‘मिस्टर गांधी’ एवं ‘कायदे आजम’ जिन्ना

gandhi and jinnaनरेन्द्र मोदी जब-जब ‘गांधी-गांधी’ पुकारते हैं तो कई लोगों को आश्चर्य होता है कि जिस नेता की पार्टी ‘गांधी विरोध’ पर पैदा हुई, उसी पर आगे बढ़ी और ‘गांधीवाद’ (यदि कोई है तो) को हर क्षण कोसती रही उसी का प्रधानमंत्री अपने भाषणों में ‘गांधी-गांधी’ का इतना राग क्यों अलापता है? वस्तुत: मोदी की अपनी योजना है और अपनी रणनीति है, जिससे उन्हें कांग्रेस को घेरना है और ‘कांग्रेस विहीन भारत’ का निर्माण करना है।

वैसे गांधीजी से मौलिक मतभेद रखने वाले लोगों की आज भी देश में कमी नही है। उनकी देशभक्ति असंदिग्ध है पर कार्यशैली पर लोगों ने एक दो बार नही हजारों बार प्रश्न चिन्ह लगाये हैं। अब नेताजी सुभाषचंद्र बोस के विषय में  समाचार आया है कि कांग्रेस की नेहरू सरकार और उनके पश्चात उनकी पुत्री इंदिरा गांधी की सरकार 1947 ई. से 1968 तक नेताजी  के परिवार  की जासूसी कराती रहीं। निस्संदेह इस जासूसी प्रकरण का श्रीगणेश यदि 15 अगस्त 1947 से ही हो गया था तो यह नही हो सकता कि गांधीजी को इसकी जानकारी ना रही हो। पूरा देश यह चाहता है कि सुभाष बाबू की मृत्यु का रहस्य स्पष्ट होना चाहिए और उसमें गांधी नेहरू की भूमिका भी स्पष्ट होनी चाहिए। इसका कारण यह है कि देश की आत्मा अब यह भी चाहती है कि यदि किसी व्यक्ति या किसी पार्टी को रत्नजडि़त अमूल्य महानता की चादर ओढ़ा दी गयी है तो उसके विषय में भी यह तथ्य स्पष्ट होना चाहिए कि ऐसा व्यक्ति या कोई ऐसी पार्टी किसी ऐसी महानता की चादर को ओढऩे का पात्र भी है या नही?

गांधीजी की आलोचना लोगों ने देश के बंटवारे में उनकी भूमिका को लेकर अधिक की है। लोगों का मानना है कि इस संवेदनशील बिंदु को गांधीजी ने उस ढंग से कभी लिया ही नही जिस ढंग से देश उनसे अपेक्षा कर रहा था। वह जिन्ना के लिए ‘आरती का थाल’ सजाये खड़े रहे और जितना  जिन्ना को ‘कायदे आजम’ कहते गये उतना ही देश बंटवारे की ओर बढ़ता चला गया।

गांधीजी की मान्यता थी कि मुसलमानों के साथ कामचलाऊ समझौते के बिना सविनय अवज्ञा आंदोलन मुसलमान विरोधी सिद्घ होगा। इसलिए वह ‘नाज नखरे’ करने वाले लोगों का तुष्टिकरण करने में लगे रहे और वह ‘नाज नखरे’ दिखाने वाले लोग अपना महत्व और मूल्य बढ़ाते गये। तुष्टिकरण के खेल में लगे गांधीजी की आंखें उस समय तक नही खुलीं जब तक देश का बंटवारा न हो गया। जब बंटवारा हो गया तो उस समय भी लोगों ने सोचा कि बापू अपने ‘उच्छ्रंखल गोद लिये पुत्रों’ को धमकाएंगे और बंटवारे को आंख खोलकर देखेंगे कि मेरा उद्देश्य यह नही था जहां नियति ने हमें पहुंचा दिया है। उनकी आंखें तो खुलीं पर उनकी चेतना का स्पंदन तो उस समय भी ‘नवजात पाकिस्तान’ के लिए ही हो रहा था। क्योंकि वह अड़कर बैठ गये थे कि पाकिस्तान को 55 करोड़ रूपया बंटवारे के पुरस्कार के रूप में दो।

