लेखन के बहुआयामी आयाम

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राखी रघुवंशी

” अब्बा थैंक्यू, आपने मुझे इस लेखन कार्यशाला में आने दिया। यह बात भोपाल की तंग गलियों में बने एक मदरसे में लेखन कार्यशाला के दौरान हुर्इ गतिविधि में तैयबा ने लिखी। कार्यशाला में ”अपनों के नाम चिटठी लिखने की एक गतिविधि हुर्इ, जिसमें ज्यादातर लड़कियों ने अपने पिता के नाम चिटठी लिखीं, हैरत है कि मां की भूमिका यहां नहीं दिखीं। दिखती भी कैसे कार्यशाला में आने की इज़ाजत तो पिता दे रहे थे, इसलिए मां का रोल यहां पर नगण्य था। तैयबा 13-14 साल की एक मुसिलम लड़की है, जिसे बचपन से ही इस्लाम के कायदों के अनुसार रहना सिखाया गया है। तैयबा ही क्या, उसकी जैसी न जाने कितनी लड़कियां जो इस्लाम में दिए उन कायदों के अनुसार रहती हैं, जिन्हें पुरूषों ने अपनी सुविधा के लिए गढ़ा है। यानि सिर पर दुपटटा बंधा हुआ हो ताकि सिर के बाल न दिखें। अगर बाल किसी मर्द ने देख लिए तो इसका पाप लडकीऔरत के माथे पर आएगा। गजब है न मर्द की नज़र खराब हो तो सज़ा औरत भुगते, यानि परदे की जकड़नों में रहे। होना तो यह चाहिए कि मर्द की नीयत खराब होने पर उसे परदों में रखा जाए। क्यों न मर्दो को भी बचपन से ही सिखाया जाए कि दूसरी औरत को गलत नीयत से देखना हराम है। मुझे भी कर्इ बार अपने पहनावे को लेकर आलोचनाओं का शिकार होना पड़ता है। उस पर ताना यह मिलता है कि हिन्दू है, उनमें क्या कायदा ! इसके अलावा तैयबा उन बंदिशों को भी मानती है जो घर और समाज ने उन जैसी लड़कियों पर लगार्इं हैं। जैसे – बड़ों की इजाजत के बिना बाहर न निकलना और बाहर जाना हो तो अपने साथ मां या फिर छोटे भार्इ को लेकर जाना। छोटा भार्इ जो खुद की हिफाजत करने में सक्षम नहीं है वो तैयबा की रक्षा करेगा !

यह लेखन कार्यशाला तैयबा के घर के पास ही हो रही थी और उसी मदरसे में जिसमें तैयबा पढ़ती है। तैयबा जैसी ही करीब 10-15 लड़कियां इस कार्यशाला में कैसे रचनात्मक तरीके से अपनी बात को लिखा जाए ? इस विषय को सीखने आर्इं थीं। तैयबा के कथन से स्पष्ट हो रहा है कि उसे इस कार्यशाला में आने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी। माने घर परिवार से काफी मुशिकलों के बाद परमीशन मिली और वो चली आर्इ लेखन के विभिन्न अनदेखे पहलुओं को सीखने। इस कार्यशाला के दौरान बच्चों के साथ कर्इ गतिविधियां की गर्इं, जैसे – खबर कैसे बनती है और उन्हें कैसे लिखा जाता है ? संपादक के नाम खत, साक्षात्कार के लिए क्या क्या तैयारी चाहिए, फील्ड विजिट, दीवार अखबार, आदि के बारे में विस्तार से बताया गया। लेखन कार्यशाला में लड़कियों ने अपनी मन की बात को काफी सहज तरीके से रखा। लड़कियों से जब स्वतंत्र लेखन की बात हमने की तो उन्होंने लड़का-लड़की के बीच होने वाले भेदभाव और उसका लड़की के मानसिक स्तर पर क्या असर होता है, को लिखा। सबसे मजेदार और रोचक वाक्या हुआ साक्षात्कार की फील्ड विजिट के दौरान।

