माँ मुझे नहीं आना तेरे देश

कोई दिन ऐसा नहीं बीतता जिस दिन देश में बलात्कार की घटना न होती हो . कोई एक आध तो हाई लाइट हो जाती है और मीडिया में सुर्खिया बटोर लेती है कई ऐसी होती है जो सार्वजनिक नहीं हो पाती . कितनी घिनोनी बात है कि इस देश में एक साल की बच्ची से लेकर अस्सी वर्ष की वृद्ध (हमारी दादी की उम्र की ) महिला तक सुरक्षित नहीं। इस देश में एक पिता द्वारा ही अपनी बेटी के साथ कुकर्म के समाचार सुन कर रूह कांप उठती है . धरती भी नहीं फटती . आसमान में भी कोई भयंकर गर्जना नहीं सुनाई देती . जबकि बेटी तो एक पिता के जिगर का टुकड़ा होती है . एक पिता का गरूर होती है . ये एक जननी होती है . कभी कभी तो मुझे ऐसा लगता है कि जैसे किसी माँ के गर्भ में सिसकती हुई एक नन्ही सी जान कह रही हो ” माँ मुझे नहीं आना तेरे देश “. माँ मुझे यहीं ख़तम करवा दो . माँ क्या मेरे जैसी बेटियो को तेरे देश में इतने जिल्लत भरे दौर से गुजरना पड़ता है। क्या हम तुम्हारे समाज के लिए अभिशाप हैं . मैंने तो सुना था कि इस देश मेंछोटी बच्चियों को देवी का रूप माना जाता है और साल में दो बार नवरात्रों में कंजक मान कर पूजा जाता है लेकिन ये क्या हो रहा है . मैंने सूना था कि शादी के बाद बेटिया दहेज़ के लिए जिन्दा जला दी जाती है पर माँ ये में क्या सुन रही हूँ मासूम बच्चियां /कालिया फूल बनने से पहले ही मसल दी जा रही है, पैरो तले रोंदी जा रही हैं मतलब हमें बड़ा भी नहीं होने दिया जा रहा

जब बीमारी का इलाज़ समय पर नहीं किया जाता तो एक दिन ये महामारी, नासूर बन जाती है . मैं यहाँ सबसे पहले इस लेख के लिए माफ़ी मांगना चाहता हूँ हो सकता है कुछ लोग मेरी बात से सहमत ना हों परन्तु में अपने विचारो को रोक नहीं पा रहा हूँ .

पहले लडकिया/औरतें गले में चुन्नी रखती थी और अपने वक्ष स्थल को ढक कर रखती थी . लडकिया सलवार और सूट पहनती थी ना की आज की तरह स्कर्ट बिकनी जींस की टाइट पेंट और टी शर्ट जिसमें चलते हुए या दोड़ते हुए उभारों का हिलना-डुलना देखने वाले में कोतहुल -कामोत्तेजना पैदा करते हैं और पुरुष की मानसिकता विकृत होती है। सुन्दरता को निहारना एक स्वाभाविक क्रिया है लेकिन उत्तेजक पहनावे को देखकर मन में विकृति आना स्वाभाविक है जो धीरे धीरे एक महामारी का रूप ले लेती है . आज पहनावे का नाम लेते ही स्त्री जाति भड़क उठती है और इस कटु सत्य को स्वीकार करने को तयार नहीं कि पुरुष को गन्दी नजर से देखने के लिए काफी हद तक उनकी ड्रेस भी जिम्मेदार है .ये सच है कि पुरुष कोन होता है ये तय करने वाला कि औरत जात कैसे कपडे पहने लेकिन ये भी उतना ही सत्य है कि वो अगर शालीन कपडे पहन कर निकलेगी तो सिर्फ उसकी सुन्दरता को ही निहारा जायगा अगर वो अश्लीलता फ़ैलाने वाले उत्तेजक यानि अपने अंगो को ज्यादा से ज्यादा एक्सपोज करने की कोशिश करेगी तो पुरुष वर्ग की मानसिकता विकृत होगी ही उसकी कामोत्तेजना को बढ़ावा मिलेगा . ये मानसिकता खराब की करने की प्रिक्रिया पिछले तीन दशक से चल रही है जो आज नासूर बन गयी है . पुरुष का एक वर्ग दरिंदा और वहशी बन गया है जिसके लिए छोटी छोटी बचिया एक सॉफ्ट और जल्दी से काबू में आने वाला एक शिकार है . वो आज एक भेडिये की तरह शिकार कर रहा है जो अचानक घात लगाकर बच्चियो को उठा ले जाता है। देश की बहन बेटिया जब तक अपना आचरण , पहनावा रहन सहन ठीक नहीं करेंगी तब तक जिस्म के ये भूखे भेडिये यूँ ही आस पास मंडराते रहेंगे और शिकार बनाते रहेंगे।