’55 करोड़ पाकिस्तान को दो’ की जिद करने वाले गांधी पर लोग वीर सावरकर के उन शब्दों को याद कर रहे थे, जो उन्होंने विभाजन से लगभग चार वर्ष पूर्व कहे थे-”अब तो पाकिस्तान की रूपरेखा इतनी स्पष्ट हो चुकी है कि पलायन करने वाला भी उसे भली भांति देख सकता है। केवल अंधे और कायर ही इस भ्रम को पाल सकते हैं कि यह भयंकर सांप रज्जु का टुकड़ा सिद्घ होगा।’’ (धनंजय कीर)

यह कथन वीर सावरकर ने उस समय कहा था जब कांग्रेस के आशीर्वाद से जन्मे सिंध  प्रांत की विधानसभा ने 3 मार्च 1943 को पाकिस्तान की अधिकृत मांग कर डाली थी। इसी प्रांत की विधानसभा ने सर्वप्रथम पाकिस्तान की अधिकृत मांग थी। जिस दिन यह प्रस्ताव विधानसभा में पारित किया गया था उस दिन सिंध के कथित राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता अल्लाबक्श विधानसभा से अनुपस्थित रहे। कहने का अभिप्राय है कि कांग्रेस का राष्ट्रवाद भी विखण्डनवादी था। क्योंकि अल्लाबक्श के देशप्रेम पर किसी भी कांग्रेसी ने कभी भी कुछ नही कहा। वे मूर्खों के स्वर्ग में रहे और गांधीजी उनका नेतृत्व करते रहे। तब संवेदनशील लोग यह मानकर चल रहे थे कि पाकिस्तान तो बनता आ रहा है पर ”अंधे और कायर’’ लोग मतिभ्रम में पड़कर इसे देख नही पा रहे हैं।

आर्य समाज और हिन्दू महासभा ने मिलकर कई ऐसी लड़ाईयां लड़ीं जो देश के स्वतंत्रता आंदोलन का स्वर्णिम पृष्ठ हो सकती थीं। परंतु उन्हें एक षडय़ंत्र के अंतर्गत देश के इतिहास से हटा दिया गया। आर्य समाज को देश के राष्ट्रवाद की बयार बहाने वाली एक महान संस्था के रूप में उस समय प्रसिद्घि मिल चुकी थी। इस संस्था को समाप्त करने के लिए न केवल अंग्रेज सक्रिय थे, अपितु कांग्रेस भी नही चाहती थी कि उसकी ‘दोगली बातों’ का तार्किक और युक्तियुक्त विरोध करने वाली आर्य समाज जैसी कोई संस्था देश में रहे।

ऐसी मानसिकता के  वशीभूत  होकर जून 1943 में लीग नियंत्रित मंत्रालय ने सिंध में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के 14वें समुल्लास पर प्रतिबंध लगा दिया। इस घटना से एकदम पूर्व सावरकर ने वायसराय को तार दिया था-”मैं आग्रहपूर्वक महामहिम का ध्यान सिंध  मंत्रालय के इस पग की ओर दिलाता  हूं। उसने यह पग सत्यार्थ प्रकाश के बारे में  जानबूझकर उठाया है। यह आर्य समाजियों का धर्मग्रंथ है और हिन्दू मात्र उसका आदर करता है। बाईबिल समेत हर धर्मग्रंथ में अन्य संप्रदायों अथवा धर्मों के विषय में कुछ न कुछ कहा गया है, किंतु किसी भी हिन्दू मंत्रालय ने कभी भी यह नही सोचा कि किसी भी अहिंदू ग्रंथ के विरूद्घ पग उठाया जाए।’’

