कभी ‘कठोर’ कभी ‘मुलायम’

राकेश कुमार आर्य

राजनीति कैसे-कैसे खेल कराती है और कैसे आदमी अपने ही बनाये-बुने मकडज़ाल में फंसकर रह जाता है-इसका जीता जागता उदाहरण मुलायम सिंह यादव हैं। एक समय था जब नेताजी भारत की राजनीति को प्रभावित करते थे और दिल्ली दरबार उनके आदेश की प्रतीक्षा किया करता था, आज वही व्यक्ति निढाल, बेहाल, थका मादा सा और असहाय सा दीख रहा है। राजनीति ने उन्हें हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया है और हम इतिहास को बड़े हास्यास्पद और मनोरंजक क्षणों से रूबरू होता हुआ देख रहे हैं। राजनीति की गंभीरता और गंभीरता की राजनीति दोनों कम से कम उत्तर प्रदेश की राजनीति से तो इस समय गायब हैं।
हम यह समझ नही पाते, या समझकर भी समझने का प्रयास नही करते कि भविष्य वर्तमान की कोख से निकलता है। हर पिता का उत्तराधिकारी उसी के बीज से और उसी के सामने तैयार हो जाता है। हर पिता चाहता है कि तेरा उत्तराधिकारी तुझसे अधिक योग्य हो, पर जब उसका उत्तराधिकारी उसी से ‘चाबी’ लेने की तैयारी करता है तो पिता अक्सर ‘चाबी’ देने से  इंकार कर देता है और हम देखते हैं कि यही से झगड़ा आरंभ हो जाता है। अब सोचने वाली बात यह है कि जिस बीज का संस्कार अपना उत्तराधिकारी खोजना था-वही जब उत्तराधिकारी बनकर सामने आया तो व्यक्ति यह समझने और मानने में चूक कर जाता है कि यह उत्तराधिकारी देन तो मेरे बीज की है-इसलिए इसे मैं सहज रूप में स्वीकार करूं। इसके विपरीत व्यक्ति अपने उत्तराधिकारी में दीख रही अपनी ही छाया से भागने की मूर्खतापूर्ण चेष्टा करता है। अपनी छाया से डरकर अपने आप भागना ही तो आत्मप्रवंचना कही जाती है।