जब लड़कियों से कहा गया कि उन्हें कहीं बाहर जाकर अलग अलग तरह के काम करने वालों से लोगों से बातचीत करनी है, तो बचिचयां खुशी से झूम उठीं। स्पष्ट था कि लड़कियों को घर से बाहर अकेले आज़ादी से आने जाने के मौके कम ही मिलते हैं। इसलिए अकेले स्वतंत्रता से घूमने का अनुभव उनके लिए किसी चमत्कार से कम नहीं था। जब हमने उनसे इंटरव्यू के लिए जगहों के नाम पूछे तो आश्चर्य कि लड़कियों को भोपाल के सबसे प्राइम बाजार ‘न्यू मार्केट के बारे में पता ही नहीं था। उन्होंने कहा कि उनमें से ज्यादातर लड़कियों ने न्यू मार्केट देखा ही नहीं है। कभी घर से कोर्इ लेकर ही नहीं गया। उन्होंने तो बस चौक बाजार की ही खरीदारी की है। जब मैं तीन बचिचयों के साथ चयनित जगह जा रही थी, तब रास्ते में उनके भार्इ मिल गए। रास्ते में लगभग चीखते हुए वो कह रहे थे कि कहां जा रही हो ? जब मैंने कहा कि मदरसे की ओर से एक गतिविधि करवाने के लिए इन्हें पार्क ले जा रहे हैं। तब भी उन्हें गुस्सा था कि क्यों जा रहीं हो ? पर लड़कियों ने उसकी बात ही नहीं सुनीं और अपनी धुन में ही आगे बढ़ गर्इं, पलटकर भी नहीं देखा उसे !

जब हम इंटरव्यू के लिए चयनित जगह पर जा रहे थे, तब पूरे रास्ते लड़कियां बातचीत करतीं जा रहीं थीं कि क्या देखेंगीं, किन से बात करेंगी। पार्क में पहुंचकर तो लड़कियों को मानो पंख मिल गए। उन्होंने ढूंढ़कर लोगों को खोजा। मूंगफली बेचने वाला, पापड़ वाला, और तो और पार्क में बैठे प्रेमी युगल को भी नहीं छोड़ा इन नन्हीं लेखिकाओं ने । उन पर तो जैसे जुनून सवार था सबसे बात करने और जानकारी एकत्रित करने का। लड़कियों ने सभी से उनकी शैक्षिक स्थिति, आर्थिक स्थिति और सामाजिक स्थिति को लेकर कर्इ सारे सवाल किए। पर सभी ने एक कामन सवाल सबसे पूछा कि अगर आप खुद नहीं पढ़-लिख पाए तो क्या कमी लगी है जीवन मे ? आर्थिक रूप से कमज़ोर होने के बाद भी इन विकट परिस्थितियों में भी क्या अपने बच्चों की शिक्षा को लेकर जागरूक हैं ? स्पष्ट है कि आमदनी कम होने के बाद भी आज के पालक अपने बच्चों को पढ़ाना तो चाहते हैं, क्योंकि उन्हें यह महसूस होता है कि शिक्षा या पढ़ना केवल नौकरी पाने के लिए नहीं है बलिक एक व्यकित के निर्माण और स्वतंत्र सोच, निर्णय लेने की समझ और क्षमता, तर्क और विभिन्न परिस्थितियों का मुकाबला करने की हिम्मत एवं सोच तो पढ़ने से ही आती है।

1 COMMENT

  1. rakhi ji aapne muslim samaj ke bare mein jo najriya bana rakha hai use badaliye. islam mein ladies and jents sabhi ko brabri ka adhikar mila hai. kya ham ladkiyon ko akela bahar jane dein jisse woh darindgi ka shikar ho jayen. rahi baat pahnave ki to yeh sabhi ka right hai ki woh apne bacchon ko kya kapde pahnaye. aap apni brabri dusron se mat kariye kyonki har koi hitlar nahin hota.

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