उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द और आर्य समाज

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premchandआर्य समाज उन्नीसवीं शताब्दी व उसके बाद देश का सामाजिक व राजनैतिक क्रान्ति का एम महान संगठन था व है जिसने अपनी मनुष्य जीवन के उद्देश्य को सफल करने वाली तर्कसंगत विचारधारा के कारण देश के सभी मतों व सम्प्रदायों को प्रभावित किया। महर्षि दयानन्द जिन अंग्रेज अधिकारियों, पादरियों, मौलवियों व विद्वानों आदि से मिलकर वार्तालाप करते थे, वह सभी उनके विचारों से सहमत होते थे। यही कारण था कि अनेक प्रमुख हिन्दू, मुस्लिम व ईसाई मतानुयायी उनके विचारों से सहमति रखते थे। इस लेख में हम उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द जी के आर्य समाजी विचारों व सम्बन्धों पर चर्चा कर रहे हैं। हमारा निष्कर्ष है कि वह विचारों, कार्यों व मान्यताओं से पूरी तरह से आर्य समाज द्वारा प्रवर्तित वैदिक धर्म के अनुयायी थे।

मुंशी प्रेमचन्द जी ने उर्दू में आपका चित्र नामक एक कहानी तीन अध्यायों में लिखी थी जो लाहौर के उर्दू पत्र प्रकाश में सन् 1929 में प्रकाशित हुई थी।  इस कहानी के पहले भाग में उन्होंने आर्यसमाज के लोगों द्वारा महर्षि दयानन्द का अपने घरों में चित्र लगाये जाने को मूर्तिपूजा से भिन्न होने या न होने पर बहुत ही मार्मिक शब्दों में प्रकाश डाला है। मूर्तिपूजा व चित्रपूजा का ऐसा सशक्त भावपूर्ण चित्रण इससे पूर्व कहीं पढ़ने को नहीं मिलता। यह उनके आर्य समाजी होने का सबसे बड़ा प्रमाण माना जा सकता है। वह लिखते हैं – लोग मुझ से कहते हैं तुम भी मूर्तिपूजक हो। तुम ने भी तो स्वामी दयानन्द का चित्र अपने कमरे में लटका रखा है। माना कि तुम उसे जल नहीं चढ़ाते हो। इसको भोग नहीं लगाते। घण्टा नहीं बजाते। उसे स्नान नहीं कराते। उसका श्रृगांर नहीं करते। उसका स्वांग नहीं बनाते। उसको नमन तो करते ही हो। उसकी ऋषि दयानन्द की विचारयधारा को तो सिर झुकाते हो, मानते ही हो। कभीकभी माला फलों से भी उसका सम्मान करते हो। यह पूजा नहीं तो और क्या है?’

इन सभी प्रश्नों का उत्तर देते हुए मुंशी प्रेमचन्द जी लिखते हैं – उत्तर देता हूं कि श्रीमन् इस आदर पूजा में अन्तर है। बहुत बड़ा अन्तर है। मैं उसे अपने कक्ष में इसलिए नहीं लटकाये हुए हूं कि उसके दर्शन से मुझे मोक्ष की प्राप्ति होगी। मैं आवागमन के चक्कर से छूट जाऊगां। उसके दर्शन मात्र से मेरे सारे पाप धुल जायेंगे अथवा मैं उसे प्रसन्न करके अपना अभियोग (case) जीत जाऊगां अथवा शत्रु पर विजय प्राप्त कर लूंगा किंवा और किसी ढंग से मेरा धार्मिक अथवा सांसारिक प्रयोजन सिद्ध हो सकेगा। मैं उसे केवल इस कारण से अपने कमरे में लटकाये हुए हूं कि स्वामी जी के जीवन का उच्च पवित्र आचरण सदा मेरे नयनों के सम्मुख रहे। जिस घड़ी सांसारिक लोगों के व्यवहार से मेरा मन ऊब जाये, जिस समय प्रलोभनों के कारण पग डगमगायें अथवा प्रतिशोध की भावना मेरे मन में लहरें लेने लगे अथवा जीवन की कठिन राहें मेरे साहस शौर्य की अग्नि को मन्द करने लगें, उस विकट वेला में उस पवित्र मोहिनी मूर्त के दर्शनों से आकुल व्याकुल हृदय को शान्ति हो। दृढ़ता धीरज बने रहें। क्षमा सहनशीलता के मार्ग पर पग चलते चलें तथा मैं अनुभव के आधार पर कह सकता हूं कि इस चित्र से मुझे लाभ पहुंचा है और एक बार नहीं कई बार।

