प्रेरक महापुरुष थे महामना मदनमोहन मालवीय

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पंडित महामना मदनमोहन मालवीय जी के जन्मदिवस 25 दिसंबर के अवसर पर

अवनीश सिंह

बात उन दिनों की है जब महामना मदनमोहन मालवीय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कुछ ही समय पहले की थी। कभी-कभी प्राध्यापक उद्दंड छात्रों को उनकी गलतियों के लिए आर्थिक दंड दे दिया करते थे, मगर छात्र उस दंड को माफ कराने मालवीय जी के पास पहुंच जाते और महामना उसे माफ भी कर देते थे। यह बात शिक्षकों को अच्छी नहीं लगी और वह मालवीय जी के पास जाकर बोले, ‘महामना, आप उद्दंड छात्रों का आर्थिक दंड माफ कर उनका मनोबल बढ़ा रहे हैं। इससे उनमें अनुशासनहीनता बढ़ती है। इससे बुराई को बढ़ावा मिलता है। आप अनुशासन बनाए रखने के लिए उनके दंड माफ न करें।’

मालवीय जी ने शिक्षकों की बातें ध्यान से सुनीं फिर बोले, ‘मित्रो, जब मैं प्रथम वर्ष का छात्र था तो एक दिन गंदे कपड़े पहनने के कारण मुझ पर छह पैसे का अर्थ दंड लगाया गया था। आप सोचिए, उन दिनों मुझ जैसे छात्रों के पास दो पैसे साबुन के लिए नहीं होते थे तो दंड देने के लिए छह पैसे कहां से लाता। इस दंड की पूर्ति किस प्रकार की, यह याद करते हुए मेरे हाथ स्वत: छात्रों के प्रार्थना पत्र पर क्षमा लिख देते हैं।’ शिक्षक निरुत्तर हो गए।

भारत-भूमि पर समय-समय पर अनेक महान् विभूतियों ने जन्म लिया। इन महान् विभूतियों में पंडित मदनमोहन मालवीय भी एक ऐसे महापुरुष हुए, जिन्हें लोग ‘महामना मालवीय’ के नाम से जानते हैं। पंडित महामना मदनमोहन मालवीय का जन्म भारत के उत्तरप्रदेश प्रान्त के प्रयाग में २५ दिसम्बर सन १८६१ को एक साधारण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम ब्रजनाथ और माता का नाम भूनादेवी था। चूँकि ये लोग मालवा के मूल निवासी थे अस्तु मालवीय कहलाए। महामना मालवीय जी मूर्धन्य राष्ट्रीय नेताओं में अग्रणी थे। जितनी श्रद्धा और आदर उनके लिए शिक्षित वर्ग में था। उतना ही जन साधारण में भी था। मालवीय जी की विद्वता असाधारण थी और वे अत्यन्त सुसंस्कृत व्यक्ति थे। विनम्रता एवम् शालीनता उनमें कूट-कूटकर भरी थी। वे अपने युग के सर्वश्रेष्ठ वक्ता थे। वे संस्कृत, हिंदी तथा अंग्रेजी तीनों ही भाषाओं में निष्णात थे। महामना जी का जीवन विद्यार्थियों के लिए एक महान प्रेरणा स्रोत था। उनके स्तर के किसी अन्य नेता के पास जनसाधारण की पहुँच उतनी सरल नहीं थी, जितनी मालवीय जी के पास। लोग उनके साथ इतने प्रेम से बात कर सकते थे मानों वे उनके पिता, बन्धु अथवा मित्र हों।

मालवीय जी ने सन् 1893 में कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की थी और कई वर्षों तक वकालत भी की थी। वकालत के क्षेत्र में उनको बहुत ख्याति मिली। चौरी-चौरा कांड के 170 भारतीयों को फाँसी की सजा सुनाई गई थी, किंतु मालवीय जी के बुद्धि-कौशल ने अपनी योग्यता और तर्क के बल पर 151 लोगों को फाँसी से छुड़ा लिया। इस केस की ख्याति सारे देश में ही नहीं, अपितु सारे विश्व में फैल गई। केस की तैयारी के लिए वे सायं कुर्सी पर बैठ जाते थे और सैकड़ों पुस्तकों को पढ़कर अपने काम की सामग्री निकाल लेते थे। वे पूरी-पूरी रात जागकर केस की तैयारी करते थे। अग्रेज जज तक उनकी तीक्ष्ण बुद्धि पर आश्चर्य प्रकट करते थे।

