“माता और मातृभूमि स्वर्ग अर्थात् सभी सुखों से बढ़कर है”

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मातृ दिवस के अवसर पर-

मनमोहन कुमार आर्य,

वैदिक धर्म और संस्कृति में माता का स्थान ईश्वर के बाद सबसे ऊपर है। इसका कारण है कि माता सन्तान को जन्म देती है और इसके साथ उसका पालन पोषण करने के साथ उसे सुशिक्षा एवं संस्कार भी देती है। यह गुण व देन सन्तान को माता के अतिरिक्त अन्य किसी से प्राप्त नहीं होती। पालन पोषण तो अन्य भी कर सकते हैं परन्तु जन्म तो माता ही देती है। जन्म के महत्व को जानने के लिए हमें मनुष्य जीवन को यथार्थ रूप में समझना पड़ेगा। मनुष्य अनादि चेतन सत्ता जीवात्मा का प्रकृतिजन्य शरीर के साथ संयोग है। यह संयोग परमात्मा कराता है और इसमें माता की मुख्य भूमिका होती है। परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि करता है। उस समय वह भूमि के भीतर मनुष्य की रचना कर उसे युवावस्था में उत्पन्न करता है। उसके बाद मैथुनी सृष्टि आरम्भ हो जाती है और सभी मनुष्य वा सन्ताने अपनी-अपनी माताओं से ही जन्म प्राप्त करते हैं। ईश्वर तो संसार में सबके लिए सर्वोपरि है ही, दूसरे स्थान पर माता का ही स्थान है। यदि हमारी माता हमें जन्म न देती तो हम संसार में मनुष्य रूप में जन्म न ले पाते। जन्म न लेते तो हमारी क्या अवस्था होती, इसका अनुमान ही किया जा सकता है। जन्म न होने पर हमारी अवस्था गहरी निद्रा, बेंहोशी वा कोमा वाले मनुष्य की तरह होती। हमें संसार व अपने बारे में कुछ भी ज्ञान न होता। हमें इस जीवन में जो सुख मिले हैं, उसमें हमारे पूर्वजन्म व इस जन्म के कर्म तो कारण रूप में हैं ही, इसके साथ माता का योगदान प्रमुख है। उन सभी सुखों के लिए हम अपनी माता के ऋणी हैं।

 

