मुस्लिम शासक भारत के लिए धब्बा या गौरव ? भाग — 3


भारत की वास्तुकला और बीबीसी का दुष्प्रचार

बीबीसी ने अपने उक्त आलेख में यह भी लिखा है कि — “भारतीय इतिहास में मध्यकाल को देखने के अलग-अलग दृष्टिकोण रहे हैं । एक दृष्टिकोण वामपंथी इतिहासकारों का है। इनका मानना है कि मध्यकाल कई लिहाज़ से काफ़ी अहम था। वामपंथी इतिहासकारों का मानना है कि मध्यकाल में तेज़ी से शहरीकरण हुआ, स्थापत्य कला और केंद्रीकृत शासन प्रणाली का विकास हुआ।”
वास्तव में बीबीसी के पास या तो भारतीयता को मुखरित करने वाले प्रमाण नहीं हैं या फिर वह जानबूझकर उन प्रमाणों को नजरअंदाज करना चाहती हैं जिनसे भारत का गौरव मुखरित होता हो।
बीबीसी जैसी भारत विरोधी संस्थाओं को यह पता होना चाहिए कि ‘वास्तुकला’ जैसा शब्द केवल भारतीय साहित्य में ही प्राप्त होता है ।वास्तु का अर्थ ही बस्ती , वसति , वसना , बसना से है अर्थात जहां पर आवास आदि बनाकर रहना होता है । इस प्रकार आवास आदि बनाने की कला सबसे पहले केवल और केवल भारत के पास थी।
वामपंथी इतिहासकारों की मूर्खतापूर्ण धारणाओं को अकाट्य प्रमाण मानकर बीबीसी भारत के बारे में ऐसा दुष्प्रचार अक्सर करती रही है , जिससे भारतीयता को हानि पहुंचे। भारत में स्थापत्य कला या भवन निर्माण कला आदि कलाएं कितनी प्राचीन हैं यह जानने के लिए बीबीसी को महाभारत का ‘सभा पर्व’ अवश्य पढ़ना चाहिए । जिसके पहले ही अध्याय में श्री कृष्ण जी मयासुर नाम के अभियंता को पांडवों के लिए खांडववन में एक ऐसा सभा भवन बनाने के लिए कहते हैं जिसके बन जाने पर समस्त मनुष्यलोक के मानव देखकर आश्चर्यचकित हो जाएं तथा कोई उसकी अनुकृति अर्थात नकल न कर सके।
जहाँ पर यह सभा भवन बनाया गया था उस स्थान का क्षेत्रफल इसी अध्याय के 15 वें श्लोक में बताया गया है । कहा गया है कि मयासुर ने सभा भवन बनाने के लिए सभी ऋतुओं के गुणों से संपन्न दिव्यरूपवाली मनोरम सब ओर से 10 हजार हाथ की भूमि नपवाई।
इसका अभिप्राय है कि लगभग 2 वर्ग किलोमीटर में वह सभा भवन फैला हुआ था।
सभा पर्व से हमें पता चलता है कि मयासुर ने जो भवन तैयार किया था उसमें स्वर्णमय वृक्ष शोभा पाते थे । वह सभा अपनी प्रभा द्वारा सूर्य की तेजोमयी प्रभा से टक्कर लेती थी । मयासुर की आज्ञा के अनुसार 8 सहस्त्र किंकर नामक राक्षस उस सभा की रक्षा करते थे और उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पर उठाकर ले जाते थे ।
मयासुर ने उस सभा भवन में एक अति सुंदर पुष्करिणी बना रखी थी । जिसकी कहीं तुलना नहीं थी । उसमें इंद्रनीलमणि में कमल के पत्ते फैले हुए थे। उन कमलों के मृणाल मणियों के बने थे । मणियों तथा रत्नों से व्याप्त होने के कारण कुछ राजा लोग उस पुष्करिणी के पास आकर और उसे देखकर भी उसकी यथार्थता पर विश्वास नहीं करते थे तथा भ्रम से उसे स्थल समझकर उसमें गिर पड़ते थे ।
उस सभा के चारों ओर अनेक प्रकार के बड़े बड़े वृक्ष लहलहा रहे थे जो सदा फूलों से लदे रहते थे। उनकी छाया बड़ी शीतल थी । यह मनोरम वृक्ष हवा के झोंकों से सदा हिलते रहते थे ।
मयासुर ने पूरे 14 माह में इस अद्भुत सभा का निर्माण किया था। जब वह बनकर तैयार हो गई तब मय ने धर्मराज को इस बात की सूचना दी।
इस विवरण से पता चलता है कि मय नाम के कुशल अभियंता ने महाराज युधिष्ठिर के लिए ऐसा भवन तैयार किया था जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर भी उठाकर ले जाया जा सकता था और यह भवन भी लगभग 2 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ था । अब हमारे वामपंथी इतिहासकार , उनकी तर्ज में तर्क मिलाने वाली बीबीसी और उनके विशेषज्ञों ने कभी ऐसे भवन की कल्पना की है , संभवत: कदापि नहीं ? वास्तव में हमारे भारतीय ज्ञान-विज्ञान की उपेक्षा और उपहास यह लोग इसलिए भी करते हैं कि भारत का ज्ञान – विज्ञान इतना महान था कि वह इनकी कल्पना से भी बाहर का है। पर दुख इस बात का है कि उनकी ही बात को अकाट्य या ब्रह्मवाक्य मानने वाले हमारे बीच में भी तेजी से पैदा होते जा रहे हैं । उनको रोकने का सही तरीका यही है कि वह अपने बारे में स्वयं अपने प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करना आरम्भ करें । अपने आप को समझें , अपने भारत को समझें , अपने अतीत को समझें और स्वयं को अपने पूर्वजों के महान ज्ञान के उत्तराधिकारी समझ कर उस पर गर्व करें।