फिल्म इंडस्ट्री ने काम वासना की आग को भड़काने और पुरुष वर्ग की मानसिकता को विकृत करने में जितना योगदान दिया है शायद ही किसी ने दिया हो . प्यार मोहब्बत ,चूमना-चाटना आलिंगनबद्ध होना, उनके हाव भाव , किस करना , बलात्कार के सीन, अवैध सम्बन्ध, औरत को एक ट्रांसफर चेक की तरह पेश करना जिसमे आज एक पास कल दुसरे के पास परसों किसी और के पास, द्विअर्थो शब्दों का प्रयोग, गंदे अश्लील गानों का प्रचलन, फिल्म सेंसर बोर्डऔर फिल्म निर्माताओ का स्वार्थ वश होकर धन के लालच में सच को नकारना, समाज के प्रति अपने उत्तर दायित्व को न निभा पाना . फ़िल्मी पत्र पत्रिकाओ हिंदी अंग्रेजी के तमाम अखबार अश्लील, कामोत्तेजक फोटुओ से भरे हुए होते है जिनके बगैर उनकी प्रसार संख्या में गिरावट आने की सम्भावना बनी रहती है . जो पत्रकार -संपादक रेप के मुद्दे पर समाचार, विश्लेषण सम्पादकीय लिखते है क्या वो कसम खायेंगे कि भविष्य में अपने अखबार में अश्लील, कामोत्तेजक सामग्री नहीं छापेंगे कदापि नहीं क्योंकि उनके लिए उनका व्यवसाय सामाजिक दायित्व से कहीं ऊपर है . विज्ञापन की दुनिया में नारी को एक भोग्या के रूप में ही पेश किया जाता है . सुर्खी, बिंदी से लेकर साबुन, शेम्पू, साडी कार, मोटर साइकिल, टेलेफोन, मोबाइल सर्फ हर जगह औरत ये भी नहीं पता चलता की विज्ञापन फला आइटम का हो रहा है या किसी औरत का . डिस्को डांस,पब, बार, केबरे हर बुराई वाली जगह पर महिला की पहुँच हो गयी है तो भला औरत जाति पुरुष की कामाग्नि की लपटों से स्यवं को कैसे बचा पायेगी . बुजुर्गो का कहना है इस्त्री और पुरुष को कभी एकांत में नहीं मिलना चाहिए क्योकि कामदेव अकेले में तुरंत अटैक करते हैं बुधि मलीन हो जाती है भले ही वो भाई बहन ही क्यों न हो . आज का आधुनिक समाज ऐसे बातो को दकिआनुसी और रुढ़िवादी मानता है। गे संस्कृति, शादी से पहले डेटिंग , लिव इन रिलेशनशिप जैसी संस्कृति ने विवाह जैसी संस्थाओ पर प्रशनचिंह लगा दिया है . अब जीवन साथी को पार्टनर का नाम दे दिया गया . एक दुसरे के साथ बीबियाँ बदलने की कु संस्कृति भी शुरू हो चुकी है . क्या सरकार या तमाम अखबार मालिक अनभिग है कि अखबारों में मसाज और फ्रेंडशिप के जो विज्ञापन छपते हैं उनकी आड़ में क्या क्या होता है और सारी बुराइयाँ पुलिस के संरक्षण में पनपती है . जब तक देश की फिल्म इंडस्ट्री, फिल्म निर्देशक , निर्माता ,गीतकार ,गायक सीरियल निर्माता ,प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया समाज के प्रति अपना सामाजिक दाइत्व नहीं समझेंगे, कु संस्कृति को रोकने में सहयोग नहीं करेंगे तब तक दुष्कर्म की घिनोनी घटनाओ पर अंकुश लगना मुश्किल है