संसार के सभी प्रकार के धन व वैभव किसी मनुष्य द्वारा अपनी माता की की जाने वाली अच्छी से अच्छी सेवा के सम्मुख तुच्छ व हेय है। जब सन्तान का जन्म होता है तो माता को दस माह तक अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसका अनुमान व अनुभव तो माताओं को ही होता है। हम उसकी हल्की सी कल्पना मात्र ही कर सकते हैं। प्रसव के समय माताओं का जीवन खतरे में होता है। यदि प्रसव कुशलता व सफलतापूर्वक हो जाये तो यह माता का एक प्रकार से नया जन्म कहा जा सकता है। आजकल तो चिकित्सा विज्ञान समुचित विकसित हो गया है परन्तु तीन-चार दशक पूर्व तो कुछ माताओं का प्रसवकाल में देहान्त तक हो जाया करता था। हमने अपने ही परिवारों में ऐसे दुःख को अनुभव किया है। आजकल शहरों में सन्तान को जन्म देने के लिए नर्ससिंग होम खुल गये हैं जहां भारी भरकम रकम लेकर प्रसव कराया जाता है। निर्धन व गरीब मनुष्य तो किसी नर्सिंग होम में जाने की बात सोच ही नहीं सकता। डाक्टरों की फीस वा शुल्क अलग होता है और वहां के स्टाफ को अलग से देना होता है जो कि सामान्य मनुष्य के बस की बात नहीं होती। अतः सामान्य परिवार की माता के लिए सन्तान को जन्म देना अधिक रिस्की होता है। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि आजकल नर्सिंग होम में 90 प्रतिशत तक प्रसव आपरेशन या सिजेरियन होते हैं। इसमें लोग दोनों बाते बताते हैं। पहली तो यह कि शल्य क्रिया की आवश्यकता होती है। दूसरा अधिक धन की प्राप्ति के कारण भी ऐसा होता है। आज से 30 वर्ष पूर्व सम्भवतः 90 प्रतिशत तक प्रसव सामान्य रूप से होते थे और सन्तान का जन्म हो जाता था। एक माता आठ से दस सन्तानों को जन्म देने के बाद भी स्वस्थ व दीघार्यु होती थी। सरकारी अस्पतालों के आकड़े भी देखे जा सकते हैं जहां सामान्य प्रसव निजी नर्सिंग होम की तुलना में अधिक होते हैं। सरकार का इस पर ध्यान नहीं है। होगा भी तो शायद वह नर्सिंग होम के लोगों को नाराज करने का रिस्क न लें। आपरेशन या सिजेरियन से कई माताओं को सारा जीवन कष्ट झेलने पड़ते हैं। इसका अनुमान आज की पढ़ी लिखी सन्तानें नहीं कर सकती। आजकल तो यह देखा जाता है कि यदि माता-पिता ने अपनी किसी सन्तान को कोई हितकारी बात कह दी और वह उन्हें अच्छी होते हुए भी अनुकूल न लगे तो वह माता-पिता से नाराज हो जाते हैं और उन्हें खरी खोटी सुना देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी मनुष्य या सन्तान को जन्म देने व उसका पालन पोषण करने में माता का संसार के सभी मनुष्यों में सबसे अधिक योगदान होता है। अतः सन्तान का यह कर्तव्य है कि वह हर बात को समझे और अपनी माता को जीवन में कभी दुःखी न करे। प्रत्येक वर्ष मई माह के दूसरे रविवार को भारत में मातृ दिवस मनाया जाता है। वह इसी लिए मनाते हैं कि सभी मनुष्य अपनी माता के त्याग व कष्टों को अनुभव कर उनके प्रति श्रेष्ठ व्यवहार करें। उन्हें अधिक से अधिक सुख दें और अपने व्यवहार आदि के कारण उन्हें दुःख न पहुंचे इसका ध्यान रखना चाहिये।

 

प्राचीन ग्रन्थ शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि ‘मातृवान् पितृवानाचार्यवान् पुरुषो वेद’ अर्थात् वह सन्तान भाग्यशाली होती है जिसके माता, पिता व आचार्य धार्मिक विद्वान हों। धार्मिक उसे कहते हैं कि जो वेदों की शिक्षाओं से भलीभांति परिचित हों और उसके अनुसार आचरण करते हों। ऐसा इसलिए कहा गया है कि वेद ईश्वरीय ज्ञान है और इस कारण वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक भी है। जीवन विषयक ऐसी कोई अच्छी व श्रेष्ठ बात नहीं है कि जो वेद में न हो या वेद पढ़कर हम जान न सकें। वेद पढ़कर सभी सत्य व श्रेष्ठ व्यवहारों का ज्ञान होता है। इस अवसर पर बाल्मीकि रामायण का वह प्रसंग याद आता है कि जब दशरथनन्दन लक्ष्मण उन्नत व समृद्ध सोने की लंका को देखकर मुग्ध हो गये थे। उस समय उनके मन में यह विचार आया कि अयोध्या की तुलना में लंका में निवास करना अच्छा हो सकता है। उस अवसर पर राम ने लक्ष्मण को समझाते हुए कहा था कि ‘अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।’ अर्थात् हे लक्ष्मण! यद्यपि लंका स्वर्णमयी है परन्तु यह मुझे पसन्द नहीं है। मेरे लिए तो जन्मदात्री माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। राम की यह बात सुनकर लक्ष्मण का मोह भंग हो गया था। यह बात अक्षरक्षः सत्य भी है। अतः हमें भी माता और मातृभूमि के महत्व व गौरव को कम नहीं आंकना चाहिये। अपनी माता की सेवा तथा उसे सुख देने से ही कोई भी सन्तान स्वर्ग के समान सुख प्राप्त कर सकते हैं। माता के हृदय दुःख देकर कोई सन्तान सदा के लिए सुखी नहीं हो सकती। जो जैसा करता है उसको वैसा ही भोगना पड़ता है। यह शाश्वत सत्य सिद्धान्त है। इसको सबको स्मरण रखना चाहिये। इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिये। माता के गौरव पर आर्यसमाज के विद्वान ब्रह्मचारी नन्दकिशोर जी ने ‘मातृ गौरव’ के नाम से एक पुस्तक लिखी है। उसका अध्ययन सभी को करना चाहिये। इस पुस्तक में विद्वान लेखक ने माता के गौरव विषयक शास्त्रों के अधिकांश प्रमाणों को संकलित कर प्रस्तुत किया है। मनुस्मृति के अनुसार माता का गौरव एक आचार्य से 1 लाख गुणा और पिता का गौरव 100 आचार्य के बराबर होता है। महाभारत के अनुसार युधिष्ठिर जी यक्ष को बताते हैं कि माता पृथिवी से भारी है। पिता आकाश सं ऊंचा है। महाभारत यह भी कहता है कि माता के समान दूसरा कोई गुरू नहीं है।

