राम मंदिर सहमति से हल की उम्मीद ?

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प्रमोद भार्गव
सर्वोच्च न्यायालय ने राम मंदिर विवाद दोनों पक्षपक्षों की सुलह से निपटाने का सुझाव दिया है। साथ ही अदालत ने यह भरोसा भी दिया है कि अदालत के बाहर मामला सुलझाने के लिए वादी-प्रतिवादी बैठते हैं तो अदालत मध्यस्थता करने को तैयार है। न्यायालय की यह नसीहत भाजपा सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा पेश याचिका से सामने आई हैं। वैसे तो इस टिप्पणी का इस मंदिर आंदोलन से जुड़े सभी हिंदू सर्मथकों ने समर्थन किया है, लेकिन मुस्लिम समुदाय विभाजित दिख रहा है। आॅल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड के प्रतिनिधि जफरयाव जिलानी और औवेसी अदालत से ही मामले के निपटान की पैरवी कर रहे हैं। जबकि जामा मस्जिद के इमाम मौलाना अहमद बुखारी ने अदालत के सुझाव का स्वागत किया है। इन दलीलों से लगता है, आपसी सहमति से बात बनना मुश्किल है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय से निराकरण के बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट में 6 साल से लंबित है।
पिछले 68 साल से यह विवाद विभिन्न अदालतों से होता हुआ शीर्ष न्यायालय की दहलीज पर आकर ठिठका सा लग रहा है। राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल में आयोध्या में विवादित ढांचे में स्थित राम मंदिर का ताला खोलने की अनुमति स्थानीय अदालत ने दी थी। इसके बाद विश्व हिंदू परिषद् और बांवरी मस्जिद संघर्ष समिति के बीच शुरू हुए विवाद का दुखद अंत इस ढांचे को ढहाए जाने की परिणति के रूप में सामने आया। 2010 में हाईकोर्ट ने ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों व रडार तकनीक से जुटाए गए सबूतों के आधार पर विवादित स्थल के नीचे मंदिर के अवषेश होना पाया। इस आधार पर विवादित 840 वर्ग फीट भूमि का स्वामित्व मंदिर के पक्षपक्षकारों का माना, लेकिन 3 सदस्यीय न्यायमूर्तियों की पीठ में से एक ने दोनों समुदायों के बीच समरास्ता बनाए रखने की पैरवी करते हुए 280 वर्ग फीट भूमि इस्लाम धर्मावलंबियों देने का आदेश दिया। नतीजतन मालिकाना हक की अस्पश्टता के चलते दोनों पक्षपक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। तब से मामला लंबित है। अब मुख्य न्यायाधीष जेएस खेहर और न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ एवं एसके काॅल की पीठ ने कहा है कि यह धर्म और आस्था से जुड़ा मामला होने के कारण संवेदनशील है, लिहाजा इसे अदालत के बाहर निपटाना बेहतर होगा। लेकिन यहां सवाल उठता है कि भूमि स्वामित्व का हक अदालत से निश्चित क्यों नहीं हो सकता ? इससे यह संदेश निकलता है कि संविधान और कानून के अनुसार काम करने वाली शीर्ष न्यायालय स्वयं को कहीं दुविधा में तो नहीं पा रही है ?
अयोध्या विवाद देश के हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच लंबे समय से तनाव का कारण बना हुआ है। इस मुद्दे ने देश की राजनीति को भी प्रभावित किया हुआ है। विश्व हिंदू परिषद् अयोध्या में उस विवादित स्थल पर मंदिर बनाना चाहती है, जहां पहले एक कथित रूप से मस्जिद थी। जबकि मुस्लिमों का पक्षपक्ष है कि यहां मंदिर होने के कोई साक्ष्य नहीं हैं। यह स्थान 1528 से मस्जिद है और 6 दिसंबर 1992 तक इसका उपयोग मस्जिद के रूप में होता आया है। हालांकि पुरातत्वीय साक्ष्यों और लोकसहित्य से यह प्रमाणित होता है कि 1528 में एक ऐसे स्थल पर हिंदुओं को अपमानित करने की दृष्टि से र्मिस्जद का निर्माण कराया गया, जहां भगवान राम की जन्मस्थली थी। 1528 में मुगल बादशाह बाबर ने यह मस्जिद बनवाई थी। इस कारण इसे वावरी मस्जिद कहा जाता है। 1853 में पहली बार इस स्थल को लेकर हिंदू और मुस्लिम समुदायों में सांप्रदायिक झड़प हुई। 1859 में चालाकी बरतते हुए ब्रिटीश शासकों ने विवादित स्थल पर रोक लगा दी और विवादित परिसर क्षेत्र में दो हिस्से करके हिंदुओं और मुस्लिमों को प्रार्थना करने की अनुमति दे दी।
