मोदी की नेपाल यात्रा : बदलती दृष्टि का संकेत

कुमार सच्चिदानन्द
पिछले दिनों भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नेपाल की महत्वपूर्ण यात्रा सम्पन्न हुई । प्रधानमंत्री के रूप में यह मोदीजी की तीसरी नेपाल यात्रा थी । यूँ तो नेपाल राजनैतिक संरचना ही ऐसी है कि यहाँ भारत का नाम लेते ही एक विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, इसलिए मोदीजी की इस यात्रा से पूर्व और बाद में भी एक विवाद की स्थिति है । लेकिन इसके माध्यम से एक ओर तो उन्होंने पिछले दिनों नेपाल–भारत के सम्बन्धों में आयी खटास को न केवल दूर करने का प्रयास किया वरन कूटनैतिक स्तर पर नेपाल को उस जमीन पर लाकर खड़ा कर दिया जहाँ से चीन की ओर उसके झुकाव को नियंत्रित किया जा सके । साथ ही चीन को भी यह संदेश दिया जा सके कि नेपाल के साथ भारत का विभिन्न स्तरों पर पारम्परिक और स्वाभाविक मित्रता है । इसलिए नेपाल पर हावी होने के कूटनैतिक प्रयासों को वह कम करे ।
मोदीजी की यह यात्रा खास इसलिए थी कि जब अगस्त २०१४ में उन्होंने नेपाल की यात्रा की थी तो उृनका कार्यक्रम जनकपुर जाने का भी था लेकिन राजनैतिक खींचतान के कारण उन्हें अपना यह कार्यक्रम रद्द करना पड़ा । बात साफ थी कि उस समय यह देश संघीयता की ओर अग्रसर तो था लेकिन संघीय संरचना उभर कर सामने नहीं आयी थी और इस देश के तराई क्षेत्र के लोग मधेश राज्य की माँग कर रहे । सरकार इस आन्दोलन को कमतर आँक रही थी और यहाँ की जनता की पहचान के इस संघर्ष के यथार्थ से सीधे तौर पर भारत के प्रधानमंत्री रू–ब–रू न हो इसके लिए विवाद की एक व्यापक जमीन तैयार की गयी । चूँकि इसमें कमोवेश नेपाल के सारे राष्ट्रीय दल शामिल थे । इसलिए उन्हें कामयाबी भी मिली और यह यात्रा स्थगित हो गई ।
लेकिन इस यात्रा को विशेष इसलिए माना जा सकता है कि यह यात्रा काठमाण्डू से न प्रारम्भ होकर जनकपुर से ही प्रारम्भ हुई जहाँ उन्होंने माता जानकी का नमन किया और यहाँ से काठमाण्डू गए । महत्वपूर्ण यह है कि जनकपुर में अपने नागरिक अभिनंदन में लगभग दो लाख जनता की विशाल सभा का संबोधन भी किया जो अपनेआप में ऐतिहासिक सभा थी । काठमाण्डू में अपने राजनैतिक मुलाकातों के साथ–साथ उनकी धर्म यात्रा भी जारी रही । यहाँ से उन्होंने हिन्दुओं का पवित्र तीर्थ मुक्तिनाथ का भ्रमण तो किया ही, काठमाण्डू स्थित पशुपतिनाथ के मन्दिर में पूजा अर्चना की और यह संदेश दिया कि वे भारत के सास्कृतिक तथा धार्मिक परम्पराओं के अग्रदूत भी है । जनकपुर के नागरिक अभिनंदन में उन्होंने कहा भी कि इस बार मैं भारत का प्रधानमंत्री नही बल्कि प्रमुख तीर्थयात्री के रूप में नेपाल आया हूँ । इस तरह उन्होंने यह संदेश दिया कि नेपाल और भारत भले ही विश्व के मानचित्र में राजनैतिक रूप से दो अलग राष्ट्र हैं मगर उनकी रगों में एक ही खून दौड़ता है । उनकी आस्था, विश्वास और परम्पराएँ एक हैं ।
भारत के प्रधानमंत्री की विगत नेपाल यात्रा इसलिए भी है कि मौजूदा समय में नेपाल में एक तरह से केन्द्र में वामपंथी दलों के पूर्ण बहुमत की सरकार है । समस्त राजनैतिक उच्च पदों पर इन दलों का कब्जा है और देश के सात में से छः राज्यों में वामपंथियों की ही प्रादेशिक सरकारें हैं । नेपाल में भारत का विरोध वामपंथी मनोविज्ञान अभिन्न हिस्सा है । भारत का विरोध यहाँ राष्ट्रवाद का पर्याय माना जाता है । आत्मनिर्भरता के नाम पर समय–समय पर इन वामपंथी दलों द्वारा इसे हवा दी जाती रही है । गौरतलब है कि विगत संसदीय चुनाव भी इन कम्युनिस्ट दलों ने इसी मुद्दे के आसपास लड़ा और इसे आवाज देने में नेपाल के मौजूदा प्रधानमंत्री के.पी.शर्मा ओली की महत्वपूर्ण भूमिका रही । खास बात यह है कि आज उन्हीं के कार्यकाल में उनकी पहल पर मोदी की नेपाल यात्रा सम्पन्न हुई । सारी योजनाएँ और व्यवस्थाएँ उनकी थीं, सारे समझौते उनके थे । इसलिए राजनैतिक विरोध के इस अवसरवादी स्वर को उन्होंने अपनी इस यात्रा से मन्द करने की कोशिश की ।
