मासिक धर्म : आखिर चुप्पी कब तक ?

 स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी होने के बावजूद भारत में पैड एक महंगी वस्तु है। यह अजीब है कि स्वच्छता अभियान चलाने वाले भारत में सैनिटरी पैड पर जीएसटी लगाकर 12 फीसदी टैक्स लगाया जाता है, लेकिन झाड़ू करमुक्त है, क्योंकि यहाँ अपने शरीर को साफ रखने से ज्यादा महत्वपूर्ण अपने घर को साफ रखना है। अमेरिका में टैमपन्स (महिलाओं की स्वच्छता से संबंधित उत्पाद) पर भी कर लगता है, लेकिन वहां वियाग्रा कर मुक्त है। हिंदू धर्म में आप अक्सर यज्ञ के सामने पुजारी को पसीना बहाते हुए देखेंगे। अगर ईश्वर उनका पसीना स्वीकार कर सकते हैं तो फिर वह महिलाओं के मासिक धर्म के समय संवहन होने वाला रक्त भी स्वीकार कर सकते हैं।

पिछले दिनों नार्थ लंदन में रहने वाली केरल राज्य की 18 वर्षीय अमिका जॉर्ज ने स्कूल में पढ़ रही गरीब बच्चियों के लिए मासिक धर्म में फ्री पीरियडस अभियान की शुरूआत की। इस अभियान के लिए अमिका ने ब्रिटेन सरकार को एक लिखित याचिका दायर की, जिसमें अमिका ने सरकार को मुफ्त स्कूल भोजन की जगह स्कूलों में पढ़ने वाली सभी बच्चियों को फ्री सैनिटरी नैपकिन देने की मांग रखी। इस याचिका में उन्होंने लिखा कि एक जवान लड़की को अपने पीरियड्स में अंडरवीयर के अंदर मोजे और टॉयल्ट पेपर रखना किसी भी समाज के लिए अस्वीकार है। इसके साथ-साथ वो उनके स्वास्थ्य के लिए भी काफी खतरनाक साबित हो सकता है। इस याचिका के समर्थन में अमिका का लोगों ने भी पूरा साथ दिया। एक अनुमान के मुताबिक अब तक 1,39,458 से अधिक लोग उनकी इस याचिका पर हस्ताक्षर कर चुके हैं अमिका का कहना है कि वह भारत में प्रचारकों के साथ जुड़ना चाहती हैं, ताकि सभी लड़कियां की पहुंच मासिक धर्म के उत्पादों तक पहुंच सकें।

प्लान इंटरनेशनल यूके जैसे कई समूहों के अनुसार, ब्रिटेन में 10 में से एक लड़की माहवारी के दौरान स्कूल नहीं जाती, क्योंकि वह महंगा सैनिटरी पैड खरीदने में सक्षम नहीं होती है। हाल ही में जारी किए गए नेशनल फ़ैमिली हेल्थ सर्वे- 4 की रिपोर्ट के मुताबिक 15 से 24 साल की उम्र की लड़कियों में 42 फ़ीसदी महिलाएं सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं। पीरियड्स के दौरान 62 फ़ीसदी महिलाएं कपड़े का इस्तेमाल करती हैं। तकरीबन 16 फ़ीसदी महिलाएं लोकल स्तर पर बनाए गए पैड का इस्तेमाल करती हैं। अभी कुछ दिन पहले तमिलनाडु के एक स्कूल में बारह साल की एक बच्ची ने आत्महत्या कर ली। जिसकी वजह हैरान कर देने वाली थी। उस बच्ची का कसूर सिर्फ इतना था कि उसे माहवारी (पीरियड्स) के बारे में जानकारी नहीं थी और उसे स्कूल में ही महावारी आ गयी। जिस वजह उस बच्ची की यूनिफॉर्म व बेंच पर दाग लग गया था जिसकी वजह से उसकी टीचर ने पूरी क्लास के सामने इतना जलील किया कि उस बच्ची ने आहत होकर अपनी जान दे दी। बताइये उस बच्ची का क्या कसूर था? यही न कि उसे इस बारे में जानकारी नहीं थी। यह घटना तब और दुःखद हो गई जब पता चला कि वह टीचर महिला थी, जो खुद माहवारी के महत्व को जानती है।

पीरियड्स के प्रति इसी हीन मानसिकता को दूर करने व शर्म को दूर भगाने के लिए फेसबुक पर सैनिटरी पैड को हाथ में पकड़कर नामी गिरामी सुपरस्टार अपनी पोस्ट साझा कर रहे हैं। और लोगों को भी तीन लोगों को टैग करके ऐसी पोस्ट साझा करने का निवेदन कर रहे हैं। फेसबुक पर यह अभियान आजकल परवान पर चढ़ता हुआ नजर आ रहा है। आपको बताते चले कि महिलाओं को पीरियड्स के दौरान सैनिटरी पैड की दिक्कत पर आधारित फिल्म पैडमैन 9 फरवरी को देशभर में रिलीज़ होने वाली है। इस फिल्म की ख़ास बात ये भी है कि ये फिल्म एक रियल लाइफ स्टोरी पर आधारित है यानी अक्षय कुमार फिल्म पैडमैन में जिस शख्स का किरदार निभा रहे हैं, वो है रियल लाइफ हीरो अरुणाचलम मुरुगनाथम है, जिन्हें ‘पैडमैन’ भी कहा जाता है।