कहानी के दूसरे भाग में एक राजा का वर्णन किया गया है जो अपने एक विश्वसनीय सेवक को अपनी पसन्दीदा महिला के प्रेमी की हत्या का कार्य सौंपता है और उस कार्य को करने के बदले में अकूत सम्पत्ति देने का वायदा करता है। युवक प्रलोभनवश तैयार हो जाता है परन्तु घर जाकर दीवार पर स्वामी दयानन्द का चित्र देखकर अपने निर्णय को महर्षि दयानन्द के सिद्धान्तों के विपरीत जानकर पश्चाताप करता है और, परिणाम की चिन्ता न कर, साहस करके राजा साहब के पास जाकर अपनी असमर्थता व्यक्त करता है। इस पर उसे अनेक कटु बातें सुनने को मिलती है। राजा साहेब होंटों को दांतों से काटकर बोले, बहुत अच्छा जाओ और आज ही रात को मेरे राज्य की सीमा से बाहर निकल जाओ। सम्भव है कल तुम्हें यह अवसर मिले। उसी लहर में उन्होंने उस पूर्व विश्वसनीय युवक को नमकहराम, टेढ़ी बुद्धि वाला, अधम और जाने क्या-क्या कहा। प्रणाम कर वह युवक चला जाता है।  उसी रात्रि को अकेले ही कुछ वस्त्र और कुछ रुपये एक सन्दूक में रखकर घर से निकल पड़ा।  हां ! स्वामी जी का चित्र उसके सीने से लगा हुआ था। इस कहानी में मुंशी प्रेमचन्द जी ने स्वामी दयानन्द व उनके चित्र के प्रति अपने मनोभावों को प्रस्तुत किया है। ऐसे दयानन्द भक्त मुंशी प्रेमचन्द का सारा आर्य जगत वन्दन करता है।

मुंशी प्रेमचन्द जी के आर्य समाज से सम्बन्धों पर लिखते हुए आर्य समाज के मूर्धन्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु कहते हैं कि प्रेमचन्द जी को आर्य समाज के दो ऐतिहासिक सम्मेलनों में ससम्मान आमन्त्रित किया गया था। उनका लाहौर में आर्यों के विराट् सम्मेलन में दिया गया भाषण भी हमारे देश के छद्म धर्म निरपेक्ष लोगों की पुस्तकों में उपेक्षित रहा और देश के सर्वप्रथम राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान स्वामी श्रद्धानन्द जी के गुरूकुल कांगड़ी में दिया गया व्याख्यान भी इनके बहिष्कार का शिकार हो गया। जिज्ञासु जी के अनुसार मार्क्सवादी लेखकों ने प्रेमचन्द जी के आर्य समाज से यथार्थ सम्बन्धों की अपने लेखन में उपेक्षा की और किसी ने उन्हें गोर्की का चेला सिद्ध किया तो किसी ने कुछ गांधीवादी बना दिया। वह पूछते हैं कि उस युग का कौन सा हिन्दी प्रेमी, देशभक्त साहित्यकार है जिस पर महर्षि दयानन्द के जीवन व विचारधारा की छाप नहीं पड़ी? वह लिखते हैं कि आश्चर्य की बात यह है कि विश्वप्रसिद्ध कहानीकार सुदर्शन जी के अभिन्न हृदय मित्र मुंशी प्रेमचन्द जी को ऐसे प्रस्तुत किया जा रहा है कि मानों वे आर्यसमाज से परिचित ही नहीं थे। आर्य विद्वान लिखते हैं कि आन्ध्र के प्रो. रंगा, बंगाल के क्रान्तिकारी श्री चक्रवर्ती, केरल के श्री मन्नम, तामिलनाड के श्री सत्यमूर्ति जी तो निःसंकोच ऋषि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द व आर्यसमाज का अपने जीवन पर प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रभाव स्वीकार करते रहे जब कि इन प्रदेशों में आर्यसमाज का प्रभाव अधिक नहीं था। वह कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में जन्में-पले मुंशी प्रेमचन्द जिनका कार्यक्षेत्र भी मुख्यरूप से उत्तर प्रदेश ही रहा, उनके जीवन को आर्य समाज से अप्रभावित चित्रित करना सत्य का गला घेंटने जैसी बात है। जिस महान् मनीषी प्रेमचन्द को आर्यसमाज के अपने मासिक सदस्यता शुल्क की चिन्ता बनी रहती थी, उसे आर्यसमाज से दूर करने का पाप किया जा रहा है। आगे जिज्ञासु जी लिखते हैं कि हां, एक शोधकत्र्ता जिस ने प्रेमचन्द जी पर पी-एच.डी. किया है उसके शेाध का विषय ही मुंशी प्रेमचन्द के साहित्य पर आर्यसमाज का प्रभाव है परन्तु यह शोध प्रबन्ध अभी तक प्रकाशित ही नहीं हुआ।