ऐसे लोगो की भी कमी नहीं जिनको अपनी शारारिक भूखः शांत करने के लिए अपने जीवन साथी का सहयोग नहीं मिलता . जब ये भूखे होते है तो कोई इनकी मदद नहीं करता लेकिन जब ये सारी हदें तोड़ देते है तो कानून और समाज उसकी गर्दन तोड़ने के लिए तयार खड़ा होता है ऐसे लोगो के प्रति भी हमारी सहानुभूति होनी चाहिए . हमें प्राचीन पद्धति नगर वधु वाली अवधारणा पर भी विचार करना चाहिए जहाँ काम पिपासु व्यक्ति कुछ मुद्रा देकर अपनी कामाग्नि शांत करते थे . प्राइवेट सेक्टर में फैक्ट्री और दुकानों पर काम करने वाले व्यक्ति लम्बे समय तक पत्नी सुख से वंचित रहते है उन्हें गाँव जाने की जल्दी छुट्टी नहीं मिलती इस बारे में भी कदम उठाए जाने की जरुरत है .

शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन की जरूरत है . आज की शिक्षा अच्छा रोजगार तो उपलब्ध करा सकती है लेकिन अच्छे संस्कार नहीं दे सकती एक अच्छा नागरिक तयार नहीं कर सकती . शिक्षा में नेतिक शिक्षा का पाठ्यक्रम भी जरुरी है ताकि एक देश भक्त , चरित्रवान राष्ट्रिय नागरिक तयार हो सकें . इसमें खेल कूद के साथ साथ अल्प मिलट्री ट्रेनिंग भी जरुरी हो .बच्चो को लडकियो के प्रति संवेदनशील बनाना होगा उन्हें लडकियो की इज्जत करनी सिखानी होगी . उन्हें बताना होगा कि बेटे और बेटी में कोई फर्क नहीं है .बेटिया परिवार के प्रति ज्यादा संवेदनशील और समर्पित होती है .समाज को भी बेटी के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा . हमें समझना होगा ” बेटा तब तक बेटा होता है जब तक उसकी पत्नी नहीं आ जाती जबकि बेटी तब तक बेटी है जब तक जिन्दगी खत्म नहीं हो जाती .

जिन देशों में बलात्कार की रेशो बहुत कम है उनका अध्यन करके वैसे कानून बनाने और सख्ती से लागु करने की पहल करनी होगी .बलात्कार करने वाले के लिए कानूनी ट्रायल दांव – पेंच में पड़ने की बजाय सीधे चोबिस घंटे में फांसी दे दी जानी चाहिए . लम्बी जांच पड़ताल न्यायिक प्रिक्रिया की वजह से मामला ठंडा पड़ जाता है . पुलिस को जिम्मेदार, जबाब देह बनाना होगा . पुलिस प्रणाली में सुधार के साथ साथ पुलिस कर्मिओ की समस्याओ को भी समझना होगा उन्हें दूर करना होगा . कई कई घंटे की लगातार ड्यूटी, कई दिन तक घर न जा पाना, बीबी बच्चो से दूर रहना, ड्यूटी की वजह से घर के कई जरुरी काम ना निपटा पाना, छुट्टी न मिलना, अपने सीनियर की बे वजह झिड़क से खिन्न रहना पुलिस कर्मिओ के लिए आम बात है . जब शहर वासी अपने परिवार के साथ त्यौहार मना रहे होते हैं तब ये अपने परिवार से दूर सुरक्षा में तल्लीन होते है . कितने ऐसे सीनियर पुलिस अफसर होंगे जो अपने जूनियर के साथ सद्भावना से पेश आते होंगे उनके दुःख दर्द को समझते होंगे . पुलिस पर पड़ने वाले राजनितिक दबाव , हस्तक्षेप पर अंकुश लगाना होगा