हमारे महाभारत जैसे ग्रंथों को काल्पनिक कहकर उसकी सारी घटनाओं को भी केवल एक उपन्यास की कथा घोषित करने वाले ये वामपंथी इतिहासकार निश्चित रूप से हमारी इस बात पर भी विश्वास नहीं करेंगे और कह देंगे कि यह तो सारी कपोल कल्पनाएं हैं । तब हमारा उनसे यही कहना है कि कल्पना भी वही करता है जो कुछ कर सकता है । मुगलों , तुर्कों और अंग्रेजों के पास तो यह कल्पना भी नहीं है। क्योंकि उनके पास कल्पना से भरे हुए ऐसे सर्वोत्तम ग्रंथ नहीं हैं जिन्हें हम महाभारत और रामायण के नाम से जानते हैं। यह भी ज्ञात होना चाहिए कि जो लोग कल्पना करते हैं , जिनके ग्रंथों में तथा जिनके अतीत में ऐसी कल्पनाएं कभी साकार हुई हैं , केवल वही लोग ताजमहल बना सकते हैं और वही संसार के आश्चर्य भरे भवनों का निर्माण कर सकते हैं , जिन्हें आज भी संसार कौतूहल से देखता है।
इसी बात को दृष्टिगत रखते हुए श्रीमती मैनिंग कहती हैं :- “भारत की प्राचीन वास्तु कला इतनी आश्चर्यचकित करने वाली है कि जिस किसी प्रथम यूरोपियन ने उन्हें देखा होगा , उसके पास उनकी विचित्रता एवं प्रशंसा को प्रकट करने के लिए शब्द भी ना मिले होंगे और यद्यपि जितना किसी वस्तु से अधिक परिचय हो जाता है उतना ही उस प्रकार के भाव कम हो जाते हैं , परंतु यहाँ ऐसी बात नहीं है , आज भी गंभीरतम आलोचक जब उन्हें देखता है तो कह उठता है – आह ! आश्चर्यजनक ! अति सुंदर ! ।
जिस अकबर और मुगलों के जमाने की बात बीबीसी करते हुए कहती है कि उनसे पहले भारत में भवनों के निर्माण की बात कोई जानता नहीं था , उनसे कई सौ वर्ष पूर्व महमूद गजनवी ने मथुरा से खलीफा को खत लिख कर बताया था कि भारत के भवन निश्चित रूप से हमारे अपने धर्म के प्रति विश्वास से कहीं अधिक मजबूत हैं।
इसी बात को मिस्टर थोरेंटोंन ने अपने शब्दों में इस प्रकार कहा है – ” प्राचीन भारतीयों ने ऐसे भवन बनाए थे , जिनकी मजबूती हजारों वर्षों की उथल-पुथल के बाद भी जैसी की तैसी है।”
अतः हमारा मानना है कि भारतवर्ष में शहरीकरण मुगलों के आने से भी हजारों लाखों वर्ष पूर्व से चला आ रहा था। वामपंथी इतिहासकारों की मूर्खतापूर्ण धारणाओं को एक ओर रखकर आज अपने अतीत के इस गौरवपूर्ण पक्ष पर अनुसंधान और शोध करते हुए इतिहास को सत्य और तथ्य के आधार पर लिखा जाना समय की आवश्यकता है।
बीबीसी की धारणा में विश्वास रखने वाले लोगों को और वामपंथी इतिहासकारों को अशोक कालीन बौद्ध स्तूप और मठ आदि का भी निरीक्षण करना चाहिए। उनकी आंखों में दो बूंद भी पानी रह गया हो तो इन्हें तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों के विषय में भी आंख खोलने वाले तथ्यों को उजागर करना चाहिए ।
500 ई. पू. जब संसार में चिकित्सा शास्त्र की परंपरा भी नहीं थी तब तक्षशिला आयुर्वेद विज्ञान का सबसे बड़ा केन्द्र था। जातक कथाओं एवं विदेशी पर्यटकों के लेख से पता चलता है कि यहां के स्नातक मस्तिष्क के भीतर तथा अंतडिय़ों तक का आपरेशन बड़ी सुगमता से कर लेते थे। अनेक असाध्य रोगों के उपचार सरल एवं सुलभ जड़ी बूटियों से करते थे। इसके अतिरिक्त अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटियों का भी उन्हें ज्ञान था। शिष्य आचार्य के आश्रम में रहकर विद्याध्ययन करते थे। 
हमारे प्रत्येक हिंदू राजा के द्वारा बनाए गए भव्य किले , उनके भवन , मंदिर आज तक अपने खंडहरों के माध्यम से अपनी उत्कृष्टतम वास्तुकला का बोध कराते हैं। बटेश्वर में मिले गुर्जर प्रतिहार शासकों के 200 मंदिर हमारी उस उत्कृष्टतम स्थापत्यकला और वास्तुकला के बारे में जानकारी देते हैं जिनके सामने मुगलों और अंग्रेजों की बनाई हुई हर चीज पानी मांगने लगती है। इतिहास के लेखन में इन तथ्यों का भी समावेश किया जाना चाहिए और बीबीसी को भारत के विषय में कुछ भी बताने से पहले भारत के हिंदू शासकों के शासनकाल की वैभवशाली परंपरा का भी उल्लेख अवश्य करना चाहिए।

डॉ राकेश कुमार आर्य

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