 

मुंशी प्रेमचन्द जी एक बार हमीरपुर, उत्तर प्रदेश के राजकीय विद्यालय के प्रधानाध्यापक होकर आए। यहां आपका आर्य समाज के अनुयायी बाबू महादेव प्रसाद श्रीवास्तव तथा अनेक अन्य आर्य समाजियों से सम्पर्क हुआ और परस्पर मधुर सम्बन्ध बने। इन सभी को साथ लेकर आपने हमीरपुर में आर्यसमाज तथा आर्य पुत्री पाठशाला की स्थापना की। उन दिनों आप धनपतराय जी के नाम से जाने जाते थे। श्री बाबू महादेव प्रसाद जी के साले श्री जंगबहादुर आपके एक प्रिय विद्यार्थी थे।

मुंशी प्रेमचन्द जी में विधवा विवाह के लिए बड़ा उत्साह व जोश था। आपके लेखन मुख्यतः कहानियों में आर्यसमाज के आदर्शवाद व सुधारवादी विचारधारा की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। जन्मना जातिवाद, फलित ज्योतिष, मूर्ति पूजा आदि पर आप अपनी कहानियों में कड़े प्रहार करते रहे। जीवन में पुरूषार्थ, परमार्थ तथा स्वदेश-प्रेम आदि आपकी कहानियों के मुख्य विषयों में सम्मिलित हैं जिसकी प्रेरणा आपने महर्षि दयानन्द के साहित्य और आर्य समाज के आन्दोलनों से प्राप्त की थी। आपने पाप क्षमा नहीं होते तथा कर्मों का फल आदि विषयों पर भी अनेक कहानियां लिखीं। लाहौर से आपकी उर्दू कहानिरयों का एक संग्रह देहाती अफसाने नाम से प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह में प्रकाशित सभी कहानियों में ऋषि दयानन्द की विचारधारा ओतप्रेत है।

मुंशी प्रेमचन्द जी पर लिखने वाले लेखकों द्वारा ‘जमाना’, ‘हंस’ व ‘माधुरी’ आदि पत्रों की चर्चा तो की जाती है परन्तु साप्ताहिक ‘प्रकाश’ उर्दू पत्र की चर्चा जाने-अनजाने छोड़ दी गई है। महर्षि दयानन्द पर आधारित आपकी रचना व कहानी ‘आपकी तस्वीर’, जिसका उल्लेख पूर्व किया गया है, ‘प्रकाश’ साप्ताहिक में ही प्रकाशित हुई थी। यह एक तथ्य है कि मुंशी प्रेमचन्द जी ‘प्रकाश’ के लिए नियमित रूप से लिखा करते थे और वर्ष में आपकी अनेक कहानियां ‘प्रकाश’ में प्रकाशित हुआ करतीं थीं। यह ज्ञातव्य है कि ‘प्रकाश’ उर्दू पत्रकारिता के पितामह महाशय कृष्ण द्वारा प्रकाशित किया जाने वाला साप्ताहिक पत्र था।

