मां

गरम तवे पर रोटी जैसी, हर दिन सिकती रहती मां|

फिर भी मटके के जल जैसी ,शीतल दिखती रहती मां|

 

चेहरे पर मुस्कान बिखेरे ,खिल खिल हँस भी लेती है,

बिना कोई दुख दर्द बताये ,सब कुछ सहती रहती मां|

 

सर्कस के तंबू में जैसे, इस झूले से उस झूले,

घर में किसी फिरकनी जैसी, हर पल फिरती रहती मां|

 

रात गये तक सबकी चिंता, दिन ऊगा तो बस सेवा,

बिना थके घर के नौकर सी, दिन भर खटती रहती मां|

 

चट्टानों सी खड़ी मुसीबत ,भले सामने दिखती हो,

फिर भी ठंडी बूंद बूंद सी ,पल पल झरती रहती मां|

 

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव
लेखन विगत दो दशकों से अधिक समय से कहानी,कवितायें व्यंग्य ,लघु कथाएं लेख, बुंदेली लोकगीत,बुंदेली लघु कथाए,बुंदेली गज़लों का लेखन प्रकाशन लोकमत समाचार नागपुर में तीन वर्षों तक व्यंग्य स्तंभ तीर तुक्का, रंग बेरंग में प्रकाशन,दैनिक भास्कर ,नवभारत,अमृत संदेश, जबलपुर एक्सप्रेस,पंजाब केसरी,एवं देश के लगभग सभी हिंदी समाचार पत्रों में व्यंग्योँ का प्रकाशन, कविताएं बालगीतों क्षणिकांओं का भी प्रकाशन हुआ|पत्रिकाओं हम सब साथ साथ दिल्ली,शुभ तारिका अंबाला,न्यामती फरीदाबाद ,कादंबिनी दिल्ली बाईसा उज्जैन मसी कागद इत्यादि में कई रचनाएं प्रकाशित|

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