मुलायम सिंह यादव के पूरे राजनीतिक जीवन का यदि सार निकाला जाए तो उनकी सारी राजनीति का निचोड़ केवल यही है कि उनकी राजनीतिक विरासत उनके परिवार से अलग किसी अन्य व्यक्ति के पास नहीं जानी चाहिए। मायावती कम से कम अपनी राजनीतिक विरासत को किसी दलित को देने को तो सोच सकती हैं, मुलायम सिंह तो अपनी राजनीतिक विरासत को किसी यादव को भी देने को तैयार नहीं थे। उनके इसी चिंतन के चलते उन्होंने अखिलेश यादव का मुख्यमंत्री के रूप में ‘राजतिलक’ किया था। स्पष्ट है कि यदि उन्होंने अपने सुपुत्र अखिलेश यादव का राजतिलक केवल इसलिए किया था कि वह उनके सुपुत्र हैं-तो इसमें उन्होंने अखिलेश पर कोई अहसान नही किया था, अपितु अपने पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाकर उन्होंने अपने सपने को साकार किया था। आज वह इसे अखिलेश पर अपना उपकार दिखा रहे हैं, तो बात समझ में नही आ रही।
बीते पांच वर्ष में अखिलेश यादव ने अपने आपको नेताजी का सुयोग्य उत्तराधिकारी सिद्घ किया है, और यदि उन्हें काम करने का समय मिलता, अर्थात उन पर कई-कई ‘चाचाओं’ की तलवार न लटकी होती तो वह और भी बेहतर कर सकते थे। अब जब अखिलेश यादव ने अपने आपको नेताजी का सुयोग्य उत्तराधिकारी सिद्घ कर दिया है तो यह कैसी विडंबना है कि उनकी सुयोग्यता नेताजी को ही पसंद नहीं आ रही है। यद्यपि अखिलेश यादव ने अपने पिता से ‘चाबी’ लेकर भी ‘चाबी’ उन्हीं के पास रहने दी, यही कारण रहा कि उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए नेताजी को इतने भी अधिकार दिये कि वे भरी सभा में मंत्रियों और अधिकारियों के बीच अपने बेटे और प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की खिंचाई कर दिया करते थे। यह अखिलेश की उदारता और मर्यादित आचरण ही था जिसने नेताजी को ऐसा निरंतर करने दिया। नेताजी के कान भरने वाले लोगों ने पहले सोचा था कि शायद नेताजी की इस प्रकार की खिंचाई से मुख्यमंत्री अखिलेश यादव झल्ला जाएंगे और आवेश में आकर या तो इस्तीफा दे देंगे या ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर देंगे कि नेताजी उन्हें पार्टी से बाहर कर देंगे। परंतु अखिलेश यादव की गंभीरता और मर्यादा जीत गयी और उन्होंने नेताजी का पूरा सम्मान रखते हुए उन्हें अपने सरकार में हस्तक्षेप करने का पूरा अधिकार दे दिया। जब बात इससे भी नही बनी तो चुगलखोरों ने नई गोटियां बिछानी आरंभ कीं। उन्हीं गोटियों का परिणाम है – सपा की वर्तमान फजीहत भरी राजनीति।
इस सारी राजनीति में हर व्यक्ति ने नेताजी को सम्मानित करते जाने के नाम पर अपमानित करने में कोई कमी नही छोड़ी है। उन्हीं के भाई शिवपाल ने इस विषय में सबसे अधिक अंक प्राप्त किये हैं। नेताजी को वर्तमान अपमानजनक स्थिति में ले जाने में शिवपाल की सबसे अहम भूमिका रही है। सारे प्रदेश के कार्यकर्ता और पार्टी इस समय अखिलेश के साथ है, इसीलिए कार्यकर्ताओं ने और पार्टी ने अखिलेश को अपना अघोषित अध्यक्ष और सर्वमान्य नेता घोषित कर दिया, या मान लिया। नेताजी को जैसे ही प्रदेश के कार्यकर्ताओं और पार्टी के इस दृष्टिकोण की जानकारी हुई तो उन्होंने अपने द्वारा अखिलेश और प्रो. रामगोपाल को पार्टी से छह छह वर्ष के लिए निकालने के अपने निर्णय को चौबीस घंटे होने से पहले ही वापिस ले लिया। इसके उपरांत अखिलेश यादव ने नेताजी को अपना ‘मार्गदर्शक’ नियुक्त कर लिया, जो कि उनके लिए उचित ही था। परंतु नेताजी को यह स्वीकार नहीं था, तो नेताजी ने फिर पलटी मारी और अपनी फजीहत कराते हुए प्रो. रामगोपाल को फिर छह वर्ष के लिए पार्टी से निष्कासित कर दिया। इस सारे घटनाक्रम में जहां सपा का घरेलू कलह देश के लिए मनोरंजक बना रहा है वहीं सभी लोगों को नेताजी की अक्ल और निर्णायक क्षमता पर भी तरस आ रहा है। इस समय उन्हें अपने ‘मार्गदर्शकों’ से बचकर रहने की आवश्यकता है, परंतु वह उनकी पहुंच से बाहर नही जा पा रहे हैं। यह निश्चित हो चुका है कि पार्टी में अब शिवपाल एण्ड कंपनी के दिन लद चुके हैं, आजमखान ‘बाबा आदम’ बनने की ओर जा हैं और नेताजी अखिलेश यादव के रहते अपने लिए मार्गदर्शक का सम्मानजनक स्थान पाकर भी उसमें लात मारकर अपने बुढ़ापे को बिगाडऩे की सोच रहे हैं। समय ने निश्चित कर दिया है कि सपा का भविष्य अब अखिलेश निश्चित करेंगे, जिनसे प्रदेश का जागरूक मतदाता अपेक्षा करता है कि वह पार्टी को साम्प्रदायिकता की संकीर्ण सोच अर्थात मुस्लिमपरस्ती, जातिवाद और गुण्डागर्दी के आरोपों से मुक्त करेंगे। अखिलेश का भविष्य थोड़े झटके खाकर निश्चय ही निखरेगा, अभी उन्हें संघर्ष करना होगा, अब वह दूसरे अखिलेश के रूप में अपने आपको स्थापित करने की ओर बढ़ें, समय और भूमिका उनकी प्रतीक्षा में है।

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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