सवाल है कि आखिर अरुणाचलम मुरुगनाथम को ‘पैडमैन’ क्यों कहा जाता है और उन्होंने ऐसा कौनसा काम किया है, जिसके चलते उन पर फिल्म भी बनायी जा रही है। एक समय ऐसा था जब हमारे देश में महिलाओं के पीरियड्स से जुड़ी समस्याओं की ओर ध्यान देना तो दूर, इस बारे में बात करना भी ज़रूरी नहीं समझा जाता था। समय के साथ इस दिशा में काफी सुधार तो हुआ लेकिन गाँवों तक मासिक धर्म के दौरान साफ़-सफाई का ध्यान रखने सम्बन्धी जागरूकता अभी भी पूरी तरह नहीं पहुँच पायी है और सैनिटरी पैड्स के महंगे होने के कारण ज़्यादातर गरीब घरों की महिलाएं, चाहकर भी इतने महंगे सैनिटरी नैपकिन्स नहीं खरीद पाती हैं। ऐसे में मुरुगनाथम ने महिलाओं की इस मुश्किल को समझा और लगातार प्रयास करके ऐसे सैनिटरी पैड्स बनाये, जो ना केवल सस्ते थे बल्कि उनका इस्तेमाल करके महिलाएं हाइजीन का भी पूरा ख्याल रख सकती थी।

1962 में तमिलनाडु में जन्मे मुरुगनाथम की ये राह आसान नहीं थी। जिस समय मुरुगनाथम ने अपनी पत्नी की पीरियड्स से जुडी परेशानी को समझा, तभी ये ठान लिया कि महिलाओं को होने वाली इस मुश्किल का हल वो ज़रूर निकालकर रहेंगे। अपने इन प्रयासों के दौरान उन्हें सोसाइटी और गाँव में काफी अपमान भी सहना पड़ा और जब उनके बनाये सैनिटरी पैड्स की क्वालिटी को जांचने के लिए कोई महिला वोलेंटियर नहीं मिली तो उन्होंने खुद ही सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करके देखना शुरू कर दिया कि उनका बनाया हुआ पैड, पीरियड्स की जरुरत के लिए कितना उपयुक्त है। इसके लिए उन्होंने एक ‘गर्भाशय’ बनाया, जिसमें बकरी का खून भरकर उसे जमने से रोकने के लिए उसमें कुछ मिलाया। इसके बाद पैडमैन मुरुगनाथम, सैनिटरी नैपकिन को अपने कपड़ों के अंदर पहनकर दिनभर यहाँ-वहाँ घूमने लगे। ऐसा करने में उन्हें काफी मुश्किल हालातों का सामना करना पड़ा लेकिन वो ये देखना चाहते थे कि उनके बनाये सैनिटरी नैपकिन कितना सोख पाने में सक्षम हैं।

मुरुगनाथम को ये पता लगाने में 2 साल से भी ज़्यादा का समय लग गया कि सैनिटरी पैड्स किन चीजों से बने होते हैं और आख़िरकार साढ़े चार साल बाद उन्होंने पैड बनाने के लिए सस्ती मशीन बना ली और उनसे बने सैनिटरी पैड्स को गाँव-गाँव में पहुंचाया। मुरुगनाथम ने विरोधों से अप्रभावित रहते हुए, निरंतर प्रयास के दम पर समाज में जो बदलाव लाने की कोशिश की, उसे ना केवल देश बल्कि दुनिया में भी सराहा गया है। उनकी बनायी मशीन को नेशनल इनोवेशन अवॉर्ड की 943 एन्ट्रीज में पहला स्थान मिला है। 18 महीनों में ऐसी 250 मशीनें बनाने वाले पैडमैन मुरुगनाथम को, टाइम्स मैगजीन ने साल 2014 के 100 सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में भी चुना और साल 2016 में उन्हें पद्मश्री से भी नवाजा गया है।

आज पैडमैन अरुणाचलम मुरुगनाथम, जयश्री इंडस्ट्रीज के नाम से नैपकिन बिजनेस चला रहे हैं जिसकी पूरे भारत में 2003 यूनिट्स है और 21,000 से भी ज़्यादा महिलाएं यहाँ काम करती हैं। इसलिए अरुणाचलम मुरुगनाथम को ‘पैडमैन’ कहा जाता है। पैडमैन मुरुगनाथम का ये जज़्बा का हर किसी को प्रेरित करता है कि अगर हम समाज में कोई बेहतर बदलाव देखना चाहते हैं तो उसकी शुरुआत हमें खुद से करनी चाहिए क्योंकि नामुमकिन तो कुछ भी नहीं है।

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