‘‘वकालत के क्षेत्र में मालवीयजी की सबसे बड़ी सफलता चौरीचौरा कांड के अभियुक्तों को फाँसी से बचा लेने की थी। राष्ट्र की सेवा के साथ ही साथ नवयुवकों के चरित्र-निर्माण के लिए और भारतीय संस्कृति की जीवंतता को बनाए रखने के लिए मालवीयजी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की।’’

मालवीय जी भारत को हिंदू राष्ट्र स्वीकारते थे। अस्तु, यहाँ के निवासी हिंदू हैं। उनको अपने राष्ट्र को हिंदू राष्ट्र कहना चाहिए। न्याय और धर्म की बात यह है कि प्रत्येक देश तथा जाति के लोग अपने देश में स्वाधीन हों, अपने विचारों को प्रकट करने में स्वतंत्र हों और वे अपने ऊपर स्वयं राज करें। सबको रोजी-रोटी मिले। अपने देश में अपने ऊपर स्वयं राज करें। पराधीनता की बात स्वप्न में भी नहीं सोचनी चाहिए। यदि इस्लाम धर्म के मानने वाले हिंदुओं के साथ हिल-मिलकर रहना चाहते हैं, तो उन्हें हिंदुओं के धर्म का आदर करना चाहिए।

गौ, गंगा व गायत्री मालवीय जी के प्राण थे। गंगा के लिए वे लगातार सक्रिय रहे। मालवीय जी ने सन् 1913 में हरिद्वार में बांध बनाने की अंग्रेजों की योजना का विरोध किया था। उनके दबाव में अंग्रेज सरकार को झुकना पड़ा था। तत्कालीन भारत सरकार ने महामना के साथ समझौता किया था। इस समझौते में गंगा को हिन्दुओं की अनुमति के बिना न बांधने व 40 प्रतिशत गंगा का पानी किसी भी स्थिति में प्रयाग तक पहुंचाने की शर्त शामिल थी। मालवीय जी ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बाकायदा एक बड़ी गौशाला बनवायी थी। इस गौशाला को देखरेख के लिए विश्वविद्यालय के कृषि कालेज को सौंपा गया था। गंगा उन्हें इस कदर प्यारी थीं कि उन्होंने न सिर्फ गंगा के लिए बड़े आंदोलन किए वरन गंगा को विश्वविद्यालय के अन्दर भी ले गये थे, जिससे कि पूरा प्रांगण हमेशा पवित्र रहे।

उनकी अमरकृति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय पौरस्त्य एवं पाश्चात्य, प्राचीन एवं आधुनिक समस्त विद्याओं की राजधानी ही नहीं, अपितु भारत की राष्ट्रीय चेतना एवं सांस्कृतिक पुनर्जागरण का भी प्रतीक रही है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भारतीय स्वाधीनता संग्राम के युग में प्रेरणा एवं शक्ति के अजस्र स्रोत के रूप में भी अपनी भूमिका निभा चुका है।

महामना मालवीय जी ने शिक्षा के प्रसार और इसे नया स्वरूप प्रदान करने पर इतना बल इस कारण दिया, क्योंकि वह इसे सांस्कृतिक जागरण का प्रधान अंश मानते थे। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में भारत में जो सांस्कृतिक पुनर्जागरण हो रहा था, मालवीय जी उससे प्रभावित हुए। उनकी वाणी में, विचारों में और मान्यताओं में उस सांस्कृतिक उत्थान की झलक मिलती है। जिससे उनके युग के अनेक राष्ट्रवादी अनुप्राणित हुए थे। वह भारत में चल रहे पुनरूत्थान का काल था, जिसमें यहाँ के राष्ट्रनेताओं ने भारतीयों में आत्मविश्वास और स्वाभिमान जगाने का कार्य किया। मालवीय जी के कार्यों ने भी आत्मविश्वास और स्वाभिमान जगाने का कार्य किया। मालवीय जी के कार्यों के मूल परिकल्पना इसी प्रवृति से उपजी। उन्होंने विशेष रूप से भारत की सांस्कृतिक धरोहर की ओर देखा, उसके गौरवमय इतिहास से प्रेरणा ग्रहण की और भारतीय के प्रति अनुराग जगाने का सदैव कार्य किया। इसी दृष्टि से उन्होंने भारतीय भाषाओं को विकसित करने तथा संस्कृत के अधिकाधिक प्रयोग पर बल दिया।