यह बता दें कि प्रसिद्ध कहानीकार श्री सुदर्शन महर्षि दयानन्द और आर्य समाज के निष्ठावान अनुयायी थे। श्री उमेश माथुर ने सुदर्शन जी की मृत्यु पर पण्डित सुदर्शन शीर्षक से एक लेख लिखा था जो उर्दू साप्ताहिक वैदिक धर्म”, जालन्धर के 15 फरवरी, 1968 अंक में प्रकाशित हुआ था। इस लेख में सुदर्शन जी की पत्नी श्रीमती लीलावती जी द्वारा सुनाया गया प्रसंग श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने अपने एक लेख में प्रस्तुत किया है। इसमें सुदर्शन जी की पत्नी ने यह बताया था कि मुंशी प्रेमचन्द से सुदर्शन जी की घनिष्ठ मित्रता थी। घण्टों दोनों चैबारे पर बैठे रहते थे। मैं चाय बनाबनाकर भेजा करती और कभी कभी यह भी सोचा करती कि ये दोनों घण्टों बैठेबैठे क्या बातें करते हैं जो समाप्त ही नहीं होतीं। एक दिन कान लगाकर सुना तो मुंशी प्रेमचन्द जी कह रहे थे, आप कलकत्ता की पत्रिका पर मत जाइये। आपके साथ हिन्दी के सब पत्र हैं। मैंने आपकी फिल्मधूप छाओंदेखी है। मुझे पसन्द है। कुत्ते भौंकने से कोई हाथी तो नहीं रूका। श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी कहते हैं कि मुंशी प्रेमचन्द जी का एक विधवा स्त्री श्रीमती शिवरानी देवी जी से विवाह करने का साहस उनको आर्यसमाज से ही प्राप्त हुआ था। इसे कोई झुठला नहीं सकता। महर्षि दयानन्द की विचारधारा के गहरे प्रभाव के कारण ही वे उस अन्धकारमय युग में यह क्रान्तिकारी पग उठा सके थे। आगे वह लिखते हैं कि बहुत कम लोगों को इस बात का पता होगा कि प्रेमचन्द जी के परिवार में एक विधर्मी देवी को बहू के रूप में अपनाया गया। यह महर्षि दयानन्द की छाप का ही एक और उदाहरण है।

सन् 1903 में प्रेमचन्द जी प्रयाग के टीचर ट्रेनिगं कालेज में प्रविष्ट हुए थे। उस समय आर्य जगत के प्रसिद्ध विद्वान श्री गंगाप्रसाद उपाध्याय वहां उनके सहपाठी थे। उपाध्याय जी ने अपनी आत्म कथा जीवनचक्र में लिखा है कि मेरे ट्रेनिगं कालेज के सहपाठी थे मुंशी धनपतिराय जी। आगे चलकर मुंशी प्रेमचन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए। यह रणपतिराय के कल्पित नाम से उर्दू पत्रों में लेख लिखा करते थे। उन्होंने मुझे भी साहित्यिक कहानियां लिखने की प्रेरणा की थी। परन्तु उनके मेरे मार्ग अलग ही रहे अर्थात् उनका लेखन धर्म, दर्शन, संस्कृति आदि विषयों पर हुआ। उपाध्याय जी शैक्सपियर के नाटकों का हिन्दी अनुवाद करने वाले प्रथम साहित्यकार भी हैं जिसका एक संस्करण कुछ वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ।