 

माता के ही समान हमारी मातृभूमि का भी गौरव होता है। मातृभूमि की गोद में निवास कर व खेल कूद कर ही हम बड़े होते है। इसकी धरती पर उत्पन्न अन्न, फल, वायु, जल आदि के सेवन से हमारा शरीर पुष्ट व बलवान बनता है तथा वृद्धि को प्राप्त होता है। अगर हमारी अपनी मातृभूमि न हो तो दूसरे देशों के लोग हमें शरणार्थी मानते हैं व अपने समान अधिकार नहीं देते। यह बात और हैं कि भारत में वोटों व अन्य कारण से शरणार्थियों को देश का नागरिक मान लिया जाता है। यदि इसके विरुद्ध कोई आवाज उठाता है तो राजनीतिक दल उनके पीछे पड़ जाते हैं। संसार में इस मामले में भारत जैसा कोई देश नहीं है जहां अपने देश के लोगों की उपेक्षा होती है और विदेशी शरणार्थी यहां राजनीतिक पद व वैभव तक प्राप्त कर लेते हैं। आज भारत में करोड़ों विदेशी लोग आ बसे हैं जिनमें बंगलादेशियों की संख्या सबसे अधिक है। अस्तु। अथर्ववेद में मातृभूमि की महत्ता व महिमा बताते हुए कहा गया है कि ‘माता भूमि पुत्रोहं पृथिव्याः।’ अर्थात् भूमि मेरी माता है और मैं उसका पुत्र हूं। वेद संसार के सबसे पुराने ग्रन्थ हैं। इसी से यह विचार सारे संसार में लोकप्रिय हुआ है। इसी कारण अपने देश की भूमि को लोग मातृभूमि या डवजीमत स्ंदक कहते हैं। उर्दू में भी मादरे वतन शब्द सुना जाता है। मातृभूमि की महत्ता के कारण ही ऋषि दयानन्द ने गुलामी के दिनों में अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में उद्घोष कि था कि कोई कितना ही करे किन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। एक स्थान पर उन्होंने यह भी कहा कि हे ईश्वर! हमारे देश में विदेशी शासक कभी न हों और हम पराधीन न हो। ऐसे विचार स्वामी जी के ग्रन्थों व वेदभाष्य में अनेक स्थानों पर पाये जाते हैं। इसी कारण अंग्रेज व उनके अधिकारी ऋषि दयानन्द को बागी फकीर कहा करते थे। स्वामी दयानन्द की एक देन यह भी है कि उन्होंने महाभारत आदि ग्रन्थों के आधार पर बताया कि सृष्टि के आरम्भ से लेकर महाभारतकाल पर्यन्त आर्यावर्त्त वा भारत का सम्पूर्ण विश्व पर एकमात्र चक्रवर्ती राज्य रहा है। देश भूमि के प्रति कृतज्ञता की भावना के कारण ही स्वामी श्रद्धानन्द, पं. श्यामजी कृष्ण वर्मा, सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, भाई परमानन्द, वीर सावरकर, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद आदि ने अपने जीवन बलिदान किये व बलिदानियों के समान कार्य किये। इस लेख को और अधिक विस्तार न देकर हम यहीं विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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