आजादी के बाद 1949 में मस्जिद में भगवान राम की मूर्तियां पाई गई। एकाएक इन मूर्तियों के प्रकट होने पर मुस्लिमों ने विरोध जताया। दोनों पक्षों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया। नतीजतन सरकार ने इस स्थल को विवादित घोशित कर ताला डाल दिया और दोनों संप्रदाओं के प्रवेष पर रोक लगा दी। 1984 में विहिप ने भगवान राम के जन्मस्थल को मुक्त करके वहां राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया। इस अभियान का नेतृत्व भाजपा नेता लालकृश्ण आडवाणी ने संभाला। 1986 में जब केंद्र में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार थी तब फैजाबाद के तत्कालीन कलेक्टर ने हिंदुओं को पूजा के लिए विवादित ढांचे के ताले खोल दिए। इसके परिणामस्वरूप मुस्लिमों ने वावरी मस्सिद संघर्ष समिति बना ली। 1989 में राम मंदिर निर्माण के लिए विहिप ने अभियान तेज किया और विवादित स्थल के नजदीक मंदिर की नींव रख दी। 1990 में विहिप के कार्यकर्ताओं ने विवादित ढांचे को क्षति पहुंचाने की कोषिष की, लेकिन तबके प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने बातचीत से मामला सुलझाने की कोशिश की, किंतु कोई हल नहीं निकला। अततः 1992 में भाजपा, विहिप और शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने 6 दिसंबर को विवादित ढांचे को ढहा दिया। इस समय केंद्र में कांग्रेस के पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री थे।
हालांकि पुरातत्वीय सक्षों, निर्मोही अखाडे़ और गोपाल सिंह विशारद द्वारा मंदिर के पक्षपक्ष में जो सबूत और शिलालेख अदालत में पेश किए गए थे, उनसे यह स्थापित हो रहा था कि विंध्वस ढांचे से पहले उस स्थान पर राममंदिर था। जिसे आक्रमणकारी बाबर ने हिन्दुओं को अपमानित करने की दृष्टि से शिया मुसलमान मीर बांकी को मंदिर तोड़कर मस्जिद बनवाने का हुक्म दिया था। मस्जिद के निर्माण में चूंकि शिया मुसलमान मीर बांकी के हाथ लगे थे, इस कारण इस्लामिक कानून के मुताबिक यह शिया मुसलमानों की धरोहर था। इसकी व्यवस्था संचालन के लिए शिया ‘मुतवल्ली’ की भी तैनाती बाबर के ही समय से चली आ रही थी। उत्तराधिकारी के रूप में जिस मुतवल्ली की तैनाती थी, उस व्यक्ति ने हिन्दू संगठनों से मिलकर बाबरी ढांचे को विवादित परिसर से बाहर ले जाकर स्थापित करने में सहमति भी जता दी थी। मालिकाना हक भी इसी मुतवल्ली का था। लेकिन सुन्नी वक्फ बोर्ड ने ऐसा नहीं होने दिया और मामला कचहरी की जद में बना रहा। इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले में राम की दिव्यता और उनके प्रति आस्था का जिक्र भले ही था लेकिन तीनों विद्वान न्यायाधीशों ने आखिरकार जनभावनाओं और आस्था को दरकिनार करते हुए फैसले का आधार पुरातत्वीय सर्वेक्षण की रिपोर्ट और सक्षों को ही माना था। ऐसे में एक बार फिर इस मुद्दे को धर्म और आस्था के बहाने पक्षकारों की सहमति पर छोड़ने का औचित्य समझ से परे है।
हालांकि अदालतों में विचाराधीन मामलों को अदालत से बाहर बातचीत के जरिए निपटाया जाता रहा है। कानून में ‘कोर्ट आॅफ सिविल प्रोसिजर‘ में इस तरह के प्रावधान हैं। विदिक सेवा प्राधिकरण कानून 1987 में बना था। लेकिन 9 नबंवर 1995 को यह लागू हो पाया। इसके तहत मामलों का निपटारा आपसी सहमति से संभव है। लोक अदालतों में भी भूमि के स्वामित्व व बंटवारा से संबंधित विवाद हल किए जाते है। लेकिन इस मामले के बातचीत से हल की उम्मीद इसलिए कम है, क्योंकि कोई भी पक्षपक्ष पीछे हटने को तैयार नहीं है। हालांकि विवादित स्थल राम की जन्मभूमि होने की मान्यता प्राचीन संस्कृत साहित्य और जनश्रुति में हजारों साल से बनी हुई है। किंतु इन मान्यताओं के आधार पर मुस्लिम पक्षपक्षकार पीछे हटजाए ऐसा लग नहीं रहा हैं। बावजूद इस मुद्दे का बातचीत से हल निकालने की कोषिषें प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, पीवी नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी करते रहे है, परंतु सफलता नहीं मिली। नरेंद्र मोदी भी सुलह के प्रयास में राजनीतिक स्तर पर जरूर लगे होंगे। क्योंकि विवादित स्थल पर राम मंदिर का निर्माण भाजपा के अजेंडे में भी है और उसके ज्यादातर कार्यकर्ता भावनात्मक रूप से भी इस मुद्दे से जुड़े हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को पक्षकारों को एक अवसर के रूप में देखना चाहिए, वह इसलिए क्योंकि बातचीत से हल निकलता है तो दोनों समुदायों के बीच समरस्ता परिपक्व अनुभव होगी और कोई भी पक्ष अपने को हरा अथवा जीता हुआ नहीं मानेगा।

 

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