.देश के सभी नागरिको को भी जिम्मेदार बनना होगा . दुसरे की बहन बेटी को अपनी बहन बेटी समझ कर इज्जत देने की पुरानी परम्परा और भाई चारे की भावना को जिन्दा करना होगा . पहले जब गांव या किसी मोहल्ले में बारात आती थी तो मोहल्ले के सभी लोग अपनी ही बेटी की बारात समझ कर सेवा में जुट जाते थे और मिलकर सारा काम करते थे लड़की वाला कभी अपने आप को अकेला और असहाय नहीं समझता था . कन्यादान लिखवाने की परम्परा भी इसी भावना से प्रेरित है कि बहन बेटी सबकी सांझी होती है और इस महान यज्ञ में सभी अपना थोडा बहुत योगदान देकर आहुति डालते हैं और साँझा परिवार की भावना को मजबूत करते हैं . लड़की के पिता को भी फाइनेंसियल सपोर्ट मिल जाती है . जब तक हम सभी देश वासी भले चाहे हम किसी भी ओहन्दे-पद पर हों मिलकर तहेदिल से, निजी स्वार्थ की भावना से ऊपर उठकर , एक जुट होकर इस बुराई के खिलाफ पूरी तत्परता से नहीं खड़े होंगे तब तक बात बन्ने वाली नहीं है .

चन्द्र प्रकाश शर्मा

5 COMMENTS

  1. लेख अच्छा है, बशर्ते लोग इसको सकारात्मक और विचारनीय दृष्टि से देखें| पश्चिमी पहनावा और शिक्षा इस देश को गर्त में ले जाने तो तत्पर है और कुछ तथाकथित प्रबुध्ध बुद्धिजीवी इस पर गर्व कर अंग्रेजियत को ही अपनी संस्कृति मानने में सर ऊँचा मान रहे हैं|

    कहाँ गए मेरे गांधीजी?? किसके लिए सूत कातने की प्रथा चला गए थे जब जीन्स और नायलोन ही पहनना था??

    खुले गुड और मिठाई पर मक्खी तो आयेंगी ही क्योंकि मक्खी का नैसर्गिक आचरण ही ऐसा है..

    हरे राम हरे राम सबको सद्बुद्धि देना मेरे दाता

  2. जी, बहुत सही बातें कहीं है आपने लेख में…

    एक पुरुष की मानसिकता पुरुष ही बता सकता है… क्यों प्रेमालाप की शुरुवात या प्रेमाग्रह पुरुष ही प्रथम करता है… क्योंकि उसकी रचना और मानसिकता भगवन ने ऐसी ही बनायीं है… अगर कोई स्त्री भड़काऊ और टाईट जीन्स-शर्त धारण करती है तो निश्चित रूप से घर के न सही भर के पुरुषो को वो आकर्षित करती है और उनकी कामुकता को जगाती है … और अगर ऐसा नहीं है तो … पुरुष में सेक्स विकार होने की सम्भावना होती हैं…

  3. ऐसे विचार रखने वाले लोगों से आग्रह है कि वह सरकार से अनुरोध करें कि वैज्ञानिक एक ऐंटी रेप कवच तैयार करें
    1 साल से75 साल तक की हर महिला के लियें उसे पहनना अनिवार्य हो, क्योंकि कुछ पुरुष अपनी रुग्ण मानसिकता पर गर्व भी करने लगे हैं

  4. जीन्स टी शर्ट कोई उत्तेजक पहनावा नहीं है।साड़ी उससे भी अधिक उत्तेजक हो सकती है। है।महिलायें घूँधट काढ़ लें तो भी इन विकृत कामी पुरुषों की मानसकता नहीं बदलेगी।क्या दामिनी या गुड़िया ने उत्तेजक पोशाक पहनी थी?पुराने वख्तकी दुहाई देने वाले बतायें कि क्या पहले देव दासी प्रथा नहीं थी ? वेश्यावृत्ति नहीं थी? ज़मीदारों के यहाँ ग़रीब किसान की बहू बेटियों के साथ दरिंदगी नहीं होती थी। प्राचीन गुफाओं मे ख़जुराहो मे क्या कामोत्तेजक मूर्तियाँ नहीं हैं?जो पुराना है वह शालीन जो नया है वह अश्लील ये क्या बात हुई,अपनी विकृत कामुकता का ठीकरा किसी और के सर फोड़ना फैशन बन गया है।

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