मुस्लिम मतदाताओं पर सबकी नजर

संतोष कुमार मधुप

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में मुस्लिम मतदाता सौ से अधिक सीटों पर निर्णायक भूमिका में होंगे। राज्य के 35 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं को मालूम है कि उनके समर्थन के बगैर सरकार गठन करना किसी भी पार्टी के लिए आसान नहीं होगा। दूसरी तरफ राजनीतक पार्टियां भी इस सच्चाई को समझती है। इसीलिए जहां वाम मोर्चा ने कुल 294 में से 56 सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं को टिकट दिया है वहीं विपक्षी कांग्रेस-तृणमूल गठबंधन ने 62 मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतार कर अपनी मंशा जाहिर कर दी है।

मुस्लिम वोटरों का मजबूत समर्थंन वाम मोर्चा के लगातार 34 सालों तक सत्ता में बने रहने का प्रमुख कारण रहा है। आज यदि राज्य में सत्ता परिवर्तन की बातें हो रही है, तो वह इसलिए क्योंकि अब अल्पसंख्यक वाम मोर्चा का दामन छोड़कर द्वितिय मजबूत विकल्प यानि तृणमूल कांग्रेस की ओर रुख करने लगे हैं। वाम मोर्चा के प्रति मुसलमानों का मोहभंग अचानक नहीं हुआ। सिंगूर और नंदीग्राम जैसी घटनाओं ने मुसलमानों में वाम मोर्चा के प्रति भ्रम पैदा किया। औद्योगिक परियोजनाओं के लिए जिन किसानों की जमीन ली गई उनमे से अधिकांश गरीब मुसलमान थे। तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी ने इन मौकों का भरपूर फायदा उठाया और देखते ही देखते अल्पसंख्यक समुदाय के किसान-मजदूरों का वाम दलों से भरोसा उठने लगा। रही सही कसर सच्चर समिति की रिपोर्ट ने पूरी कर दी। जब मुसलमानों को पता चला कि आर्थिक और सामाजिक रूप से अन्य राज्यों में रह रहे मुसलमानों की तुलना में उनकी हालत अत्यंत दयनीय है तो फिर वे खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगे। इसका नतीजा यह हुआ कि वाम मोर्चा का मजबूत वोट बैंक बुरी तरह बिखर गया। विगत लोकसभा चुनावों में इसका उदाहरण देखने को मिला जब अल्पसंख्यकों ने विपक्षी कांग्रेस-तृणमूल गठजोड़ का जमकर समर्थन किया। परिणामस्वरूप वाम मोर्चा महज 15 सीटों पर सिमट कर रह गया जबकि तृणमूल कांग्रेस ने अकेले 19 सीटें जीत कर राज्य में राजनीतिक परिवर्तन का बिगुल फूंक दिया। इससे पूर्व 2004 के लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के साथ गठजोड़ होने के कारण तृणमूल कांग्रेस की ओर से अकेले ममता बनर्जी ही चुनाव जीत पाई थी। लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद 2010 के निकाय चुनावों में भी मुस्लिम मतदाताओं का रुझान तृणमूल कांग्रेस की तरफ रहा और पार्टी को शानदार सफलता मिली।

मुस्लिम वोटरों को पुनः वाम मोर्चा की तरफ आकर्षित करने के लिए राज्य सरकार ने चुनाव से ठीक पहले मुसलमानों को सरकारी नौकरी में 10 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की घोषणा कर डाली। लेकिन सरकार के इस कदम से मुसलमान संतुष्ट नजर नहीं आ रहे और कमोबेश अभी भी तृणमूल की तरफ उनका रुझान बना हुआ है। हालांकि माकपा ने मुस्लिम वोट बैंक को फिर से वापस पाने की कोशिशें छोड़ी नहीं है। पार्टी की तरफ से वरिष्ठ माकपा नेता मोहम्मद सलीम, राज्य के मंत्री अब्दुल सत्तार तथा अब्दुर्ररज्जाक मोल्ला को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है। ये नेता मुस्लिम मतदाताओं को विश्वास में लेने की भरसक कोशिश कर रहे हैं। दूसरी तरफ तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी मुस्लिम समुदाय के कई धार्मिक नेताओं का समर्थन हासिल करने में कामयाब रही हैं। इन नेताओं के सुझाव पर तृणमूल के चुनावी घोषणा-पत्र में मुसलमानों के लिए कुछ विशेष कदम उठाए जाने की बात कही गई है।

बहरहाल, मुसलमानों का समर्थन हासिल करने के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोड़ रहा लेकिन इस मामले में तृणमूल कांग्रेस अधिक सफल नजर आ रही है।

1 COMMENT

  1. राज्य के 35 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं को मालूम है कि उनके समर्थन के बगैर सरकार गठन करना किसी भी पार्टी के लिए आसान नहीं होगा।

    35 प्रतिशत, २००१ की जनगणना के अनुसार को इनकी आबादी 25 प्रतिशत थी , 10 साल में ही 10 प्रतिशत बदहाली. दुर्गा बचाए बंगाल को

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