भारत ने फिलहाल परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत नहीं किए हैं। 48 सदस्यीय एनएसजी की 24 जून की बैठक में अब प्रमूख एजेंडा, भारत के सदस्यता संबंधी आवेदन पर विचार करना ही है। दरअसल 2008 में हुए भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु सहयोग समझौते के तहत भारत को इस समूह में शामिल करने पर सहमति बन गई थी। इसलिए जिन देशों ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी ;आईएईए, में उक्त समझौते को स्वीकृति दी थी, उनका नैतिक दायित्व बनता है कि वे एनएसजी में भारत के पक्ष में खड़े दिखाई दें। ब्रिटेन, रूस और फ्रांस पहले से ही भारत के समर्थन में हैं। अब अकेला चीन है, जो भारत का खुलेआम विरोध करता रहा है।
दरअसल चीन के अपने स्वार्थ हैं। चीन अपने परमाणु कारोबार को बड़े स्तर पर फैलाना चाहता है। पिछले दो दशक में वह अनेक परमाणु इकाइयां भी स्थपित कर चुका है। गोया, भारत यदि परमाणु संपन्न शक्ति के रूप में उभर आता है तो चीन का परमाणु बाजार प्रभावित होगा। इसलिए चीन कह रहा है कि भारत के साथ-साथ पाकिस्तान को भी एनएसजी की सदस्यता दी जाए। दरअसल चीन की अंदरूनी मंशा पाकिस्तान में अपने परमाणु केंद्र स्थापित करने की है। इस लिहाज से अमेरिका समेत आतंकवाद विरोधी देशों की आशंका है कि पाक जिस तरह से आतंकवाद की गिरफ्त में है, उसके मद्देनजर पाक को एनसीजी का सदस्य बनाया जाना, भविष्य के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकता है। यह खतरा इसलिए भी हैं, क्योंकि बीते समय पाकिस्तान परमाणु तस्करी का केंद्र रहा है। 2004 में पाक वैज्ञानिक एक्यू खान के गिरोह द्वारा उत्तरी कोरिया और लीबिया को परमाणु सामग्री की तस्करी करने का हैरानी में डालने वाला खुलासा हुआ था। जबकि एनएसजी का मकसद परमाणु हथियारों का प्रसार नियंत्रित करना है। लिहाजा संदिग्ध चरित्र के पाकिस्तान को विपरीत प्रकृति की अंतरराष्ट्रीय महत्व की संस्था की सदस्यता कैसे दी जा सकती है ? हालांकि इस परिप्रेक्ष्य में चीन का चरित्र भी पाक-साफ नहीं है। दुर्भाग्य से यही देश भारत की सदस्यता में इसलिए बाधा हैं, क्योंकि नए देश की सदस्यता का निर्णय बहुमत के समर्थन की बजाय सर्वसम्मति से होता है। लिहाजा कोई एक सदस्य देश भी विरोध करता है तो नए देश की सदस्यता खतरे में पड़ जाती है। चीन यह कुटिल नीति इसलिए भी अपना रहा है, क्योंकि यदि भारत के साथ पाकिस्तान की सदस्यता संभव नहीं होती है और भारत की हो जाती है, तो पाकिस्तान की सदस्यता भारत विरोध के चलते हमेशा के लिए खटाई में पड़ जाएगी ? लेकिन अब चीन से मोदी के सौहार्द पूर्ण संबंधों और राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की चीन यात्रा के बाद चीन का रुख कुछ नरम पड़ता दिखाई दे रहा है। चीन ने 26/11 मुंबई हमले में पाकिस्तान के हाथ होने की बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर भारत के प्रति नरमदिली दिखाई है। दरअसल वैश्विक मंचों पर भारत के बढ़ते प्रभाव और ईरान से चाबहार संधि के बाद चीनी थिंक टैंक को लगने लगा है कि यदि वह भारत का इकतरफा विरोध करता रहा तो अलग-थलग पड़ सकता है।
इस सब के बावजूद जलवायु परिवर्तन के मद्देनजर भारत को परमाणु ऊर्जा संपन्न देश बनाया जाना इसलिए जरूरी है, जिससे कार्बन उत्सर्जन की कटौती में भारत की भूमिका रेखांकित हो। दरअसल औद्योगिक विकास के साथ-साथ भारत की ऊर्जा संबंधी जरूरतें लगातार बढ़ रही हैं। इसी मकसद पूर्ति के लिए मोदी की इस अमेरिकी यात्रा के दौरान अमेरिकी कंपनी वेस्टिंग हाउस और भारतीय परमाणु ऊर्जा निगम के बीच 6 परमाणु बिजली रिएक्टरों पर काम शुरू करने पर सहमति बनी है। इन दोनों कंपनियों के बीच जून 2017 तक अनुबंध होने की उम्मीद है। इस दौरान संयंत्र स्थापना संबंधी शर्तें तय होंगी। इससे भारत को 4800 मेगावाट अतिरिक्त परमाणु बिजली मिलने लगेगी। ऊर्जा के क्षेत्र में बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाते हुए मोदी सरकार सौर ऊर्जा के क्षेत्र में निरंतर आगे बढ़ रही है। बावजूद भारत की डीजल और पेट्रोल पर निर्भरता अत्याधिक है, गोया एनएसजी की सदस्यता मिल जाती है तो भारत की ऊर्जा संबंधी बड़ी जरूरतें परमाणु ऊर्जा की उपलब्धता से पूरी होने लग जाएंगी।

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