मुंशी प्रेमचन्द जी माधुरी के सम्पादक भी रहे। उनके काल में इस पत्रिका में विविध प्रकार की सामग्री प्रकाशित होती थी। साहित्यिक संसार में इस पत्रिका का एक विशेष स्थान था। प्रेमचन्द जी ने तब अपने पूर्व सहपाठी श्री गंगाप्रसाद उपाध्याय को कोई लेखमाला आरम्भ करने को कहा। उपाध्यायजी अपने मित्र का आग्रह टाल न सके। लेखमाला आरम्भ हो गई। पाठको ने इस लेखमाला को पसन्द किया। ढेर सारे पत्र माधुरी के कार्यालय में आने लगे। लेख माला का विषय था अद्वैतवाद। अतः कुछ पोंगापंथी रूढि़वादी लोगों ने इस लेखमाला का विरोध भी किया। माधुरी के संचालकगण वैचारिक आधार पर अद्वैतवादी विचारधारा के लोगों के निकट थे। अतः उनके द्वारा प्रेमचन्द जी पर लेखमाला बन्द करने का दबाव बनाया गया। प्रेमचन्द जी इस दबाव के विरूद्ध तथा लेखमाला के प्रकाशन के पक्ष में थे। परन्तु वह अपने मन की इच्छा पूरी नहीं कर सके। वह उपाध्याय जी के पास गये और वस्तु स्थिति से उन्हें अवगत कराया। इसके बाद संचालकगणों ने प्रेमचन्दजी की भावना के विरूद्ध माधुरी में प्रकाशनार्थ अद्वैतवाद के समर्थन में किसी लेखक से लेख लिखवाया। अतः स्वाभिमानी प्रेमचन्द जी माधुरी के साथ  अधिक समय तक जुड़े न रह सके और अपने दायित्वों का त्याग कर दिया।

मुंशी प्रेमचन्द जी ने अपने जीवन की अन्तिम वेला तक आर्य समाजी पत्रों में लिखते रहे। उनक लेखों में ईश्वर के सर्वव्यापक स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। उन्होंने इस आर्य सिद्धान्त पर डटकर लिखा है। सबको अपनाना, किसी को अस्पृश्य न मानना, आर्य धर्म के बन्द द्वार सबके लिए खोलना, दीनों की रक्षा, धेनु की रक्षा, प्राणिमात्र से प्यार , प्रेमचन्द जी ने इन सब विषयों पर लिखा है और आर्य समाज का गुणगान किया है। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि मुंशी प्रेम चन्द जी अपने जीवन में महर्षि दयानन्द व आर्य समाज की विचारधारा से जुड़े रहे। उनकी सफलता का एक प्रमुख कारण उनका आर्य विचारधारा को अपनाना था। इसके माध्यम से उन्होंने आर्य विचारधारा का भूरिशः प्रचार-प्रसार किया। वह आर्य समाज के गौरव थे। आर्य विद्वान प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने मुंशी प्रेमचन्द जी की उर्दू कहानी आपकी तस्वीर की खोज कर व उसका हिन्दी अनुवाद कर उसे आपका चित्र नाम से प्रकाशित कराया है जिसके लिए वह देश की जनता की ओर से श्रद्धा एवं बधाई के पात्र हैं। इन्हीं पंक्तियों के साथ इस लेख को विराम देते हैं।

 

1 COMMENT

  1. जानकारी से भरपूर इस लेख के लिए बधाई. साथ ही एक अनुरोध भी. प्रेमचंद को “मुंशी ” क्यों बनाया जा रहा है ? यह सच है कि वे कायस्थ थे, और कायस्थों को अक्सर मुंशी भी कहा जाता था, पर उन्होंने स्वयं तो कभी अपना नाम “मुंशी प्रेमचंद ” नहीं लिखा.परम्परा की अगर बात की जाए तो वैश्यों को “लाला” कहते हैं. तो क्या भारतेंदु हरिश्चंद्र और जय शंकर ‘प्रसाद’ को लाला हरिश्चंद्र / लाला जय शंकर ‘प्रसाद’ कहेंगे ?

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