‘सत्यार्थप्रकाश’ पर प्रतिबंध लगाना उस समय के हर राष्ट्रवादी व्यक्ति के लिए चिंता और चिंतन का विषय बन चुका था। पर देश का दुर्भाग्य रहा कि गांधीजी और उनकी कांग्रेस इस पर भी मौन रही। यदि उस समय गांधीजी और कांग्रेस ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के समर्थन में उतर आते तो बहुत संभव था कि सिंध जिस रास्ते पर बढ़ रहा था वह उस पर ना जा पाता। गांधीजी मार्च 1943 में सिंध के ‘लीग नियंत्रित मंत्रालय’ के प्रस्ताव पर अनशन पर बैठ जाते तो ‘कोई बात बन सकती थी।’ जून 1940 ई. में गांधीजी ने कहा था-”ब्रिटिश  सरकार सर्वसम्मत समझौते के लिए आग्रह नही करेगी यदि उसे दीख पड़े कि सत्ता लेने के लिए कोई समर्थ है। यह मानना होगा कि अभी कांग्रेस में वह सामथ्र्य नही है। यदि वह और दुर्बल न पड़े और पर्याप्त धैर्य धारण करे तो उसमें सत्ता के लिए पर्याप्त सामथ्र्य आ जाएगा। यह भ्रम हमने ही पैदा किया है कि सभी दलों के साथ समझौता कर लेने पर ही हम आगे बढ़ सकेंगे।’’

गांधीजी का यह कथन उनकी व्यावहारिक बुद्घि का द्योतक था। उन्हें यह अनुभव हो गया था कि हम गलती कर रहे हैं और हमें यह नही मानना चाहिए कि हम लीग जैसे दलों का सहयोग लेकर ही आगे बढ़ सकते हैं। पर दुर्भाग्य से गांधीजी का यह व्यावहारिक दृष्टिकोण अधिक देर तक स्थिर नही रह सका। वह अपने कथन से लौट गये और मई 1944 ई. में जब वह जेल से मुक्त होकर बाहर आये तो उन्होंने जिन्ना को ‘भाई’ कहकर एक पत्र लिखा जिसमें जिन्ना से भेंट करने की  इच्छा गांधीजी ने व्यक्त की थी। उन्होंने यह भी लिखा था-”मुझे इस्लाम या भारत के मुसलमानों का शत्रु न समझें। मैं तो सदा से आपका और मानवता का सेवकऔर मित्र रहा हूं। मुझे निराश न करें।’’

जिन्ना ने गांधी का यह लीग की कार्यकारिणी के समक्ष जून में रखा। वह इस पत्र से उत्साहित था उसने पत्र को अपनी कार्यकारिणी में रखते हुए कहा था-”गांधीजी ने व्यक्तिगत रूप से ही सही भारत के विभाजन या बंटवारे के सिद्घांत को मान लिया है। अब तो प्रश्न बस इतना रह गया है कि किस प्रकार और कब इस सिद्घांत को व्यवहार में लाया जाना है।’’ गांधीजी ने जिन्ना के इस कथन का कोई विरोध नही किया था। जिससे यह धारणा और भी रूढ़ हो गयी कि गांधीजी के विषय में जिन्ना ने जो कुछ कहा है, वही सत्य है। गांधीजी ने जिन्ना से अपनी वार्ताओं का क्रम चला दिया। 19 दिन तक (9 सितंबर से 27 सितंबर 1944 तक) गांधी जिन्ना वार्ता चली, गांधीजी जिन्ना से हर बार ‘कायदे आजम’-महान नेता कहते रहे और जिन्ना गांधी को ‘मिस्टर गांधी’ कहता  रहा। उसी गांधी को जिसे जिन्ना ‘मिस्टर गांधी’ कहता था, हमने ‘राष्ट्रपिता’ बना लिया और जिन्ना पाकिस्तान का ‘कायदे आजम’ बन गया। व्यावहारिक कौन सा था, पाठक स्वयं निर्णय करें। मोदी भी अपनी ‘गांधी-गांधी’ की रट को कम करें। ध्यान रखें कि ‘गांधी गान’ में वह कांग्रेसियों से आगे न निकल जाएं। क्योंकि यदि वह आगे निकले तो पीछे हटना कठिन होगा। रणनीति और राजनीति में समन्वय हर परिस्थिति में आवश्यक होता है।

1 COMMENT

  1. अप्रतिम विवेकपूर्ण विवेचन – साधुवाद
    गांधीजी सिकलुर कुष्ट मानसिकता से ग्रस्त थे ”

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