पिछले दिनों नेपाल–भारत सम्बन्धों की सौहाद्र्रता को सबसे अधिक प्रभावित किया मधेश आन्दोलन ने जिसके तहत मधेशी दल, इसके कार्यकर्ता तथा मधेश की आमजनता ने भारत से नेपाल का मुख्य प्रवेश द्वार वीरगंज नाका को बन्द किया जहाँ महीनों तक अन्दोलन चलता रहा और एक तरह से इस नाके पर आन्दोलनकारियों का कब्जा रहा । भारत की भूमिका यह रही कि उसने जन–धन की हानि की शर्त पर वाहनों को नेपाल प्रवेश की अनुमति नहीं दी । यद्यपि इस दौरान भारत और नेपाल के अन्य नाके भी खुले थे लेकिन इनसे जो आपूर्ति हो पा रही थी वह पर्याप्त नहीं थी । परिणाम यह हुआ कि राजधानी तथा अन्दर पहाड़ मे आम लोगों को चरम अभाव झेलना पड़ा । इस घटना को यहाँ का नेतृत्व वर्ग तथा संचार तंत्र ने भारतीय नाकाबंदी के रूप में प्रचारित किया । इसका परिणाम यह हुआ कि जनस्तर पर भी भारत के विरोध में आवाजें बुलंद होती गई और नेपाल में इस असंतोष का कारण और केन्द्र भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को माना गया । अपनी इस यात्रा से मोदी ने जाने–अनजाने इस कलंक को धोने का प्रयास किया और यह संदेश दिया कि नेपाल और भारत का सम्बन्ध महज पारंपरिक मात्र नहीं बल्कि यह समय की माँग भी है ।
नेपाल के साथ भारत के सम्बन्धों के इन उतार–चढ़ावों को देखते हुए चीन ने नेपाल में अपना राजनयिक वर्चस्व कायम करने के लिए जमकर इस्तेमल किया । तत्कालीन प्रधानमंत्री ओली ने इस अवससर का उपयोग वैकल्पिक व्यवस्था करने के नाम पर चीन से अनेक व्यावहारिक–अव्यावहारिक समझौते किए और एक तरह से भारत को यह संदेश दिया कि नेपाल अब भारत का वर्चस्व स्वीकार नहीं करेगा । अगर उसकी ज्यादती यहाँ बढ़ती है तो चीन को वह विकल्प के रूप में प्रयोग करेगा । यद्यपि नेपाल को समझने वाले लोग इस बात को समझते हैं कि नेपाल और चीन के बढ़ते कदम–ताल अव्यावहारिक हैं, इसलिए इसकी आयु भी नहीं । लेकिन चीन की बढ़ती साम्राज्यवादी मनोवृत्ति के कारण भारत की चिन्ताओं का बढ़ना स्वाभाविक है । क्योंकि नेपाल के साथ उसकी उत्तरी सीमाएँ खुली हैं और इसमें खुला खेल के लिए वह चीन को अवसर नहीं दे सकता । इसलिए इस यात्रा में कई मेगा प्रोजेक्टों को कार्य रूप देने के मुद्दे पर सहमति हुई जिनका दोनों देशों के लिए काफी महत्व है । इस तरह इस यात्रा से मोदी ने नेपाल पर चीन के बढ़ते कूटनैतिक प्रभावों को कम करने की कोशिश की ।
राजनयिक दृष्टि से इस यात्रा को इसलिए भी अति महत्वपूर्ण माना जा सकता है कि यहाँ की वामपंथी पार्टियाँ दिल्ली को दबाब ओर बीझिंग को मक्का–मदीना मानती रही है । समय–समय पर भारत के विरोध के लिए चयना–कार्ड का उन्होंने बखूबी उपयोग किया है । चीन भी ऐसे अवसरों की ताक में रहा है और अवसर मिलने पर यहाँ कूटनैतिक गतिविधियाँ तेज करता रहा है । निश्चय ही इस स्थिति को भारत की दृष्टि से सहज नहीं माना जा सकता । लेकिन इस यात्रा और इन समझौतों के द्वारा नेपाल के दिग्गज कम्युनिस्ट नेताओं को मोदी ने ऐसी जगह पर खड़ा कर दिया है जहाँ से चीन की दृष्टि में उनकी विश्वसनीया प्रभावित हुई है । इसलिए इसे भारतीय दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जा सकता है ।
