मुरब्बा

घर में बना आंवले का था,
अहा! मुरब्बा खट मिट्ठा।
बांध- बांध तारीफों के पुल,
सबने कहा बहुत अच्छा।
यह कमाल है दादीजी के,
सुगढ़ रसीले हाथों का।
प्यार भरी रस भरी जलेबी,
जैसी मीठी बातों का।
पापा ने छोटी बरनी का,
साफ कर दिया है फट्टा।
दादाजी भी “और मुरब्बा”,
“और मुरब्बा” चिल्लाते।
नज़र बचाकर एक -एक कर,
कई “पीस”हथिया लाते।
कहते हैं सौ साल जिये थे,
खाकर यह उनके अब्बा।
तीन बरनियों भरा मुरब्बा,
सात दिनों में खा डाला !
दादी बोली , पड़ा न जाने,
कैसे लोगों से पाला।
रोज -रोज इतना खट मिट्ठा,
खाना क्या होता अच्छा ?

Previous articleकितनी मजबूत होगी भारत-अमेरिका के रिश्तों की डोर?
Next articleदिल्ली दंगा और कांग्रेस का चरित्र
प्रभुदयाल श्रीवास्तव
लेखन विगत दो दशकों से अधिक समय से कहानी,कवितायें व्यंग्य ,लघु कथाएं लेख, बुंदेली लोकगीत,बुंदेली लघु कथाए,बुंदेली गज़लों का लेखन प्रकाशन लोकमत समाचार नागपुर में तीन वर्षों तक व्यंग्य स्तंभ तीर तुक्का, रंग बेरंग में प्रकाशन,दैनिक भास्कर ,नवभारत,अमृत संदेश, जबलपुर एक्सप्रेस,पंजाब केसरी,एवं देश के लगभग सभी हिंदी समाचार पत्रों में व्यंग्योँ का प्रकाशन, कविताएं बालगीतों क्षणिकांओं का भी प्रकाशन हुआ|पत्रिकाओं हम सब साथ साथ दिल्ली,शुभ तारिका अंबाला,न्यामती फरीदाबाद ,कादंबिनी दिल्ली बाईसा उज्जैन मसी कागद इत्यादि में कई रचनाएं प्रकाशित|

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here