मालवीय जी का विश्वास था कि राष्ट्र की उन्नति तभी संभव है, जब वहाँ के निवासी सुशिक्षित हों। बिना शिक्षा के मनुष्य पशुवत् माना जाता है। मालवीय जी नगर-नगर की गलियों तथा गाँवों में शिक्षा का प्रचार-प्रसार में जुटे थे। वे जानते थे की व्यक्ति अपने अधिकारों को तभी भली भाँति समझ सकता है, जब वह शिक्षित हो। संसार के जो राष्ट्र आज उन्नति के शिखर पर हैं, वे शिक्षा के कारण ही हैं।

मालवीय जी ने 4 फरवरी 1916 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। इस विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए उन्होंने देश के कोने-कोने से धन-संग्रह किया। मालवीय जी सन् 1919 से 1939 तक इसके कुलपति रहे। शरीर की शिथिलता के कारण कठिन उत्तरदायित्व का निर्वहन करना उनके लिए दुष्कर हो रहा था। अन्तत: उन्होंने त्यागपत्र देने का निश्चय किया तथा विश्वविद्यालय कोर्ट ने उनका त्यागपत्र स्वीकार करते हुए डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् को विधिवत कुलपति निर्वाचित किया। मालवीय जी को आजीवन रेक्टर नियुक्त किया गया।

अस्वस्थ होते हुए भी वे विद्यार्थियों की जितनी सहायता कर सकते थे। मालवीय जी करते रहते थे। वे नियमित रूप से प्रति सप्ताह रविवार को गीता प्रवचन में जाते थे पर वहाँ उसके प्रति विद्यार्थियों की पर्याप्त अभिरूचि न देखकर दु:खी होते थे। वे बहुधा शिवाजी हाल जाते, कसरती नवयुवकों के हृष्ट-पुष्ट शरीर को देखकर प्रसन्न होते, उन्हें आशीर्वाद देते थे।

ईश्वर भक्ति और देशभक्ति मालवीय जी के जीवन के दो मूल मंत्र थे। इन दोनों का उत्कृष्ट संश्लेषण, ईश्वरभक्ति का देशभक्ति में अवतरण तथा देशभक्ति की ईश्वरभक्ति में परिपक्वता उनके व्यक्तित्व का विशिष्ट सदगुण था। उनकी धारणा थी कि ‘मनुष्य के पशुत्व को ईश्वरत्व में परिणत करना ही धर्म है। मनुष्यता का विकास ही ईश्वरत्व और ईश्वर है और निष्काम भाव से प्राणी मात्र की सेवा ही ईश्वर की सच्ची आराधना है।

महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी का विद्यार्थियों को उपदेश था।

सत्येन ब्रह्मचर्येण व्यायामेनाथ विद्यया।

देशभक्त्याऽत्यागेन सम्मानर्ह: सदाभव।।

अथार्त सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, विद्या, देशभक्ति, आत्मत्याग द्वारा अपने समाज में सम्मान के योग बनो।

मालवीय जी विद्यार्थियों से यह भी कहा करते थे कि

“विद्यार्थियों तुम ईश्वर का ज्ञान चाहते हो, तो अपने मन को पवित्र कर मेरी बातों को सुनो।”

1 COMMENT

  1. किया जतन जी जान से मालवीय जी ने
    हिंदी को गोशा -गोशा में पहुंचाने के लिए |
    अखण्ड ज्योति जलाया हिंदीकी मालवीय ने
    सजाया सवारा निखारा मालवीय जी ने |
    बाद मरने के उनके हिम्मत को देखकर
    भारत रत्न के काबिल जो समझी सरकार ने |
    खेमा विरोधी भी उनके साहस को देखकर
    प्रथम पुरुष थे जिनको महामना कह डाला ||

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