एक बात तो सच है कि नेपाल में फिहाल कम्युनिस्टों का शासन है लेकिन इन कम्युनिस्टों की तुलना न तो चीन के कम्युनिस्टों से की जा सकती है और न दक्षिण कोरिया के कम्युनिस्टों से की जा सकती है और न ही क्यूबा से । सही मायने में सैद्धान्तिक रूप में ये माक्र्स, लेनिन, स्टालिन, माओ, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, वर्ग संघर्ष और सर्वहारा का शासन की बात तो करता है मगर व्यावहारिक रूप में इनका लोकतंत्रीकरण हो चुका है । इसलिए ये चुनावों में जाते हैं, बहुमत की सरकार बनाते हैं और लोक–कल्याण तथा देश के विकास की बात भी करते हैं । अब तक भारतीय राजनीति में नेपाल के कम्युनिस्टों को अलग नजरिये से देखा जाता था।यहाँ काम करने वाली भारत की कूटनैतिक एजेंसियाँ भी अपने राजनैतिक आकाओं की दृष्टि से संचालित होते थे । इसलिए नेपाल में अस्थिरता का एक कारण काठमाण्डू स्थित लैनचौर (भारतीय दूतावास) को भी माना जाता रहा है । लेकिन इस यात्रा के द्वारा मोदी ने यहाँ के कम्युनिस्टों के लोकतांत्रिक सरकार को मानसिक और व्यावहारिक रूप में न केवल मान्यता दी वरन उसके साथ सहयोग और सहकार्य करने की प्रतिबद्धता भी जाहिर की ।
भारत–नेपाल के सम्बन्धों के उतार–चढाावों के बीच नेपाल और भारत की खुली सीमा भी अक्सर विवादों में आती रही है । नेपाल में राजनेताओं के साथ–साथ बुद्धिजीवियों, मीडियाकर्मियों और आम नारिकों की एक जमात ऐसी भी है जो इस खुली सीमा का कभी दबे स्वर में और कभी मुखर स्वर में विरोध करते रहे हैं । लेकिन सीमा क्षेत्र के निवासियों और उनके सरोकारें को देखते हुए यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है । इस खुली सीमा का नाजायज फायदा कभी–कभार पाकिस्तानी जासूसी संस्थाओं तथा आतंकवादी संगठनों द्वारा होता रहा है । इसका हवाला देते हुए कभी कभी भारीय पदाधिकारी तंत्र द्वारा भी इस खुली सीमा को व्यवस्थित करने के नाम पर लोगों के बेरोकटोक आवागमन पर अंकुश लगाए जाने का तर्क दिया जाता रहा है और एक प्रकार की चिंता तराई में रहने वाले दोनों ही देशों के लोगों में देखी जा रही थी । क्योंकि यह सम्बन्ध अन्योनाश्रित और बेटी–रोटी के साथ–साथ रोजी रोटी का भी है । लेकिन इस दौरे में प्रधानमंत्री श्री मोदी ने इस धुंध को साफ करते हुए विभिन्न स्तरों पर नेपाल–भारत की कनेक्टीविटी की वकालत की और लोगों के अबाध आवागमन को दोनों देशों के सम्बन्धों की प्रगाढ़ता के लिए अपरिहार्य बतलाया ।
एक बात तो सच है कि नेपाल के संचार तंत्र पर एक तरह से भारत विरोधी तत्वों की पकड़ रही है जो गाहे–बगाहे भारत विरोध का स्वर आलापता ही रहता है । लेकिन भारत में भी बुद्धिजीवियों, संचार गृहों तथा कर्मियों की ऐसी जमात है जो भारत के प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की लोकप्रियता और उपलब्धियों को कम कर प्रस्तुत करने की कोशिश करते रहे हैं । इसलिए ऐसे लोगों की दृष्टि से इस यात्रा का नेपाल और भारत की दृष्टि से महत्व को नहीं समझा सकता । दूसरे शब्दों में ऐसे लोग इस यात्रा के महत्व को भी कम कर प्रस्तुत करने की कोशिश कर लोगों को गुमराह कर रहे हैं । लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि मोदी जी की यह यात्रा दोनों ही देशों की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण रही है । इसके द्वारा एक साथ उन्होंने कई दूरगामी लक्ष्यों को साधा है जिसका प्रभाव आने वाले समय में दिखलाई देगा ।

 

1 COMMENT

  1. सटीक और सार्थक लेख. दिल्ली में बैठे लेखक इतनी दूर सही से नहीं देख पाते हैं. लगता है की कुमार साहब नेपाल की गहरी समझ रखते है.

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